Matrubhoomi: भारत के इन प्रसिद्धों व्यंजनों की दुनिया है दीवानी ! बहुत दिलचस्प है इनका इतिहास
व्यंजन का कोई धर्म नहीं होता... बस इसके लिए भूखे पेट और गजब के स्वाद की जरूरत होती है। तभी तो आप लोगों ने समोसे से लेकर बिरयानी तक हर व्यंजन का लुत्फ जरूर उठाया होगा और बिरयानी के तो क्या ही कहने। लखनवी हो या फिर हैदराबादी बिरयानी, सबके अपने स्वाद हैं और सबकी अपनी लड़ाई।
कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर बदले वाणी लेकिन इस कहावत में अगर स्वाद का चटकारा लगा दिया जाए तो कहावत कुछ इस अंदाज में नजर आएगी कि कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बदले वाणी और गांव-गांव की है अपनी थाली... जी, हां विविधताओं से भरे हिन्दुस्तान में जितनी तेजी से साथ भाषा बदलती है उतनी ही तेजी के साथ स्वाद भी बदलता है। हर जगह का अपना अलग ही स्वाद है।
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व्यंजन का कोई धर्म नहीं होता... बस इसके लिए भूखे पेट और गजब के स्वाद की जरूरत होती है। तभी तो आप लोगों ने समोसे से लेकर बिरयानी तक हर व्यंजन का लुत्फ जरूर उठाया होगा और बिरयानी के तो क्या ही कहने। लखनवी हो या फिर हैदराबादी बिरयानी, सबके अपने स्वाद हैं और सबकी अपनी लड़ाई। किसी को लखनवी बिरयानी में ज्यादा आनंद मिलता है तो कोई चटकारेपन के लिए हैदराबादी बिरयानी को पसंद करता है लेकिन इनकी तुलना नहीं की जा सकती है। ऐसे में आज हम हिन्दुस्तान के कुछ प्रसिद्ध व्यंजनों के इतिहास से आपको रूबरू कराने वाले हैं... इतिहास के पन्नों को पलटने में कुछ ऐसे तथ्य सामने आए जिसको लेकर विरोधाभास रहा और खाद्य इतिहासकार भी इससे सहमत नहीं हो सकते हैं।
बिरयानी
'बिरयानी' शब्द की उत्पत्ति फारसी शब्द 'बिरियन' से हुई है जिसका मतलब है तला हुआ... किंवदंती है कि शाहजहाँ की रानी मुमताज़ ने एक बार सेना की बैरकों का दौरा किया। उस वक्त उन्हें लगा कि सैनिक अल्पपोषित हैं। ऐसे में उन्होंने शेफ को एक विशेष व्यंजन तैयार करने के लिए कहा, जो संतुलित पोषण प्रदान करता हो। जिसके बिरयानी सामने आई। बिरयानी में हमेशा फारसी और अफगानी प्रभाव दिखाई दिया है। हालांकि मुगलों ने इसे भारतीय जमीं पर तैयार किया, जहां पर उन्होंने वर्षों तक शासन किया। ऐसे में जब कभी आपको बिरयानी का स्वाद चखने का मन करे तो मुमताज को जरूर याद करियेगा।
इसके अलावा एक कहानी ऐसी भी है कि 'ऊन सोरू' के रूप में जाना जाने वाले एक चावल का व्यंजन तमिल में वर्ष 2 ईस्वी में पाया गया था। ऊन सोरू को योद्धाओं को खिलाने के लिए तैयार किया जाता था जिसमें चावल, घी, मांस, हल्दी, धनिया, काली मिर्च और तेजपत्ता शामिल होता था। इसके अलावा तिमोर द लेम का भी अपनी कहानी है। जिसमें कजाकिस्तान और अफगानिस्तान से होते हुए उत्तरी भारत में बिरयानी आई थी।
बटर चिकन
बटर चिकन की उत्पत्ति का पता पुरानी दिल्ली से लगाया जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि इसे सबसे पहले कुंदन लाल गुजराल नामक व्यक्ति ने तैयार किया था, जो पेशावर में मोती महल डीलक्स नामक एक रेस्तरां चलाया करते थे। विभाजन के कुछ समय बाद रेस्तरां चलाने वाले शेफ दिल्ली चले गए। बटर चिकन की कहानी कुछ इस तरह से है कि देर रात को रेस्तरां बंद होने के बाद एक वीआईपी अतिथि ने रेस्तरां का दौरा किया। जहां पर शेफ को अतिथि के लिए एक बेहतरीन चिकन डिश तैयार करने के लिए कहा गया। ऐसे में शेफ ने अपने रेस्तरां को अच्छी तरह से देखा और पाया कि उसके पास महज आधा तंदूरी चिकन रखा हुआ है।
ऐसे में शेफ ने जल्दबाजी में तंदूरी चिकन में बटर, टमाटर और गरम मसालों मिला दिए और कुछ भी बनाने की कोशिश की और शेफ ने अंतत: बचे हुए तंदूरी चिकन से एक शानदार व्यंजन तैयार किया, जो मारेलुन के शासक के लिए था। ऐसे में अगर आपसे कोई कहे कि बटर चिकन को बनाना काफी मुश्किल है तो उसे जरूर बताईयेगा कि यह सामान की कमी के कारण बनाया गया एक अद्भुत व्यंजन है, जिसकी खूब वाहवाही हुई थी हालांकि मोती महल के पास बटर चिकन का कोई खास नुस्खा नहीं है।
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इडली
इडली का दक्षिण भारतीय खानपान में लंबा इतिहास है। इसका उल्लेख शिवकोटि आचार्य के कन्नड़ प्रलेख में 920 में मिलता है और पता चलता है कि यह व्यंजन केवल उड़द दाल के पिसे घोल के किण्वन से ही बनता था। चवुंदराय-द्वितीय, प्राचीनतम कन्नड़ विश्वकोष लोकोप्कार के रचयिता सं.1025 में इडली बनाने की विधी का उल्लेख किया गया है। कुछ कहानियां ऐसी भी हैं कि 800-1200 ईस्वी के बीच इंडोनेशिया के हिंदू राजाओं के साथ रसोइया को दक्षिण भारत में लाए थे। तभी भाप से तैयार किए जाने वाला व्यंजन यहां पहुंचा था।
सांभर
यह सभी जानते हैं कि इडली के बिना सांभर अधुरा है या फिर सांभर के बिना इडली... हमेशा दोनों को साथ में ही परोसा जाता है... लेकिन क्या आपको पता है कि सांभर को 18वीं सदी में बनाया गया था। इसके लिए इतिहास के पन्नों को पलटना होगा और मराठा साम्राज्य की ओर अपना ध्यान केंद्रित करना पड़ेगा। बात उन दिनों की है जब तमिलनाडु के तंजावुर में मराठाओं का राज हुआ करता था। तब शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी वहां पर रह रहे शाहुजी महाराज से मिलने के लिए पहुंचे थे और उन्हें मराठी व्यंजन आमटी बहुत ज्यादा पसंद थी।
आपको बता दें कि आमटी को मूंग दाल और कोकम के इस्तेमाल से बनाया जाता था। मूलत: इसमें खट्टापन होता है। ऐसे में शाहुजी महाराज ने संभाजी के आदर में अपने शाही रसोइयों को आमटी बनाने का आदेश दिया। लेकिन संभाजी महाराज को यह नहीं पता था कि रसोई में मूंग की दाल खत्म हो गई है। ऐसे में रसोइये ने मटर की दाल और खट्टेपन के लिए इमली के इस्तेमाल से एक व्यंजन तैयार किया जिसे संभाजी को परोसा गया और उन्हें इसका स्वाद काफी ज्यादा भा गया था और यहीं से सांभर की उत्पत्ति हुई।
पनीर
आज के समय में लगभग हर शाकाहारी भारतीय व्यंजन में पनीर का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि यह कम ही लोग जानते हैं कि पनीर किंवदंती है और इसे गलती से बनाया गया था। आपको बता दें कि मंगोल एक लंबी यात्रा पर निकले थे, घोड़ों की सवारी करते हुए जो मुशकी (कच्ची खाल से बने बैग) में दूध ले जा रहे थे और उस वक्त भीषण गर्मी थी। रेगिस्तान की गर्मी और मुशकी में भरे दूध का मिश्रण कुछ ऐसा हुआ कि दूध पनीर में बदल गया और जब इसका स्वाद चखा गया तो वो भी लाजवाब था और फिर कई वर्षों बाद मुगलों ने इसे भारत लाया था। जिसमें विभिन्न भारतीय मसालों और सब्जियों को मिलाकर अलग-अलग व्यंजन तैयार किए गए।
वड़ा पाव
वड़ा पाव का इतिहास कोई बहुत पुराना नहीं है, बस करीब 56 साल पुराना है। इसका श्रेय मुंबई के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले अशोक वैद्य को जाता है, जो दादर स्टेशन के बाहर एक स्टॉल लगाया करते थे और वहां पर भीड़ भी अच्छी खासी लगा करती थी। ऐसे में अपने परिवार का पेट भरने के लिए अशोक वैद्य ने कुछ नया ट्राई करने का सोचा और वड़ा पाव की उत्पत्ति हुई, जिसे महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। अशोक वैद्य ने एक दिन ऑमलेट बेचने वाले व्यक्ति से कुछ पाव खरीदे और उन्हें बीच से काटकर उनमें बटाटा वड़े रख दिए। इसके साथ ही अशोक वैद्य ने महाराष्ट्र की पारंपरिक लहसुन की सूखी-तीखी चटनी और हरी मिर्च के साथ लोगों को खिलाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते इसकी मांग बढ़ गई और अशोक वैद्य काफी लोकप्रिय हो गए।
कबाब
हर किसी का अजीज कबाब की अपनी अलग कहानी है। इस व्यंजन का आविष्कार तुर्की में मध्यकालीन युग के दौरान ही किया गया था। कहा जाता है कि 17वीं सदी में औरंगजेब ने 9 महीनों तक जंग के बाद गोलकुंडा किला फतह किया था और तभी सैनिकों ने मांस को पकाने की नई शैली विकसित की थी। कहा तो यहां तक जाता है कि सैनिकों ने मांस को खराब होने से बचाने के लिए इसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दिया था और फिर तलवारों पर ग्रिल करके रोटी के साथ खाया था।
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चिकन तंदूरी/चिकन टिक्का
बटर चिकन की कहानी तो आप लोगों को पता ही है और उसे मोती महल ने बनाया कैसे था यह भी आप जानते हैं। तो हम आपको बता दें कि चिकन तंदूरी का ईजाद भी मोती महल ने ही किया था। कुंदन लाल गुजरात को तंदूर से बेहद लगाव था। ऐसे में उन्होंने कुछ नया ट्राई करने का सोचा और फिर चिकन में मसाले लगाए और उसे तंदूर में डाल दिया और फिर चिकन तंदूरी तैयार हुआ और इसका स्वाद इतना लाजवाब था कि हिन्दुस्तान के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह काफी ज्यादा पसंद आया था और फिर उन्होंने सुनिश्चित किया कि मोती महल उनके आधिकारिक भोज में बदल जाए। कहानी तो ऐसी भी है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और जॉन एफ कैनेडी, सोवियत नेताओं निकोलाई बुल्गानिन और निकिता ख्रुश्चेव, नेपाल के राजा और ईरान के शाह जैसे गणमान्य व्यक्तियों को खुद चिकन तंदूरी खिलाया था।
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