चैलेंजर के सामने चुनौतियां: 10 साल में पार्टी की ताकत को किया आधा, राहुल की राह सपा को सफा कर रहे फॉरेन रिटर्न अखिलेश
विगत दस वर्षों में यूपी के अंदर चार चुनाव हुए। 2014 से लेकर 2022 तक के चुनाव में अखिलेश यादव अपनी रणनीति के अनुसार ही चुनाव लड़ते दिखे। कभी कांग्रेस, कभी बसपा तो कभी रालोद को साथ लेकर राजनीति के नए-नए प्रयोग भी किए। चुनाव दर चुनाव समाजवादी पार्टी को हार का ही सामना करना पड़ा।
धौलपुर के मशहूर मिलिट्री स्कूल का दृश्य हेलीकॉप्टर के पंखे की आवाज़ से पूरा मैदान गूंज उठता है। हेलीकॉप्टर से अपने सुरक्षाबलों के साथ मैदान में उतरते हैं तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव जो स्कूल के कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आए थे। मुलायम सिंह यादव स्कूल के मैदान में उतरे तो पूरा लाव लश्कर उनकी स्वागत में खड़ा था। सीनियर क्लास के बच्चे पंक्तिबद्ध होकर एक सीधी लाइन में खड़े थे। ताकि मुलायम सिंह बारी बारी से उनसे मिल सके। लेकिन तभी सभी की निगाहें उस कतार में सावधान की मुद्रा में खड़े एक बच्चे की तरफ जाती है, जो और कोई नहीं बल्कि मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव थे, जो अपने पिता से मिलने के लिए उसी लाइन में खड़े थे। इसके कुछ सालों के बाद की बात है अखिलेश ऑस्ट्रेलिया में अपनी आगे की पढ़ाई कर रहे थे। अमिताभ उस दौरान किसी कार्यक्रम के लिए ऑस्ट्रेलिया गए और वहां अखिलेश ने उनसे मुलाकात की। अगले दिन के अखबार में अमिताभ के साथ की तस्वीर प्रकाशित हो गई। उस वक्त इस तस्वीर को देख अखिलेश के मकान मालिक भी हैरान हो गए। तब अखिलेश ने बताया कि उनके पिता भारत के रक्षा मंत्री हैं और अमिताभ उनके पिता के दोस्त हैं। इन दोनों घटनाओं का आज के इस विश्लेषण से सीधा कोई संबंध नहीं है। लेकिन फिर भी इसका जिक्र बहुत जरूरी है। जरूरी इसलिए क्योंकि इससे आपको समझ आ जाएगा कि अखिलेश की सोच और स्वभाव यादव परिवार के लोगों से कितनी जुदा है। यूपी के लिए मुलायम सिंह यादव के अपने कई मंत्र रहे हैं जबकि अखिलेश की राजनीति का अलग ही स्टाइल रहा है।
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19 विक्रमादित्य मार्ग सुनसान नजारा
उत्तर प्रदेश में चुनाव परिणाम घोषित होने के एक दिन बाद मुख्यमंत्री का आधिकारिक आवास 5, कालिदास मार्ग पर चहल-पहल थी। जिसकी वजह थी कि योगी आदित्यनाथ की तरफ से आखिरी कैबिनेट बैठक बुलाई गई थी। सड़क के दूसरी तरफ 19 विक्रमादित्य मार्ग सुनसान नजर आ रहा था। समाजवादी पार्टी का कार्यालय अभी भी विधानसभा चुनाव के नतीजों से उबर नहीं पाया। सपा कार्यकर्ताओं ने अपने नेता अखिलेश यादव के लिए जोरदार प्रचार किया था उन्हें विश्वास था कि वह फिर से यूपी के मुख्यमंत्री बनेंगे। यह हो न सका।
नतीजों से मुंह मोड़ना
नतीजों की घोषणा के बाद अखिलेश यादव के ट्वीट की आखिरी कुछ पंक्तियों ने कभी यूपी की सत्ता पर काबिज सपा की लगातार चौथी पराजय को इस तरह बयां किया। अखिलेश ने ट्वीट कर कहा कि उप्र की जनता को हमारी सीटें ढाई गुनी व मत प्रतिशत डेढ़ गुना बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद! हमने दिखा दिया है कि भाजपा की सीटों को घटाया जा सकता है। भाजपा का ये घटाव निरंतर जारी रहेगा। आधे से ज़्यादा भ्रम और छलावा दूर हो गया है बाकी कुछ दिनों में हो जाएगा। हालांकि, पार्टी के एक अंदरूनी सूत्र ने कहा कि कद वाले नेता हारकर भी शालीन रह सकते है। यह बताने में बहुत मददगार होगा कि आप एक विश्वसनीय और जिम्मेदार राजनेता हैं। इसके बजाय आपने यह कहकर मतदाताओं के फैसले को टालना चुना कि उनका मोहभंग और धोखा हुआ और मिथक जल्द ही टूट जाएगा। बार-बार विफलताओं ने सपा समर्थकों को निराशा में डाल दिया है, लेकिन पार्टी का भाग्य इस बात पर निर्भर करता है कि अखिलेश यादव कितनी जल्दी डैमेज कंट्रोल में जुट जाते हैं। वास्तव में नतीजों से मुंह मोड़ना विनाशकारी हो सकता है। अखिलेश को दोषारोपण को खत्म करना होगा और स्वीकार करना होगा कि वह राहुल गांधी के नक्शेकदम पर चलने के बजाय उनकी पार्टी एक अधिक दुर्जेय और मेहनती टीम से हार गए। 2019 में पूरी तरह से हार का सामना करने और अपनी परंपरागत सीट अमेठी को खोने के बाद, गांधी परिवार के चिराग उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से उदासीन हो गए कि अपनी बहन प्रियंका गांधी के साथ तीन साल बाद अमेठी लौटे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। जाहिर है, राहुल गांधी पर स्मृति ईरानी को चुनने के लिए कांग्रेस अमेठी के लोगों के पछताने का इंतजार कर रही है, लेकिन यह मूर्खों के स्वर्ग में रहने सरीखा लगता है। अखिलेश के लिए सही यही होगा कि आत्म-भ्रम और चापलूसों द्वारा दिखाए जा रहे निराधार वादों से दूर रहें।
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बयानों के शेर साबित हुए
अखिलेश अपने चुनावी अभियान के दौरान लगातार कई ऐसे बयान दिए जिससे ये दिखता प्रतीत हुआ कि वो अपरिमित आत्मविश्वास से आप्लावित हैं। बीजेपी अपनी ऐतिहासिक पराजय की साक्षी बनने जा रही है। उन्होंने देश के प्रधानमंत्री और वाराणसी से सांसद मोदी को मनुष्य अपने अंतिम दिनों को काशी में बिताना चाहता है जैसी बातें कहकर धार्मिक आचार का बोध भी कराया। अयोध्या यात्रा पर तंज कसते हुए कहा मेरे घर में भगवान राम का मंदिर है वहां मैं दर्शन करता हूं। जब अयोध्या में मंदिर बनेगा तो वहां भी जाऊंगा। इसके साथ ही मंदिर को लेकर चंदे तक पर उनके बयान लगातार आते रहे। चंदा मांगने की जो व्यवस्था है वह हिन्दू धर्म में नहीं थी। ऊपर से उस चंदे में भी लोगों ने चोरी कर ली जैसी बातें कर वो लगातार बीजेपी को घेरा, अयोध्या का दौरा भी किया चुनावी रैली भी की गदा भी लहराई। किंतु जन्मभूमि के दर्शन नहीं किए। अखिलेश बार-बार ये दावा करते दिखे की अयोध्या और मथुरा के विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी द्वारा चुनाव लड़ने के लिए नामित करने की बजाय योगी को उनके मठ भेज दिया गया। अपने पूर्वज मथुरावासी श्रीकृष्ण को लेकर अखिलेश ने ये दावा भी किया था कि उनके सपनों में आकर नो सपा की सरकार बनने की बात कह रहे हैं। लेकिन शायद वो कृष्ण की वेश में तेजप्रताप यादव ही थे जो अखिलेश को सरकार बनने के सपने दिखाते रहे।
10 साल में पार्टी की ताकत को किया आधा
साल 2012 का विधानसभा चुनाव जिसे लड़ा तो मुलायम सिंह यादव के नाम पर गया था। लेकिन अपनी साइकल यात्रा के सहारे युवा अखिलेश ने यूपी की राजनीति में खुद को स्थापित करने की एक सफल कोशिश की। इस पूरे चुनावी अभियान के दौरान अखिलेश ये कहते नजर आए थे कि नेताजी ही सपा की सरकार बनने पर राज्य के मुख्यंत्री बनेंगे। लेकिन मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश की सीएम के रूप में ताजपोशी कर उन्हें अपना उत्तराधिकारी बना दिया। जिसके बाद से विगत दस वर्षों में यूपी के अंदर चार चुनाव (दो लोकसभा के और दो विधानसभा के) हुए। 2014 से लेकर 2022 तक के चुनाव में अखिलेश यादव अपनी रणनीति के अनुसार ही चुनाव लड़ते दिखे। कभी कांग्रेस, कभी बसपा तो कभी रालोद को साथ लेकर राजनीति के नए-नए प्रयोग भी किए। चुनाव दर चुनाव समाजवादी पार्टी को हार का ही सामना करना पड़ा। भले ही 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा की 47 से बढ़कर 111 होती सीटें उनके कार्यकर्ताओं को फौरी राहत दे दे। मुलायम सिंह यादव परिणाम के बाद अखिलेश द्वारा पांव छुकर आशीर्वाद लेने पर बहुत अच्छा लड़े कह दें। लेकिन कटु सत्य ये है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा के पास 224 सीटें थीं। यानी 2012 के मुकाबले सपा की ताकत आधी रह गई है।
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परिवार की छाया से बाहर निकले की बेचैनी
सपा प्रमुख अपनी ही पार्टी में प्रतिस्पर्धियों को बेअसर करने के प्रयास में परिवारवाद की छाया से बाहर आने की कोशिश करते रहे। चाचा शिवपाल यादव की भूमिका को छोटा कर दिया गया और इटावा में उनके निर्वाचन क्षेत्र जसवंत नगर तक ही सीमित कर दिया गया। शिवपाल पर सपा के साथ जाने का काफी दबाव था। वह नेता जी (मुलायम सिंह) की राजनीति की शैली के अनुयायी हैं और अखिलेश के खिलाफ जाकर वो विश्वासघाती के रूप में खुद को लेबल नहीं करना चाहते थे। उन्होंने वही भूमिका निभाई जो उन्हें सौंपी गई थी, भले ही इसका मतलब उनकी आकांक्षाओं को कम करना था। हालाँकि, शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (प्रसपा) के नेताओं को मुश्किल से समायोजित किया गया और उन्होंने प्रतिद्वंद्वियों का समर्थन किया या यादव बेल्ट में स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा। इस प्रकार भाजपा को एटा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद, फिरोजाबाद कासगंज, इटावा, औरैया और कन्नौज में 29 में से 18 सीटें जीतने में मदद मिली जो कभी सपा का गढ़ हुआ करते थे। परिवार के एक अन्य सदस्य अखिलेश के भाई और पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता था। उन्हें पश्चिमी से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक जमीनी ताकत के लिए जाना जाता है और उन्हें असहमति को दूर करके और कार्यकर्ताओं को लामबंद करके जमीनी स्तर पर काम करने का काम सौंपा जा सकता था। हालाँकि, भाजपा के 'परिवारवाद' वाले आक्षेपों ने अखिलेश को परेशान कर दिया, अखिलेश इससे पीछा छुड़ाने की कोशिश में ही लगे रह गए।
मुलायम की राजनीति अखिलेश से काफी अलग
भारतीय राजनीति में मुलायम के दांव को पटखनी देना किसी घाघ नेता के लिए भी आसान नहीं। कोई भले ही मुलायम पर यह आरोप लगाए कि उनका समाजवाद परिवार के अंदर सिमट कर रह गया है लेकिन अपने कुनबे को साथ लेकर दशकों तक राजनीति के शिखर पर रहने का जो मिसाल मुलायम सिंह ने पेश किया है उसका कोई सानी नहीं। एक परिवार से, सांसदों और विधायकों का रिकार्ड जो यादव परिवार का है उसके आसपास कोई नहीं फटकता। मुलायम को लेकर किसी जमाने में जलवा जिसका कायम है उसका नाम मुलायम है जैसी कहावतें खूब मशहूर हुआ करती थी। इसके साथ ही मशहूर थे सियासत के पहलवान के दांव पेंच भी। वो कभी भी कांग्रेस के साथ दोस्ती के पक्षधर नहीं रहे। मुलायम की पूरी की पूरी राजनीति ही गैर कांग्रेसवाद के आधार पर हुई। लेकिन इससे इतर अखिलेश ने 2017 के विधानसभा चुनाव में दो अच्छे लड़कों की जोड़ी बनाकर यूपी को साथ पसंद है का नारा दिया। नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस के खाते में केवल सात सीटें आई। मुलायम ने काशीराम के साथ मिलकर मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्री राम का नारा दिया और यूपी में बीजेपी की कमंडल वाली राजनीति को 1993 के चुनाव में जमींदोज कर दिया। लेकिन उसके बाद बसपा से नाता तोड़ते हुए मुलायम सिंह यादव ने गठंबधन के फैसले को राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल बता दिया था। साल 2019 में अखिलेश ने बसपा के 2014 वाले 0 प्रतिशत रिपोर्ट कार्ड को दरकिनार करते हुए उसे आधी सीट दे दी। बसपा ने शून्य से 10 सीटों का सफर तय कर लिया। वहीं सपा की सीटें पांच की पांच ही रह गई। मुलायम सिंह यादव के चुनावी अभियान का हिस्सा अलग-अलग जाति समूहों के कद्दावर नेता हुआ करते थे, जैसे-बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, बृजभूषण तिवारी, मोहन सिंह, भगवती सिंह, सलीम इकबाल शेरवानी, आजम खां। वहीं, अखिलेश यादव का पूरा चुनावी अभियान अकेले उन पर ही केंद्रित रहता है।
-अभिनय आकाश
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