मुफ्त की चुनावी घोषणाओं बिगाड़ रहीं हैं आर्थिक सेहत

Arvind Kejriwal
ANI

चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की रेवड़ी बांटने वाली आप अकेली पार्टी नहीं हैं। जब भी चुनाव नजदीक आते हैं, राजनीतिक दलों में खैरात बांटने की होड़ लग जाती है। इसका एकमात्र मकसद चुनाव जीतना है। इसके नुकसान-फायदों की राजनीतिक दलों का परवाह नहीं हैं।

दिल्ली चुनाव को अभी एक महीने से ज्यादा का समय बाकी है। उससे पहले दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने महिला सम्मान योजना को मंजूरी दे दी। इस योजना के तहत महिलाओं के खाते में हर महीने 1000 रुपये आएंगे। आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने कहा कि चुनाव के बाद इसको बदलकर 2100 रुपए करेंगे। चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की रेवड़ी बांटने वाली आप अकेली पार्टी नहीं हैं। जब भी चुनाव नजदीक आते हैं, राजनीतिक दलों में खैरात बांटने की होड़ लग जाती है। इसका एकमात्र मकसद चुनाव जीतना है। इसके नुकसान-फायदों की राजनीतिक दलों का परवाह नहीं हैं। यह अलग बात है कि चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटना तो खरबूजे को ही है। मसलन फ्री का माल लेने वाले को भी आखिरकार इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। किसी न किसी रूप में टैक्स का बोझ उन पर भी पड़ता है। फ्री की योजनाओं का फायदा उठाने वाले भी इससे बढऩे वाली महंगाई की मार से बच नहीं सकते।   

इससे पहले राजस्थान में विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने वोटरों को फ्री में स्मार्टफोन और तीन साल के लिए फ्री इंटरनेट का वायदा किया था। गहलोत ने राज्य के हर परिवार को हर महीने 100 यूनिट तक फ्री बिजली फ्री देने का ऐलान किया था। मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कांग्रेस की सरकार बनने पर हर परिवार को 100 यूनिट तक फ्री बिजली देने का वादा किया। तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लाडली बहना योजना के तहत सवा करोड़ गरीब महिलाओं के खाते में एक हजार रुपये जमा कराए। कांग्रेस ने वादा किया था कि उसकी सरकार आई तो हजार नहीं बल्कि 1,500 रुपये दिए जाएंगे। शिवराज ने युवाओं को लुभाने के लिए 12वीं कक्षा के कुल 9000 टॉपर्स को एक-एक स्कूटी देने का भी ऐलान किया था। चुनावी रेवड़ी बांटना का कल्चर शुरु से ही विवादों से घिरा रहा है। सुप्रीम कोर्ट, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, आर्थिक विशेषज्ञ, चुनाव आयोग और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक इस पर चिंता जता चुके हैं। कोई भी राजनीतिक दल व्यापक देशहित से जुड़े ऐसे मुद्दों का समाधान तलाशना तो दूर बल्कि चर्चा तक करना नहीं चाहता। सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त राशन और अन्य मुफ्त योजनाओं पर गंभीर सवाल उठाए हैं। 

इसे भी पढ़ें: डीटीसी की खस्ता हालत, दिल्ली की महिलाओं के साथ हो रहा है बड़ा धोखा

कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि आखिर लोगों को "फ्री की रेवड़ी" कब तक बांटी जाएगी। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस मनमोहन की बेंच ने कहा कि कोरोना महामारी के दौरान मुफ्त राशन देना समय की जरूरत थी, लेकिन अब रोजगार और आत्मनिर्भरता पर ध्यान केंद्रित करने का समय आ गया है। सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कोर्ट को बताया कि देश के 81 करोड़ लोगों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत मुफ्त या सब्सिडी वाला राशन दिया जा रहा है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जताई और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी से कहा, "तो मतलब सिर्फ टैक्सपेयर्स ही ऐसे लोग हैं जिन्हें मुफ्त राशन नहीं मिल रहा है। यह स्थिति गंभीर विचार का विषय है।" वर्ष २०२२ में श्रीलंका का आर्थिक संकट सामने आया तो इसने दुनियाभर की सरकारों को चेता दिया। सर्वदलीय बैठक में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि श्रीलंका से सबक लेते हुए हमें मुफ्त के कल्चर से बचना चाहिए। जयशंकर ने कहा कि श्रीलंका जैसी स्थिति भारत में नहीं हो सकती, लेकिन वहां से आने वाला सबक बहुत मजबूत है। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक रैली में रेवड़ी कल्चर पर सवाल उठाए थे। पीएम मोदी ने कहा था कि आजकल हमारे देश में मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ्त की रेवड़ी बांटकर उन्हें खरीद लेंगे। मोदी ने कहा था कि हमें मिलकर रेवड़ी कल्चर को देश की राजनीति से हटाना है।   

भारत में ऐसी लुभावनी पर आर्थिक तौर पर घातक चुनावी वायदों की शुरुआत तमिलनाडु से मानी जाती है। वर्ष 2006 में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव में डीएमके ने सरकार बनने पर सभी परिवारों को फ्री कलर टीवी देने का वादा किया। डीएमके के इस चुनावी वादे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। हालांकि, डीएमके जीत गई। वादा पूरा करने के लिए 750 करोड़ रुपये का बजट लगाया गया। मामला सुप्रीम कोर्ट में चल ही रहा था कि 2011 के विधानसभा चुनाव में विपक्षी अन्नाद्रमुक ने टीवी के जवाब में मिक्सर ग्राइंडर, इलेक्ट्रिक फैन, लैपटॉप, कम्प्यूटर, सोने की थाली आदि बांटने का वादा कर दिया। शादी होने पर महिलाओं को 50 हजार रुपये और राशन कार्ड धारकों को 20 किलो चावल देने का वादा भी किया।   

नतीजे आए तो अन्नाद्रमुक की सरकार बन गई। 2006 के चुनावी वादे पर जुलाई 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फ्रीबीज सभी लोगों को प्रभावित करती है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ को काफी हद तक हिला देती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी आदेश दिया कि वो सभी राजनीतिक पार्टियों से सलाह-मशविरा कर एक आचार संहिता बनाए। इसके बाद 2015 में चुनाव आयोग ने राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए आचार संहिता जारी भी की, लेकिन उसके बावजूद चुनावों में फ्रीबीज का ऐलान होता ही रहा है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने कहा था, ऐसी योजनाएं जिनसे क्रेडिट कल्चर कमजोर हो, सब्सिडी की वजह से कीमतें बिगड़ें, प्राइवेट इन्वेस्टमेंट में गिरावट आए और लेबर फोर्स भागीदारी कम हो तो वो फ्रीबीज होती हैं। वर्ष 2022 पिछले साल आरबीआई की भी एक रिपोर्ट आई थी। इसमें कहा गया था कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रही हैं, जिससे वो कर्ज के जाल में फंसती जा रही हैं। स्टेट फाइनेंसेस: अ रिस्क एनालिसिस नाम से आई आरबीआई की इस रिपोर्ट में उन पांच राज्यों के नाम दिए गए हैं, जिनकी स्थिति बिगड़ रही है। इनमें पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल शामिल थे। चुनावी वादों के कारण बढ़ रही मुद्रास्फीती और महंगाई की मार आम लोगों पर पड़ रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है। राजनीतिक दलों का इससे सरोकार नहीं है। सत्ता में आने के बाद सरकारें फ्री देने के वादे पूरा करने के लिए टैक्स का बोझ बढ़ाती जा रही हैं। होना तो यह चाहिए कि कोई राजनीतिक दल जब ऐसी मुफ्त की चुनावी घोषणाओं का ऐलान करे तो साथ ही यह भी बताए कि इसके लिए धन का इंतजाम कैसे किया जाएगा। मसलन इसके एवज में करदाताओं पर कितना बोझ पड़ेगा। जब तक हिसाब-किताब पारदर्शी नहीं होगा तब तक ऐसी योजनाओं देश पर बोझ साबित होती रहेंगी।

- योगेन्द्र योगी

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़