भारतीय मूल्यों की प्रखर प्रवक्ता थीं पूर्व राज्यपाल व साहित्यकार मृदुला सिन्हा

mridula sinha
गिरीश पंकज । Nov 20 2020 6:06PM

मृदुलाजी समग्र लेखन की विशेषता यही है कि उनमे नयापन तो है लेकिन परम्परा और संस्कृति के प्रति गहन लगाव है, रागात्मक बोध भी है। वे महानगरों में रहने वाली जड़ से कटी लेखिकाओं में से नहीं है। मृदुला जी के लेखन मे पश्चिमीकरण नहीं है।

गोवा की पूर्व राज्यपाल प्रख्यात लेखिका मृदुला सिन्हा का 18 नवंबर को दुखद निधन हो गया। उनके साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक अवदान को लोग निरंतर याद रखेंगे। मैं अक्सर जिन मानवीय और भारतीय मूल्यों के साथ चल कर स्त्री-विमर्श को देखने की बात करता हूँ, वे समस्त मूल्य अगर किसी एक लेखिका में गरिमापूर्ण दीखते थे, उस विदुषी का नाम था, मृदुला सिन्हा। यह मुँहदेखी बात नहीं है। उनका समग्र लेखन इस बात की खुली गवाही है। इसलिए अगर मैं उनको भारतीय मूल्यों की प्रखर प्रवक्ता कहूँ, तो यह असंगत न होगा। स्त्री-मुक्ति की वकालत भी वे निरंतर करती थीं लेकिन मुझे वे महादवी वर्मा की परम्परा की ही लेखिका लगती रहीं। महादेवी वर्मा के अवदान से हम परिचित हैं। उनके जीवन के संघर्ष को भी हम सब जानते हैं। उन्होंने एक जगह लिखा भी है कि मैं भारतीय संस्कृति की परिधि में रह कर ही स्त्री-मुक्ति की बात करती हूँ। इसका मतलब यह कि जो कुछ हमारे श्रेष्ठ सनातनी मूल्य हैं, महादेवी जी उनके साथ है। अपने वक्तव्यों में मृदुला जी भी आधुनिकता की बात करती रहीं, लेकिन उसकी जड़ में भारतीय सांस्कृतिक-बोध भी सन्निहित होता था। यही कारण है कि इस वक्त के स्त्री लेखन में जिन दो-चार लेखिकाओं में नैतिकता की प्रखरता दिखती है, उनमें मृदुला जी शीर्ष पर दिखाई देती हैं। बांग्ला की आशापूर्णा देवी भी इसी परम्परा की थी। अपने समय में सुभद्राकुमारी चौहान जैसी कुछ लेखिकाएं भी थी, जिन्होंने भारतीय मूल्यों की अनदेखी कभी नहीं की। मृदुलाजी में ऐसी ही श्रेष्ठ लेखिकाओं का विस्तार दीखता है। यह कम बड़ी बात नहीं कि उन्होंने पूर्णकालिक लेखन के लिए सरकारी नौकरी छोड़ दी और जीवन सृजन को समर्पित कर दिया।

इसे भी पढ़ें: पूरी दुनिया में मिसाल थी इंदिरा गांधी की दबंगता

परम्परा और संस्कृति के प्रति गहन लगाव 

मृदुलाजी समग्र लेखन की विशेषता यही है कि उनमे नयापन तो है लेकिन परम्परा और संस्कृति के प्रति गहन लगाव है, रागात्मक बोध भी है। वे महानगरों में रहने वाली जड़ से कटी लेखिकाओं में से नहीं है। मृदुला जी के लेखन मे पश्चिमीकरण नहीं है। उनके लेखन में  पूरब की लाली है जिसकी आभा में उनका साहित्य दीप्त होता रहता है। नाम के अनुरूप ही वे मृदुल है। मृदुभाषी भी है और मितभाषी भी। उनसे मेरा कोई अंतरंग परिचय नहीं है। दो एक बार वे रायपुर आई, तब उनसे आत्मीय भेंट हुई। एक कार्यक्रम में उनके साथ मंच पर बैठने का सौभाग्य भी मिला। खुशी इस बात कि वे मेरे काम से थोड़ा-सा परिचित भी थीं। मेरे साहित्यिक मित्र संजय पंकज ने एक रोचक संस्मरण सुनाया। पिछले साल मुझे एक सम्मान मिला। अनेक पत्रिकाओं में उस की खबर प्रकाशित हुई थी। मृदुला जी साहित्यिक पत्रिकाएं तो पढ़ती ही रहती हैं। उन्होंने भी वो खबर देखी थी। एक बार जब संजय जी से उनकी कहीं भेंट हुई तो उन्होंने उनको बधाई दे दी कि आपको फलाँ सम्मान मिला है, तो संजयजी ने कहा, ''मुझे नहीं, गिरीश पंकज को मिला है।'' यह सुनकर वे मुस्करा दी। एक और घटना जो बिलकुल मुझसे जुडी हुई है। वो यह है कि एक केंद्रीय मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति के लिए उन्होंने मेरे नाम की अनुशसा की। मंत्रालय से मेरे पास पत्र भी आया कि अपना बायोडाटा भेज दीजिये। तभी मुझे ज्ञात हुआ क्यों कि पत्र में अधिकारी ने लिखा था कि मृदुलाजी ने आपके नाम की अनुशंसा की है। यह उनके राज्यपाल बनने के कुछ समय पहले की ही बात है। इसे अपना सौभाग्य ही मानता हूँ कि देश की एक बड़ी लेखिका बड़ा हृदय भी रखती हैं और वे लोगों को पहचानती भी है। उनमे खासियतें अनंत है। एक लेखक के नाते मैंने जो देखा वो यह कि वे आज भी (महामहिम होने के बावजूद ) लेखकों के बीच जाना पसंद करती थीं और प्रोटोकॉल को भी किनारे रख देती थीं। वे जब किसी साहित्यिक समारोह में जाती, तो विशुद्ध लेखक की तरह ही रहतीं। विश्व पुस्तक मेले में वे लेखकों के बीच लेखक की तरह ही बैठती रहीं। सृजनधर्मियों के बीच कोई बंधन नहीं रहता। वे सबसे प्रेम से मिलती और खुल कर अपनी बात रखती। मौका पड़ने पर लोक गीत भी सुना देतीं। एक जगह उन्होंने सुनाया भी कि ''सरौता कहाँ भूल आई प्यारी ननदिया''। व्यंग्यकारों के बीच आती, तो व्यंग्य भी पढ़ती। सहजता-सरलता ही व्यक्ति को शिखर तक पहुंचा देती थी। विनोद करना मृदुलाजी का सहज स्वभाव था। एक बार उन्होंने कहीं कहा था, ''मेरे बालों पर मत जाइए। इसे तो मैंने सफेद रंग कराया है। मैं तो अभी भी बयालीस साल की उम्र के बराबर ही काम करती हूँ''। 

इसे भी पढ़ें: लोकनायक एवं क्रांतिकारी संत थे विजय वल्लभ सूरीश्वरजी

भारतीय स्त्री की छवि 

मृदुला जी की पत्रिका 'पाँचवाँ स्तम्भ' के हम लोग नियमित पाठक रहे। पत्रिका का शीर्षक ही उनकी सोच को दर्शाने वाला है पत्रकारिता भी प्रजातंत्र का एक स्तम्भ है। इस पत्रिका में समकालीन समय और समाज के अनेक महत्वपूर्ण मुद्दे प्रमुखता के साथ सामने आते रहे हैं और उन पर गंभीर विमर्श भी होता रहा है। उनके लेखन की लगन से हम सब परिचित ही है। उनका चर्चित उपन्यास 'ज्यों मेहदी को रंग' तो पाठ्य पुस्तक का हिस्सा भी बना। इसके अतिरिक्त 'घरवास', 'नई देवयानी', 'अतिशय' और 'सीता पुनि बोली' जैसे उपन्यास भी हैं, जिनमे भारतीय स्त्री के जीवन संघर्ष और उसकी अस्मिता के दर्शन हमें होते हैं। भारतीय मनोविज्ञान की सुंदर व्याख्या उनके लेखन का केन्द्रीय तत्व है। उनकी कहानियों और निबंधों में भी हम मिट्टी की सोंधी महक पाते हैं। वे देशज अनुभूतियों से लबरेज लेखिका थीं। महानगर में रहते हुए भी वे अपने लेखन और विचार के द्वारा बार बार गाँव लौटती थीं। अनेक लेखिकाएँ महानगर की कहानियां कह रही हैं और विकृतियों को महिमा मंडित भी कर रही हैं, लेकिन मृदुला जी के यहां विकृतियों को स्वीकृति नहीं मिलती, वरन उसका तिरस्कार ही दीखता है।

- गिरीश पंकज 

छत्तीसगढ़

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़