11 साल की उम्र में बने सिक्खों के गुरु, गुरु हरगोबिंद के सामने मुगल शासक जहांगीर को भी पड़ा था झुकना
गुरु हरगोबिंद सिंह 14 जून, सन् 1595 ई. में अमृतसर के बडाली में हुआ था। इनकी माता का नाम गंगा और पिता का नाम गुरु अर्जुन सिंह था। गुरु हरगोबिंद सिंह के पिता और पांचवे गुरु अर्जुन सिंह 1606 में मुग़ल शासकों के हाथों शहीद होने वाले पहले सिक्ख थे।
गुरु हरगोबिंद सिंह धर्म और मानवीय मूल्यों के सशक्त पक्षधर थे। वह सिखों के छठे गुरु थे। बता दें कि गुरु हरगोबिंद सिंह दो तलवारें धारण करते थे। एक तलवार धर्मसत्ता और दूसरी राजसत्ता का प्रतीक थी। अमृतसर में उन्होंने श्री हरिमंदिर साहिब के ठीक सामने श्री अकाल तख्त साहिब का निर्माण कराया। उन्होंने संदेश दिया कि संसार में वास्तविक राज्य परमात्मा का है। आज के दिन यानी 3 मार्च को गुरु हरगोबिंद सिंह का निधन हो गया था। वह एक ऐसी शख्सियत थे, जिसके आगे मुगल बादशाह जहांगीर को भी झुकना पड़ा था।
जन्म
गुरु हरगोबिंद सिंह 14 जून, सन् 1595 ई. में अमृतसर के बडाली में हुआ था। इनकी माता का नाम गंगा और पिता का नाम गुरु अर्जुन सिंह था। गुरु हरगोबिंद सिंह के पिता और पांचवे गुरु अर्जुन सिंह 1606 में मुग़ल शासकों के हाथों शहीद होने वाले पहले सिक्ख थे। गुरु हरगोबिंद ने एक मजबूत सेना का संगठन किया था और अपने पिता के निर्देशानुसार सिक्ख पंथ को योद्धा -चरित्र प्रदान किया था। वह 25 मई, 1606 ई. को सिक्खों के छठे गुरु बने थे और 28 फरवरी 1644 तक इस पद पर बने रहे।
इतिहास
गुरु हरगोविंद से पहले सिक्ख पंथ निष्क्रिय रहा था। वह प्रतीक के रूप में अस्त्र-शस्त्र धारण करके तख्त पर बैठे। हरगोविंद गुरु ने मजबूत सेना के संगठन के लिए अपना अदिकतर समय युद्ध प्रशिक्षण और युद्ध कला में लगाया। जिसके बाद वह एक कुशल तलवारबाज, कुश्ती और घुड़सवार बन गए। अपनी सेना संगठित किए जाने पर उन्होंने तमाम विरोधों का सामना किया। लेकिन उन्होंने सेना को संगठित कर अपने शहर की किलेबंदी की। उन्होंने 1609 में अमृतसर में अकाल तख्त का निर्माण कराया। इस स्थान पर सिख-राष्ट्रीयता से संबंधित आध्यात्मिक और सांसारिक मामलों का निपटारा किया जाता था।
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सिक्खों के प्रति आस्था
गुरु हरगोविंद अमृतसर के पास एक लौहगढ़ नाम का किला बनवाया। उन्होंने अपने अनुयायियों में बड़ी कुशलता से युद्ध के लिए इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास जगाया। वहीं सिक्खों की स्थिति को मजबीत होता देख मुगल शासक जहांगीर भी घबरा गया और उसने गुरु हरगोबिंद सिंह को ग्वालियर में क़ैद कर लिया। इस दौरान गुरु हरगोबिंद के 12 सालों तक कैद में रहने के दौरान सिक्खों की आस्था उनके प्रति और मज़बूत हुई। हालांकि भारतीय राज्य जो मुगलों का विरोध करते थे, उनके खिलाफ सिक्खों का समर्थन प्राप्त करने के लिए जहांगीर ने गुरु को रिहा कर दिया।
सिक्ख धर्म में दीवाली
बता दें कि मुग़ल बादशाह जहांगीर ने 1619 देश भर के लोगों द्वारा हरगोबिंद सिंह को छोड़े जाने की अपील पर उन्हें दीवाली वाले दिन मुक्त किया था। लेकिन गुरु ने जहांगीर के सामने अन्य 52 राजाओं को मुक्त किए जाने की शर्त रख दी। वहीं जहांगीर भी हरगोबिंद सिंह की बढ़ती शक्ति से घबराया हुआ था। जिस कारण उसे अन्य 52 साथियों को भी छोड़ना पड़ा था। कैद से मुक्त होने के बाद वह अमृतसर पहुंचे। उनके रिहा होने की खुशी में चारों ओर मिठाई बांटी गई और दीप जलाकर खुशी मनाई गई। इसी कारण से सिक्ख धर्म में दीवाली को 'बंदी छोड़ दिवस' के तौर पर भी मनाया जाता है। अमृतसर के फेमस मंदिर स्वर्ण मंदिर की नींव भी 1577 में दिवाली के दिन ही रखी गई थी। बता दें कि सिक्ख धर्म में 3 दिन तक दिवाली का त्योहार मनाया जाता है।
धर्म की रक्षा
मुगल शासक जहांगीर की मृत्यु के बाद उनका बेटा शाहजहां ने सत्ता संभाली। शाहजहां के शासन काल में सिक्खों पर उग्रता से अत्याचार शुरू हो गया। वहीं गुरु हरगोविंद के नेतृव्य में उनकी सेना ने मुगलों कीअजेयता को झुठलाते हुए चार बार शाहजहां की सेना को हराया। गुरु हरगोबिंद सिंह ने अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों में इस बात को भी जोड़ा कि जरूरत पड़ने पर सिक्ख तलवार उठाकर अपने धर्म की रक्षा करें। क्योंकि यह सिक्खों का यह अधिकार और कर्तव्य है।
मृत्यु
गुरु हरगोविंद ने अपनी मृत्यु से ठीक पहले अपने पोते गुरु हर राय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। एक युद्ध के दौरान गुरु गोबिन्द सिंह के सीने में एक गहरी चोट लगी लगी थी। जिसके कारण 42 वर्श की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई थी। बता दें कि 1644 में पंजाब के कीरतपुर में उनकी मृत्यु हुई थी। बता दें कि 11 साल की उम्र में गुरु की उपाधि मिलने के कारण उनको बच्चा गुरु भी कहा जाता है।
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