गुजरात में पहले से ज्यादा बड़ी दिख रही मोदी लहर क्या संदेश दे रही है?
गुजरात में खासतौर पर गांधीनगर और अहमदाबाद की दोनों सीटें ऐसी हैं कि आपको वहां कुछ घंटों में ही समझ आ जायेगा कि यहां सवाल भाजपा की जीत का नहीं बल्कि उसकी जीत के अंतर का है। यहां आपको कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो भाजपा के अलावा किसी अन्य दल की बात करता हो।
1989 के बाद से गुजरात के हर संसदीय चुनाव में बीजेपी का दबदबा रहा है। खासतौर पर 2014 और 2019 में तो भाजपा ने सभी 26 सीटें जीती थीं। यह चुनाव भी कुछ अलग नहीं लग रहा है क्योंकि संभवतः गुजरात में अब तक की सबसे तेज़ और बड़ी मोदी लहर चल रही है। हम आपको बता दें कि भाजपा की 2022 की जीत को भारत के विधानसभा चुनावों के इतिहास में किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी जीत में से एक के रूप में दर्ज किया गया है।
इस बार के लोकसभा चुनावों में गुजरात में भाजपा ने सूरत संसदीय सीट तो निर्विरोध ही जीत ली। जिसके बाद कांग्रेस ने दावा किया कि विपक्षी उम्मीदवार इसलिए बाहर हो रहे हैं क्योंकि गुजरात में कोई लोकतंत्र नहीं है। कांग्रेस ने भाजपा को लोकतंत्र का हत्यारा बताना शुरू कर दिया। लेकिन कांग्रेस यह नहीं देख रही कि उसके नेताओं, कार्यकर्ताओं और विधायकों में पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थामने की जो होड़ लगी है उसका असल कारण यह है कि लोगों को कांग्रेस में अपना भविष्य नजर नहीं आ रहा है। दशकों तक कांग्रेस की सेवा करने वाले अर्जुन मोढवाडिया हों, दक्षिण और उत्तर गुजरात से कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने वाले विधायक हों, सबका यही कहना है कि कांग्रेस का सनातन विरोधी चेहरा हमारे आगे बढ़ने की राह में सबसे बड़ी बाधा है। देखा जाए तो गुजरात के लोग बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के हैं और उनको लगता है कि विकास के साथ धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए कोई दल काम कर रहा है तो वह भाजपा ही है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होने से यहां के लोगों की खुशी देखते ही बन रही थी। इसके अलावा, गुजरात में आपको लगभग हर घर ऐसा मिल जायेगा जिसके परिवार के लोगों में से कोई ना कोई भाजपा से किसी ना किसी तरह जुड़ा रहा है।
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गुजरात में खासतौर पर गांधीनगर और अहमदाबाद की दोनों सीटें ऐसी हैं कि आपको वहां कुछ घंटों में ही समझ आ जायेगा कि यहां सवाल भाजपा की जीत का नहीं बल्कि उसकी जीत के अंतर का है। यहां आपको कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो भाजपा के अलावा किसी अन्य दल की बात करता हो। यहां हमें कांग्रेस या अन्य दलों के उम्मीदवार प्रचार करते भी नहीं दिखे जबकि अपनी स्थिति मजबूत होने और बूथ लेवल तक संगठनात्मक ढांचा विकसित होने के बावजूद भाजपा चौबीसों घंटे चुनाव जीतने का प्रयास करती दिखी।
गुजरात में प्रभासाक्षी की चुनाव यात्रा के दौरान हमने पाया कि यहां चाय की दुकानों पर राजनीतिक गपशप तेज थी। लोग यह चर्चा कर रहे थे कि कांग्रेस के उम्मीदवार इसलिए बाहर हो रहे हैं क्योंकि वे राजनीतिक 'बलि का बकरा' बनने के लिए तैयार नहीं हैं। कांग्रेस के उम्मीदवारों को जिस अपमानजनक अंतर से हार का सामना करना पड़ता है उसको देखते हुए पार्टी को उम्मीदवार ढूंढ़ने में मशक्कत करनी पड़ती है। गुजरात में हालांकि एक बात साफ दिखी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तमाम प्रयासों के बावजूद मुस्लिम समाज के लोग स्पष्ट रूप से भाजपा के खिलाफ हैं। उनको लगता है कि पार्टी की जीत में मोदी की लोकप्रियता या भाजपा के विकास का नहीं बल्कि ईवीएम की सेटिंग का सबसे बड़ा हाथ है।
इसके अलावा, गुजरात में पिछले चुनावों की अपेक्षा इस बार एक नई चीज देखने को मिली कि यहां जातिगत तनाव पैदा करने का प्रयास हुआ ताकि भाजपा की लगातार दो बार से शत प्रतिशत सीटों पर जीत को रोका जा सके। वैसे जाति यहां हमेशा राजनीति के केंद्र में रही है लेकिन इस बार यह ज्यादा हावी दिखी। अक्सर रैलियों को संबोधित करते समय राजनेता जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हैं। जीभ की जरा सी फिसलन कितना बड़ा बवाल खड़ा कर सकती है इसका सशक्त उदाहरण केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम रूपाला का एक बयान बन गया।केंद्रीय मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री तथा राज्यसभा सदस्य परषोत्तम रूपाला की क्षत्रियों पर टिप्पणी इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा रही।
देखा जाए तो गोधरा के बाद गुजरात एक नई वास्तविकता के साथ तालमेल बिठा चुका था जहां सभी जातियां धर्म की बड़ी छतरी के नीचे एक साथ आ गई थीं। मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में जातिगत मुद्दे शायद ही कभी सामने आए होंगे लेकिन उनके दिल्ली जाने के बाद से हालात में परिवर्तन आया।
मोदी के दिल्ली जाने के बाद ही विभिन्न समुदायों ने सत्ता से अधिकतम लाभ उठाने के लिए पुनर्गठित होना शुरू किया। पटेल आरक्षण आंदोलन, दलित आंदोलन और 2016-17 में ठाकोरों का शक्ति प्रदर्शन इस बात के बड़े उदाहरण हैं।
हालांकि जातिगत आंदोलनों के पीछे के तीन प्रमुख लोगों में से दो- हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर के भाजपा में शामिल होने के बाद ये आंदोलन नियंत्रण में आ गए। हम आपको बता दें कि पटेल शक्तिशाली पाटीदार समुदाय से हैं, जो 1980 के बाद से भाजपा की सफलता का प्रमुख आधार रहे हैं। बताया जाता है कि गुजरात में भाजपा का उदय काफी हद तक पटेलों के कारण हुआ है। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी का कहना था कि पटेलों ने सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) के विरोध में भगवा पार्टी का पूरे दिल से समर्थन किया था।
भाजपा ने 2014 और 2019 में गुजरात की एकतरफा संसदीय चुनावी लड़ाई में सभी 26 सीटें जीती थीं। लेकिन इस बार क्षत्रियों, राजपूतों पर रूपाला के बयान के बाद राजनीतिक स्थिति थोड़ी कठिन हो गई। भाजपा ने रुपाला को सौराष्ट्र के राजकोट निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव में उतारा जहां जातिगत मुद्दे वैसे ही हावी रहते हैं। इसलिए जब विवादित बयान सामने आया तो राजपूतों ने रुपाला की उम्मीदवारी रद्द करने की मांग को लेकर जोरदार विरोध प्रदर्शन किए। हालांकि प्रदर्शनकारियों ने भाजपा के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त करते हुए कहा कि उन्हें मोदी से कोई समस्या नहीं है।
इस हालात से चिंतित रूपाला दिल्ली गए और वहां कुछ बैठकों में उन्हें जीत का मंत्र दिया गया जिसके बाद वह पूरे आत्मविश्वास से लौटे और खुद को प्रचार में पूरी तरह झोंक दिया। जैसे ही उन्होंने अपना नामांकन दाखिल किया तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया था कि भाजपा क्षत्रिय प्रदर्शनकारियों की मांगों के आगे झुकने वाली नहीं है।
सवाल उठता है कि एक समुदाय को नाराज करने की कीमत पर भाजपा ने रूपाला का समर्थन क्यों किया? इसका जवाब यह है कि दरअसल गुजरात की किसी भी लोकसभा सीट पर क्षत्रिय वोट जीत का आधार नहीं हैं। हालाँकि वे भाजपा का वोट शेयर कम कर सकते हैं, लेकिन वे उसकी हार का कारण नहीं बन सकते।
इसके अलावा, गुजरात में बड़े क्षत्रिय समूह के भीतर खुद को राजपूत के रूप में पहचानने वाले प्रदर्शनकारियों को ठाकोर या कोली जैसी अन्य महत्वाकांक्षी क्षत्रिय जातियों का समर्थन लगभग नहीं मिला। हम आपको बता दें कि ठाकोर और कोली मिलकर गुजरात में सबसे बड़ा चुनावी समूह बनाते हैं।
देखा जाए तो गुजरात क्षत्रिय सभा (जीकेएस) जैसे संगठनों द्वारा सभी उप-जातियों को एक छत के नीचे एकजुट करने के प्रयास कभी सफल नहीं हुए। हम आपको याद दिला दें कि जब जीकेएस ने आरक्षण लाभ के लिए एकीकरण की मांग की थी तब उन्हें पूर्ववर्ती 'राजघरानों' के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था जिन्होंने अपनी उच्च स्थिति पर जोर देते हुए आरक्षण का कड़ा विरोध किया। बाद में, ठाकोर और कोली को ओबीसी के रूप में शामिल किया गया।
चुनाव प्रचार की कवरेज के दौरान हमने पाया कि भाजपा को विरोध प्रदर्शनों से किसी भी संभावित चुनावी नतीजे के बारे में चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं महसूस नहीं हो रही थी। दरअसल ये विरोध प्रदर्शन पार्टी की योजनाओं को उस तरह से बाधित नहीं कर सकते थे जिस तरह से कोटा आंदोलन के बाद नाराज पाटीदारों ने किया था, जिसने 2017 के चुनाव में गुजरात की 182 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा की संख्या 100 से नीचे पहुंचा दी थी।
इस बार, पटेल रूपाला को भाजपा के समर्थन के परिणामस्वरूप कस्बों और गांवों में पाटीदार वोट एकजुट होते दिखे। गाँवों में क्षत्रियों और पटेलों के बीच प्रतिस्पर्धा दिखी। लेकिन क्षत्रिय विरोध ने दो पाटीदार वर्गों, लेउवा और कड़वा को एकजुट कर दिया। हम आपको बता दें कि रूपाला कड़वा पाटीदार हैं। यही नहीं, बताया जाता है कि भाजपा को इस चुनाव में तथाकथित निचली जातियों का भरपूर समर्थन इसलिए मिला क्योंकि पार्टी क्षत्रियों की मांग के आगे नहीं झुकी।
इसके अलावा हमें एक बात और देखने को मिली कि राजपूत प्रदर्शनकारी उस तरह से संसाधन नहीं जुटा सके जैसे पाटीदारों ने 2015 के आरक्षण आंदोलन के दौरान किया था। दूसरी ओर, क्षत्रियों को समझाने का अपने स्तर से प्रयास करने के अलावा भाजपा ने प्रदर्शनकारियों से अपील करने के लिए पूर्व 'राजघराने' के लोगों की भी मदद ली।
गुजरात में एक चीज और देखने को मिली कि महिलाएं चाहे किसी भी उम्र या वर्ग की हों, उनकी पहली पसंद मोदी हैं। व्यापारी चाहे छोटा हो या बड़ा, उनकी पहली पसंद मोदी हैं। युवाओं की भी पहली पसंद मोदी ही नजर आए क्योंकि उनको लगता है कि वही उनका भविष्य उज्ज्वल बना सकते हैं। युवाओं का कहना था कि मोदी की योजनाएं उन्हें नौकरी के पीछे भागने की बजाय इस लायक बना रही हैं कि वह नौकरी देने लायक बन सकें।
बहरहाल, कुल मिलाकर देखें तो गुजरात में चुनावों में सबसे बड़ा मुद्दा मोदी ही हैं। उनके नाम के आगे तमाम मुद्दे बौने नजर आते हैं। गुजरात के लोगों को लगता है कि उनका बेटा मोदी सही से देश चला रहा है इसलिए वह किसी भी परिस्थिति में उनके साथ ही खड़े रहेंगे।
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