जांचे, परखे और खरे नेता हैं नीतीश कुमार, ऐसे बदल डाला बिहार
दिलीप कुमार मनोज कुमार किशोर कुमार 50-50 के दशक में फिल्मों में कुमारों का राज था। लेकिन राजनीति के एकलौते कुमार का जन्म पटना से 50 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे बख्तियारपुर में हुआ। 1 मार्च 1951 बख्तियारपुर के छोटे से गांव में नीतीश को आज भी मुन्ना के नाम से पुकारते हैं।
4 नवंबर, साल 1974 : एक ही तीर पर कैसे रुकूँ मै, आज लहरों में निमंत्रण है’’ हरिवंश राय बच्चन की इस कविता को उस वक़्त जयप्रकाश नारायण ने गाँधी मैदान में दोहराया था l जेपी के एक चेले की आवाज गूंजती है- मैं नीतीश कुमार...वक़्त था - 03 मार्च 2000 तब महज एक हफ्ते के लिए मुख्यमंत्री बने, नीतीश ने पर्याप्त बहुमत नहीं था इसलिए इस्तीफा दे दिया। लेकिन वो कहते हैं न कि शेर जब दो कदम पीछे लेता है तो वह भागने के लिए नहीं बल्कि झपटने के लिए तैयार होता है। हुआ भी कुछ ऐसा ही है। नीतीश कुमार ने ठीक पांच साल बाद 24 नवम्बर 2005 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और उसके बाद बिहार की राजनीति में बदलते वक्त के बावजूद बस एक ही कुमार का नाम गूंजता चला आ रहा है और वो नाम है नीतीश कुमार। बिहार के छोटे से गांव बख्तियारपुर में जन्म लेने वाले नीतीश कुमार आज देश की राजनीति का एक अहम चेहरा बन गए हैं।
दिलीप कुमार मनोज कुमार किशोर कुमार1 50-50 के दशक में फिल्मों में कुमारों का राज था। लेकिन राजनीति के एकलौते कुमार का जन्म पटना से 50 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे बख्तियारपुर में हुआ। 1 मार्च 1951 यानी देश को आजादी मिलने के चार साल बाद बख्तियारपुर के छोटे से गांव में नीतीश को आज भी मुन्ना के नाम से पुकारते हैं। नीतीश के पिता जाने माने आर्युवेदिक वैद्य थे।
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नीतीश अपने पिता की वैद्यखाने में मदद करते थे और जब मरीज नीतीश के पिता को दिखाने आते थे तो पिता के कहने पर वो दवा की पुड़िया बनाते थे। नीतीश के पिता रामलखन सिंह वैद्यराज के साथ-साथ कांग्रेस नेता भी थे। साथ ही बिहार के दिग्गज नेता रहे अनुग्रह नारायण सिंह के बेहद करीबी भी थे। अनुग्रह नारायण सिंह अक्सर उनके गांव आते थे और नीतीश उन्हें बड़े गौर से सुनते थे। नीतीश ने बिहार कालेज आफ इंजीनियरिंग से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री भी हासिल की थी। उन्होंने कुछ वक्त तक बिहार बिजली बोर्ड में काम भी किया। लेकिन बाद में नीतीश ने राजनीति में रहकर लोगों की सेवा का रास्ता चुना।
नीतीश के पुत्र निशांत इंजीनियर हैं और पीआईटी मिश्रा से इंजीनियरिंग की डिग्री ली है। उनका राजनीति से कोई संबंध नहीं है। नीतीश के परिवार में एक बड़े भाई सतीश हैं और एक बहन हैं। सतीश किसान हैं और बख्तियारपुर में खेती-बाडी़ का काम करते हैं। नीतीश की खासियत है कि वो सरकारी संसाधनों से अपने परिवार को दूर रखा। यही वजह है कि नीतीश के बारे में बहुत कम ही लोग जानते हैं।
नीतीश कुमार बख्तियारपुर से अपने स्कूल पैदल ही आते-जाते थे। रास्ते में एक रेलवे लाइन भी पड़ती थी। एक बार नीतीश मालगाड़ी के नीचे से रेल लाइन पार कर रहे थे तभी ट्रेन चल पड़ी और नीतीश बाल-बाल बचे। बताते हैं कि नीतीश जब रेल मंत्री बने तो उसी जगह फुटओवर ब्रिज बनवाया ताकि किसी को रेल लाइन पार न करनी पड़े।
नीतीश कुमार को फिल्मों का भी खूब शौक रहा और दसवीं के बाद पटना साइंस कालेज में एडमिशन लिया।
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बिहार की बोर्ड परीक्षा के बारे में तो आप जानते ही हैं। नीतीश की बोर्ड परीक्षा के दौरान समय पूरा होने पर इनवेजिलेटर ने नीतीश की गणित की कॉपी छीन ली थी। मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने आदेश दिया था कि बिहार बोर्ड एग्जाम में स्टूडेंट्स को 15 मिनट का अतिरिक्त समय दिया जाए। जिससे कोई भी छात्र परेशान न हो।
70 के दशक में इंदिरा गांधी की नीतियों के खिलाफ पूरे देश में गुस्सा था और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार के साथ पूरे देश में आंदोलन चल रहा था। इसी जेपी आंदोलन में नीतीश कुमार भी शामिल हुए थे। नीतीश ने संजीदा और शांत होकर काम किया। नीतीश, लालू, सुशील मोदी, रामविलास पासवान के साथ जेल भी गए थे। नीतीश पटना के फुलवारी कैंप जेल में 19 महीने रहे। नीतीश ने 70 के दशक में अपने राजनीति की शुरूआत की थी। नीतीश ने जेपी आंदोलन में बड़ी भूमिका के बाद उनकी राजनीति अलग तरीके से शुरू हुई। 1989 में वो सांसद बने और 1990 में केंद्रीय राज्य मंत्री बने। 1998 से 1999 तक वो कृषि मंत्री और फिर 2001 में रेल मंत्री भी रहे। लेकिन नीतीश की किस्मत में बिहार की गद्दी संभालना था। 2005 के चुनाव में नीतीश पहली बार बिहार के फुलटाइम मुख्यमंत्री बने। फिर 2010 और 2015 में भी कोई उनका विकल्प नहीं बन पाया।
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव 90 के दशक में दोस्त हुआ करते थे। दोनों की दोस्ती के चर्चे मशहूर थे। लेकिन 2005 में नीतीश ने बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार बना ली और लालू की 15 सालों की हुकूमत को खत्म कर दिया। लेकिन राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं होती। इसलिए 2013 में जब बीजेपी से गठबंधन तोड़ा उसके बाद लालू ने उनका हाथ थामा और दोनों ने 2015 के चुनाव में महागठबंधन को उतारकर साथ सरकार बनाई। लेकिन दोस्ती से शुरू हुए इस रिश्ते में फिर से दरार पड़ गई।
नीतीश ने 1994 में जार्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर समता पार्टी बना ली थी। लालू ने 1997 में राजद बनाया और शरद यादव जनता दल में ही रहे। साल 2003 में समता पार्टी का विलय जनता दल में हो गया और पार्टी का नाम जनता दल यूनाइटेड हो गया। नीतीश कुमार वीपी सिंह और वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे।
गांधीजी का एक सुक्ति वाक्य है ''बोलो तभी जब वह मौन से बेहतर हो।'' आज चुनाव का आखिरी दिन है और परसों चुनाव है। ये मेरा अंतिम चुनाव है। अंत भला तो सब भला। अब आप बताइए कि वोट दीजिएगा न इनको? हाथ उठाकर बताइए। हम इनको (उम्मीदवार को) जीत की माला समर्पित कर दें?”
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तीसरे और आखिरी दौर के प्रचार का शोर थमने से चंद मिनटों पहले ही नीतीश कुमार ने तरकश में मौजूद आखिरी तीर चला दिया। पूर्णिया के धंधामा में उन्होंने जनता से भावुक अपील की और ऐलान कर दिया कि ये उनका आखिरी चुनाव है। नीतीश कुमार तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके और बीजेपी के साथ चौथी बार सत्ता हासिल करने की कवायद में जुटे हैं। लेकिन शायद इस बार उन्हें अपनी चुनौती बढ़ी नजर आ रही है। तेजस्वी यादव बिहार और रोजगार के मुद्दे पर तो उन्हें घेर ही रहे हैं। साथ ही बार-बार सुशासन बाबू को बोलकर थके होने का एहसास भी दिला रहे हैं। (तेजस्वी बाइट-नीतीश थक चुके हैं)
नीतीश की चुनौती तब औऱ बढ़ जाती है जब अलग होकर भी चिराग पासवान बार-बार बीजेपी के साथ होने का दावा करते हैं। (चिराग बाइट-बीजेपी लोजपा की सरकार बनेगी।)
उधर प्रचार खत्म होने से पहले पीएम मोदी ने बिहार के लोगों को एक भावुक चिट्ठी लिखी जिसमें उन्होंने एनडीए के विकास की योजनाओं का जिक्र करते हुए भरोसा दिलाया कि सुशासन और विकास की बयार जारी रहेगी। (मोदी पत्र)
सात नवबंर को बिहार का चुनाव खत्म हो जाएगा और 10 नवंबर नतीजों का दिन है जब ये साफ हो जाएगा कि नीतीश चौथी बार सत्ता संभालते हैं या फिर जनता कुछ नया आदेश सुनाती है। नीतीश कुमार जेपी आंदोलन से निकले नेता हैं। राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। दांव पेच, फायदा नुकसान वो बेहतर तरीके से समझते हैं। आखिरी चरण का चुनाव प्रचार थमने से ठीक पहले उन्होंने अपने आखिरी चुनाव का ऐलान कर दिया। अब ये सुशासन बाबू का दर्द है, दांव है या फिर सियासी सरेंडर, ये आने वाले चंद दिनों में सबके सामने होगा।
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नीतीश के ऐलान के मायने
नीतीश अबतक ‘लालू-राबड़ी के 15 साल बनाम अपने 15 साल’ के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे नीतीश कुमार की इस ‘भावुक अपील’ के गहरे मायने हैं। अपने तरकश का यह आखिरी तीर उन्होंने बहुत सोच-समझकर इस्तेमाल किया है। इसे समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि बिहार विधानसभा चुनाव के अंतिम चरण में 7 नवंबर को किन इलाकों में वोट डलने हैं। आखिरी चरण में सीमांचल, कोसी के अलावा तिरहुत और मिथिलांचल की बची हुई सीटों पर वोट डलेंगे। कुल 78 सीटों पर इस चरण में मतदान होना है।
आखिरी चरण की 37 सीटों पर जदयू के उम्मीदवार हैं। मधेपुरा, सुपौल, सहरसा, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज की 20 सीटों पर जदयू लड़ रही है। इनमें से करीब एक दर्जन सीटों पर पिछली बार भी उसे जीत मिली थी। 9 सीटें ऐसी हैं जहाँ लगातार दो बार से वह जीत रही है। इन सीटों पर अल्पसंख्यक, अतिपिछड़े, महिलाएँ और प्रवासी वोटर निर्णायक हैं। 35 सीटों पर अति पिछड़ी जातियाँ असरदार हैं। 30 सीटों पर अल्पसंख्यक मतदाता प्रभावशाली स्थिति में हैं। सीमांचल की कई सीटों पर 50 से 60 फीसदी तक अल्पसंख्यक वोटर हैं।
महिलाएँ, अति पिछड़े और अल्पसंख्यकों के एक हिस्से को जदयू अपना वोट बेस मानता है। महिलाओं को छोड़ दे तो नीतीश कुमार का आधार इस चुनाव में खिसकता नजर आया है। ऐसे में उनकी ‘अंतिम चुनाव’ वाली अपील काम कर गई तो न केवल यह बिखराव रुकेगा, बल्कि एनडीए का बहुमत भी मजबूत होगा। यह भी संभव है कि इस अपील की बदौलत जदयू खुद उस आँकड़े तक पहुँच जाए, जहाँ फिलहाल उसके पहुँचने की कोई सूरत नहीं दिखती है।
बिहार की राजनीति में तीन मुख्य राजनीतिक दल ही सबसे ताकतवर माने जाते हैं। इन तीनों में से दो का मिल जाना जीत की गारंटी माना जाता है। बिहार की राजनीति में अकेले दम पर बहुमत लाना अब टेढ़ी खीर है। नीतीश कुमार को ये तो मालूम है ही कि बगैर बैसाखी के चुनावों में उनके लिए दो कदम बढ़ाने भी भारी पड़ेंगे। बैसाखी भी कोई मामूली नहीं बल्कि इतनी मजबूत होनी चाहिये तो साथ में तो पूरी ताकत से डटी ही रहे, विरोधी पक्ष की ताकत पर भी बीस पड़े। अगर वो बीजेपी को बैसाखी बनाते हैं और विरोध में खड़े लालू परिवार पर भारी पड़ते हैं और अगर लालू यादव के साथ मैदान में उतरते हैं तो बीजेपी की ताकत हवा हवाई कर देते हैं। बिहार की राजनीति में टीना (TINA) फैक्टर यानी देयर इज नो अल्टरनेटिव जैसी थ्योरी दी जाती है। लेकिन राजनीति में एंटी इनकम्बेंसी भी कोई चीज होती है।
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एक गाना बना, बंबई में का बा? इस गाने को पूर्वांचल (बलिया) के डॉ. सागर ने लिखा है और गाने पर अभिनय बिहार (बेतिया) के मनोज वाजपेयी ने किया है। यह गाना काफी हिट हो गया। फिर, इसकी पैरोडी बनी, ‘बिहार में का बा..’ जिसके जरिए एनडीए पर सवाल उठाया गया और पूछा गया कि आखिर बिहार में इतने वर्षों की जुगलबंदी का परिणाम क्या है?
बिहार भाजपा के आईटी सेल ने इसका डिजिटल जवाब दिया और बताया कि- बिहार में ई बा। इसमें एक वीडियो प्रस्तुति के जरिए बिहार के गौरवशाली अतीत और आज के सच को दिखाया गया है। इसमें विकास के तमान कार्यों के साथ एक तरह से रिपोर्ट-कार्ड भी पेश किया गया है, ताकि जनता भी उनका पक्ष जान सके। लेकिन राजनीति से इतर अगर बात करे कि सच में बिहार में का बा तो बिहार की आवाम। चाहे वो खास हो या आम इस बात से इंकार नहीं कर सकते और अगर कोई शक भी हो तो कुछ सवाल जो हर किसी के जेहन में किसी न किसी कोने में मौजूद ही होगा। और अगर भूल गए होंगे तो याद करा दूं। साल था 2002 का और समधि और दामाद के स्वागत के लिए शहर के शोरूमों से 50 नई कारें गन प्वाइंट पर उठवाई थीं। नीतीश की बेटी नहीं है लेकिन होती तो भी शादी में किसी शो-रूम से गाड़ियां नहीं उठवाते, इसमें कोई शक? नीतीश का बेटा है लेकिन उसे राजनीति से कोई मतलब नहीं है। होता भी तो राज्य को एक इंजीनियर नेता मिलता! नीतीश का ससुराल है लेकिन मुख्यमंत्री आवास को उन्होंने ससुरालियों का ससुराल नहीं बनने दिया। नीतीश के साले या रिश्तेदार न अधिकारियों से पैरवी कर सकते हैं, न ठेकेदारों से रंगदारी मांग सकते हैं और न ही आम आदमी पर दबंगई दिखा सकते हैं। नीतीश का घर-ससुराल सब कमोबेश वैसे ही है, जैसे था। उनके साथ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी किस हाल में थे और अब किस हाल में हैं, पता है न? जमीन हड़पने से लेकर फर्जी कम्पनियों में निवेश तक ... बहुत सारे ऐसे काम हैं जो इंजीनयर होते हुए भी नीतीश को नहीं आया। बिहार में उनसे कम पढ़े-लिखे नेताओं ने यह खूब किया है। कोई शक? नीतीश ने प्रशंसकों को निराश किया है लेकिन चापलूसों को फटकने न दिया। जबकि उसी बिहार में 'खुश' कर देने पर सिपाही जैसी नौकरी दे दी जाती थी। चापलूसी ही नौकरी की अहर्ता हो जैसे। सही है न? इसमें कोई दो राय नहीं कि नीतीश ने अधिकारियों को ज्यादा छूट दे दी है लेकिन बिहार में जदयू कार्यकर्ताओं को गुंडा बनने की इजाजत नहीं है। वे किसी अफसर से हाथापाई तो दूर, गलत बोलने से पहले सोचेंगे। यदि करेंगे तो भुगतेंगे।
नीतीश मीडिया से बात करने से इनकार कर सकते हैं लेकिन पत्रकारों को धकिया नहीं सकते। उसी बिहार में जहां नेता तो नेता, उसके बेटे तक पत्रकारों से हाथापाई कर लेते हैं और इससे संबंधित कई वीडियो आपको यूय्यूब पर आसानी से मिल जाएंगे।
नीतीश के सामने अधिकारियों को खड़ा रहना पड़ सकता है लेकिन जलील नहीं होना होगा। नीतीश कुर्सी पर बैठकर आईएएस जैसे महत्वपूर्ण सेवा वाले अधिकारी को अपने पैर के पास दरी पर नहीं बैठाएंगे। खैनी तो बिल्कुल नहीं रगड़वाएँगे। नीतीश सरकार में ईवीएम में खराबी पर या देर से पहुंचने पर मतदान में देर हो सकती है लेकिन बूथ नहीं लूट सकते। नीतीश के राज में योग्य को नौकरी मिलने में देरी हो सकती है लेकिन अयोग्य को रिश्ते-नाते या अन्य वजहों से बगैर परीक्षा नौकरी नहीं मिल सकती। नीतीश करोड़ों के राजस्व नुकसान को झेलते हुए भी बिहारियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए शराब बिक्री रोक सकते हैं। सिर्फ वोट के लिए शराबियों से समझौता नहीं कर सकते। (कालाबाजारी इतर विषय है)
नीतीश बाहुबलियों को ठिकाने लगा सकते हैं लेकिन अपने मतलब के लिए उन्हें पैदा नहीं कर सकते।
नीतीश अपनी जाति के लोगों से सहानुभति रख सकते हैं, कानून के दायरे में उनकी मदद भी कर सकते हैं लेकिन गैर कानूनी कोई जाति वाला भी अपराधी बनकर बच नहीं सकता। नीतीश जीतने के लिए जातीय समीकरण बिठा सकते हैं लेकिन जातीय संघर्ष नहीं करवा सकते। नीतीश सख्त हो सकते हैं, गुरुर वाले हो सकते हैं मगर बदतमीज और दूसरों को बात-बात पर बुरबक कहकर अपमानित करने वाले नहीं हैं। । नीतीश में कई दोष है, हर किसी में होते हैं। जिन्हें बिहार जानता है। लेकिन वर्तमान में नीतीश में जो 'बा' वो कोई नेता नहीं है, यह भी बिहार जानता है। - अभिनय आकाश
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