मोदी के अथक प्रयासों के बावजूद देश पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हो पाया है
पिछले कुछ सालों में अक्सर सत्ता पक्ष की कोशिश देखी जाती है कि वह विपक्ष को धकिया कर अपने फैसले लागू करा दे। इसी के चलते संसद से लेकर तमाम विधानसभाओं में संघर्ष और विरोध प्रदर्शन की नौबत आए दिन आ जाती है।
राष्ट्र में अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार, अनाचार और राजनीतिक अराजकता के विरुद्ध समय-समय पर क्रांतियां होती रही हैं। लेकिन उनका साधन और उद्देश्य शुद्ध न रहने से उनका दीर्घकालिक परिणाम संदिग्ध रहा है। यही कारण है कि लोकतंत्र को जीवंतता देने की बात हो या भ्रष्टाचार मुक्ति का आह्वान, असरकारक नहीं हो पा रहे हैं। सत्ता और संपदा के शीर्ष पर बैठकर यदि जनतंत्र के आदर्शों को भुला दिया जाता है तो वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा नहीं हो सकती। पश्चिम बंगाल विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्षी नेताओं के बीच हाथापाई इसी का नतीजा थी। पिछले दिनों वहां के रामपुरहाट में हुई हिंसा में आठ लोग जल कर मर गए। उसी के विरोध में विपक्षी दलों ने सदन में जवाब मांगा, तो सत्तापक्ष के नेता हिंसक हो उठे। उस घटना से सबक नहीं लिया गया और दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के हंगामा करने पर उसके नेताओं को सुरक्षाकर्मियों के जरिए धकिया कर बाहर कर दिया गया। यही हाल दिल्ली नगर निगम की बैठक में भी रहा। वहां सत्तापक्ष और विपक्ष के पार्षद इस कदर गुत्थम-गुत्था हुए कि एक दूसरे के कपड़े तक फाड़ डाले। जनतंत्र की खूबसूरती यही है कि उसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों मिल कर नीतिगत फैसले करते हैं। अगर विपक्ष न हो तो सत्तापक्ष को निरंकुश होते देर नहीं लगती। मगर इस तकाजे को शायद आज के राजनेता भुला चुके हैं, इसी से लोकतंत्र दिनोंदिन कमजोर एवं निस्तेज होता जा रहा है।
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भ्रष्टाचार मुक्त शासन की भी धज्जियां बार-बार उड़ती रहती हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश में बारहवीं कक्षा की परीक्षा में कई जगहों पर प्रश्न-पत्र गलत तरीके से बाहर आने की घटना से फिर यही साबित हुआ है कि भ्रष्टाचार शासन-प्रशासन की जड़ों में आज भी गहरा पैठा है। बार-बार ऐसी गड़बड़ियों एवं भ्रष्टाचार के बावजूद सरकार इसे लेकर शायद ज्यादा फिक्रमंद नहीं है। बुधवार को अंग्रेजी विषय की परीक्षा होनी थी, मगर उससे दो घंटे पहले ही यह खबर सामने आई कि प्रश्न-पत्र बाहर कुछ लोगों के हाथ लग गया है और वे उसका उत्तर तैयार करा रहे हैं। लेकिन यह राजनीतिक दुर्बलता एवं प्रशासनिक लापरवाही ही कही जायेगी जिसमें ऐसे संकेतों को नजरअंदाज करने से भ्रष्टाचार पलता है। इन स्थितियों में लोकतंत्र के चारों स्तंभ ध्वस्त दिखायी दे रहे हैं, उनकी पवित्रता नष्ट हो चुकी है। सरकार जनता की समस्याओं को न समझने का प्रयास कर रही है और न निराकरण करने का प्रयास कर रही है। हमें जीवन को तो सदैव तरोताज़ा रखना है। चाहे राष्ट्रीय जीवन हो चाहे सामाजिक जीवन हो। इसके लिये जरूरी है भ्रष्टाचार मुक्ति का संकल्प आकार लेते हुए दिखें एवं विधायी सदनों में लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिले।
जब-जब भी अहंकारी, स्वार्थी एवं भ्रष्टाचारी उभरे, कोई न कोई नरेन्द्र मोदी सीना तानकर खड़ा होता रहा। तभी खुलेपन और नवनिर्माण की वापसी होती दिख रही है, तभी सुधार और सरलीकरण की प्रक्रिया चल रही है। इसी से लोकतंत्र सुरक्षित रह पायेगा। तभी लोक जीवन भयमुक्त होगा। संसद एवं विधानसभाएं अपना कर्तव्य ठीक से पूरा करे, जिन जनप्रतिनिधियों को जनता के हितों की रक्षा के लिए संसद में भेजा गया है वे अपने उन कार्यों और कर्त्तव्यों में ईमानदारी, पवित्रता एवं पारदर्शिता रखें तो किसी भी जन आंदोलन की जरूरत नहीं होगी। इस आजाद देश की सरकारों ने जनता को अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार के दंश के सिवाय और दिया ही क्या है। लेकिन जब इसकी अति होती है तो जनता सरकारों को सूखे पत्तों की तरह उड़ाते हुए भी देर नहीं लगाती। जैसा कि कांग्रेस पार्टी का हाल देखकर अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए इन स्थितियों का आना त्रासदीपूर्ण है। तंत्र के शीर्ष पर जो व्यक्ति बैठता है उसकी दृष्टि जन पर होनी चाहिए तंत्र या पार्टी पर नहीं। आज जन पीछे छूट गया और तंत्र आगे आ गया है। इसी कारण जनता को सड़कों पर आना पड़ता रहा है, कांग्रेस जैसी पार्टी का आईना दिखाना पड़ता है। मेरी दृष्टि में वही लोकतंत्र सफल होता है जिसमें आत्मतंत्र का विकास हो, अन्यथा जनतंत्र में भी एकाधिपत्य, अव्यवस्था और अराजकता की स्थितियां उभर सकती हैं।
पिछले कुछ सालों में अक्सर सत्ता पक्ष की कोशिश देखी जाती है कि वह विपक्ष को धकिया कर अपने फैसले लागू करा दे। इसी के चलते संसद से लेकर तमाम विधानसभाओं में संघर्ष और विरोध प्रदर्शन की नौबत आए दिन आ जाती है। अब तो स्थिति यह है कि सत्तापक्ष अगर सदन में बहुमत में है तो उसके नेता विपक्षियों को बलपूर्वक और हिंसक तरीके से रोकने का प्रयास करते हैं। वे अपने किसी गलत कदम के विरोध में विपक्ष की बात सुनने को तैयार नहीं होते। हालांकि कुछ मौकों पर पहले भी जनप्रतिनिधियों ने सदन में हिंसक व्यवहार किया है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में एक-दूसरे पर माइक और कुर्सियां फेंकने का दृश्य आज भी लोगों की जेहन में बना हुआ है। जम्मू-कश्मीर, बिहार आदि विधानसभाओं में भी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। मगर पश्चिम बंगाल और दिल्ली की घटनाओं ने एक बार फिर रेखांकित किया है कि क्या अब लोकतंत्र में विपक्ष की जगह खत्म करने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है। क्या राजनीति में अब हिंसा के जरिए अपनी बात मनवाने का पर यकीन बढ़ रहा है। क्या अब तर्कपूर्ण और शालीन तरीके से बात कहने के दिन खत्म हो रहे हैं। किसी आरोप या असहमति का जवाब अब मारपीट से ही दिया जाएगा।
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जन-प्रतिनिधियों के अशिष्ट एवं भ्रष्ट व्यवहार का ही परिणाम है कि प्रशासनिक स्तर पर भ्रष्टाचार खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। अफसोसनाक यह है कि अक्सर सामने आने वाली ऐसी घटनाएं सामान्य होती जा रही हैं। पिछले साल भी शिक्षक पात्रता परीक्षा का पर्चा लीक हो गया था, जिस पर हंगामा मचने के बाद परीक्षा नियामक प्राधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की गई थी। तब यह बात सामने आई थी कि पर्चा प्रिंटिंग प्रेस से ही लीक हुआ था। ताजा घटना को देखें तो हर जगह सीसीटीवी कैमरे, केंद्रों पर पुलिस बल की तैनाती और चौबीस घंटे निगरानी की चौकस व्यवस्था के बावजूद परीक्षा का पर्चा लीक हो गया। स्वाभाविक ही इसमें कई स्तरों पर कर्मचारियों और अधिकारियों की भूमिका संदिग्ध मानी जा रही है।
पैरों के नीचे से फट्टा खींचने का अभिनय तो सब करते हैं पर खींचता कोई भी नहीं। रणनीति में सभी अपने को चाणक्य बताने का प्रयास करते हैं पर चन्द्रगुप्त किसी के पास नहीं है। भ्रष्टाचार के लिए हल्ला उनके लिए राजनैतिक मुद्दा होता है, कोई नैतिक आग्रह नहीं। कारण अपने गिरेबां में तो सभी झांकते हैं वहां सभी को अपनी कमीज दागी नजर नहीं आती है, फिर भला भ्रष्टाचार से कौन निजात दिलायेगा? कैसी विडम्बना है कि आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए भी हम अपने आचरण और काबिलीयत को एक स्तर तक भी नहीं उठा सके, कहां है काबिलीयत और चरित्र वाले राजनायक हैं जो भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था निर्माण के लिये संघर्षरत दिखें। यदि हमारे प्रतिनिधि ईमानदारी से नहीं सोचेंगे और आचरण नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की आम जनता सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच अन्तर करने के लिये सड़कों पर उतरना ही होगा और उससे उत्पन्न स्थिति के लिये कौन जिम्मेदार होगा? आम-जन को लम्बे समय तक कुंद करके राजनीति नहीं की जा सकती। अतः भ्रष्टाचार की समस्या एवं लोकतंत्र की जीवंतता पर गहराई से चिन्तन होना ही चाहिए और इसकी जड़ सत्ता का अहंकार, सत्ता लोलुपता, महंगाई, बेरोजगारी एवं बढ़ती आबादी पर सार्थक चिन्तन करके ही इन समस्याओं का वास्तविक समाधान पाया जा सकता है।
-ललित गर्ग
(लेखक, पत्रकार एवं समाजसेवी)
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