Matrubhoomi: ऐसे बनाया गया था भारत का पहला डिजिटल कंप्यूटर, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया था नामकरण
कंप्यूटर विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अनुसंधान टीआईएफआर के इंस्ट्रुमेंटेशन ग्रुप का एक फोकस था और इसी को ध्यान में रखते हुए साल 1954 में डिजिटल कंप्यूटर के डिजाइन का आह्वान किया गया। शुरुआती टीम में एमएससी के छह लोग शामिल थे। लेकिन उनमें से किसी को भी कंप्यूटर के इस्तेमाल या संचालन का अनुभव नहीं था।
भारत विश्व की सबसे तेजी से बदलती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। मौजूदा वक्त में हम बड़े-से-बड़े काम बेहद ही आसान तरीके से कंप्यूटर के जरिए पल भर में कर लेते हैं। कंप्यूटर अपने आप में मानव मस्तिष्क के न सिर्फ समान है बल्कि उससे भी तेज गति से काम करने की क्षमता रखता है। कई बार एक व्यक्ति को पुरानी किसी बात को रिकॉल करने में समय लग सकता है लेकिन कंप्यूटर में सेव कोई भी फाइल या फोल्डर बस एक क्लिक में उपलब्ध हो जाता है और पता चल जाता है कि उसमें कौन सी फाइल है। लेकिन क्या आपको भारत में कंप्यूटर का क्या इतिहास रहा है ? इसकी जानकारी है। तो चलिए आज हम आपको बताने वाले हैं भारत के पहले डिजिटल कंप्यूटर की कहानी...
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भारत में पहला मेनफ्रेम सामान्य-उद्देश्य वाला कंप्यूटर TIFRAC था और इसे यह नाम किसी और ने नहीं बल्कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दिया था। TIFRAC का पूरा नाम टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च ऑटोमैटिक कैलकुलेटर है और आज हम इसी TIFRAC के बारे में जानने वाले हैं।
TIFRAC को टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के वैज्ञानिकों ने बनाया था। आज के समय में जितनी सहूलियत के साथ हम कंप्यूटर को अपने साथ लेकर कहीं भी चल देते हैं लेकिन ऐसा पहले मुमकिन नहीं था क्योंकि भारत का पहला कंप्यूटर तकरीबन एक कमरे के बराबर था और उसे एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना मुमकिन नहीं था।
अंग्रेजी हुकूमत से आजादी मिलने के बाद भारत डिजिटल कंप्यूटर की दुनिया में छलांग लगाना चाहता था। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने सबसे भरोसेमंद वैज्ञानिकों डॉ. महालनोबिस और डॉ. होमी जहांगीर भाभा को याद किया और डिजिटल कंप्यूटर विकसित करने का जिम्मा सौंपा।
होमी भाभा भौतिक दुनिया को बड़े ही करीब से समझना चाहते थे। उन्होंने भारत की तरक्की में काफी योगदान दिया है, जिसे भुला पाना शायद मुमकिन नहीं और उनके प्रयासों के दम पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) की स्थापना हुई थी।
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टीआईएफआर को लेकर होमी भाभा का विजन बिल्कुल साफ था। उन्होंने कहा था कि यह हम जैसे लोगों का कर्तव्य है कि हम अपने देश में रहें और अनुसंधान के उत्कृष्ट विद्यालयों का निर्माण करें जैसे कि कुछ अन्य देश भाग्यशाली हैं। होमी भाभा के विजन को दूसरे वैज्ञानिकों का भी साथ मिला और प्रतिभाशाली लोग अनुसंधान समूहों की स्थापना के साथ-साथ टीआईएफआर का नेतृत्व करने के लिए जुड़ते चले गए।
आपको बता दें कि कंप्यूटर विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अनुसंधान टीआईएफआर के इंस्ट्रुमेंटेशन ग्रुप का एक फोकस था और इसी को ध्यान में रखते हुए साल 1954 में डिजिटल कंप्यूटर के डिजाइन का आह्वान किया गया। शुरुआती टीम में भौतिकी और इलेक्ट्रॉनिक्स में अभिरुचि रखने वाले एमएससी के छह लोग शामिल थे। लेकिन उनमें से किसी को भी कंप्यूटर के इस्तेमाल या संचालन का अनुभव नहीं था, बनाने की बात तो खैर काफी बड़ी थी।
लेकिन कहते हैं न हौसले अगर बुलंद हो तो रास्ते खुद-ब-खुद बनने लगते हैं और हुआ भी कुछ ऐसा ही। होमी भाभा की टीम ने साल 1955 में डिजिटल कंप्यूटर तैयार करने के लिए पायलट मशीन का डिजाइन बना लिया और इसका फुल स्केल वर्जन 1959 में तैयार कर लिया गया। लेकिन डिजिटल कंप्यूटर मशीन को औपचारिक रूप से फरवरी 1960 में चालू किया गया था। हालांकि 1962 में इसे TIFRAC (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च ऑटोमैटिक कैलकुलेटर) नाम दिया गया था। यह भारत का पहला स्वदेशी कंप्यूटर था।
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भारत के पहले डिजिटल कंप्यूटर की चुंबकीय कोर मेमोरी की क्षमता 1024 शब्दों की थी जिसे बाद में 2048 शब्दों तक बढ़ा दिया गया। इस कंप्यूटर का इस्तेमाल साल 1960 से 1964 की शुरुआत तक किया गया। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि संगठन की कम्प्यूटेशनल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इस कंप्यूटर की इतनी अधिक मांग थी कि इसे प्रत्येक दिन दो पालियों में संचालित किया जाता था। इसके साथ ही कंप्यूटर के संचालन और रख रखाव की जरूरतों को देखते हुए तकनीकी कर्मियों के एक समूह को प्रशिक्षित किया गया।
आपको बता दें कि साल 1959 और 1962 के बीच में TIFRAC के डिजाइन और निर्माण में मदद करने वाले कुछ वैज्ञानिकों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के विश्वविद्यालयों की यात्रा की और उनकी वापसी पर टीआईएफआर ने बड़े पैमाने पर कंप्यूटिंग में अधिक शोध की देखरेख के लिए एक समिति का गठन किया था।
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