उनका सम्मानित होना (व्यंग्य)

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Prabhasakshi
संतोष उत्सुक । Sep 21 2023 5:55PM

महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि संगठन वालों ने उन्हें गीता की एक प्रति भी भेंट की। मोमेंटो तो लकड़ी जैसी दिखती प्लास्टिक का बना हुआ था, प्रशस्ति पत्र और गीता दोनों पतले पालिथिन में पैक रही, जिसे पर्यावरण के लिए अब बुरा नहीं माना जाता।

राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त और कला, साहित्य, मीडिया एवं सामाजिक सेवा के लिए समर्पित एक संस्था ने पिछले दिनों उन्हें सृजनशीलता, परिपक्वता, शालीनता, कार्यशीलता, कार्यदक्षता, संवेदनशीलता और अपने समस्त कार्यों में समर्पण के लिए सम्मानित कर दिया। संस्था ने यह कामना की कि वे समाज में आदर्श स्थापित करते रहें। इस सम्मान से वे अंदर तक हिल गए। एक आम व्यक्ति, जिसकी बात बात को खुराफात समझा जाता हो, में इतने गुण कैसे हो सकते हैं। भारी भरकम शब्द हमेशा परेशान करते हैं, ख़ास तौर पर वर्तमान माहौल में, जब सम्मान के लिए चौहत्तर तिकड़म लड़ाए जाते हैं।

महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि संगठन वालों ने उन्हें गीता की एक प्रति भी भेंट की। मोमेंटो तो लकड़ी जैसी दिखती प्लास्टिक का बना हुआ था, प्रशस्ति पत्र और गीता दोनों पतले पालिथिन में पैक रही, जिसे पर्यावरण के लिए अब बुरा नहीं माना जाता। संस्था पर्यावरण रक्षक नहीं थी, उनका असली कर्तव्य तो सम्मान बांटते रहना है। हमारे समाज में गीता की बातें अभी भी बहुत शौक से की जाती हैं गांधी की तरह। लेकिन जैसे ही इंसान उनके बताए रास्तों पर दौड़ने बारे सोचता है, अनेक पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक किंतु, परंतु और कदाचित के कांटे उगने लगते हैं। बंदा, गांधी को त्यागकर, असामाजिक गलियों में शरण लेने लगता है। 

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गीता, अन्य बेचारी पुरानी किताबों के साथ रखी रहती है। उसका एक श्लोक ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते..’ अधूरा याद है, वह भी इसलिए कि युवावस्था में, महाभारत सीरियल ने बार बार सुनाकर रटवा दिया। अगर इस श्लोक को जीवनसात कर लिया जाए तो फल की चिंता नहीं रहेगी लेकिन अब ऐसा कौन कर सकता है। अब तो बढ़िया, स्वादिष्ट, रंगीन परिणाम प्राप्ति के लिए उचित कर्म करने के लिए कोचिंग लेने और देने का समय है। जब तक तन और मन वांछित फल प्राप्त कर, चख न लिया जाए, नींद हराम रहती है। कई बार तो दूसरों की नींद भी बर्बाद कर दी जाती है।  

फेसबुक, व्ह्त्सेप और मीडियानुमा दूसरी किताबें ही सारा वक़्त ले लेती हैं, समय नहीं बचता तभी तो बंदा गीता अच्छी तरह से पढ़ नहीं पाता, ठीक से समझ नहीं पाता और कायाकल्प से बच जाता है। शालीनता, कर्तव्य परायणता, मानसिक शांति, सच और झूठ का ज्ञान, आत्मबल जैसी प्रवृतियों से दूर रहता है और आज के ज़माने के काबिल बना रहता है। गीता समझ ली तो जीवन में परेशानी बढ़ती जाएगी। शालीनता आ गई तो अशालीनता जीने नहीं देगी। कर्तव्य परायणता से ज़्यादा ज़रूरी स्मार्ट वर्किंग है। मानसिक शान्ति प्राप्त हो गई तो दुनिया अवांछित लगेगी। सच और झूठ का ज्ञान हो गया तो भ्रम उग आएगा। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार तो अब हमारे चारित्रिक गुण हो चुके हैं। काम वासना, मनोरंजन का हिस्सा है। क्रोध को तो योग वाले भी आवश्यक नैसर्गिक वृति मानते हैं। लालच और मोहमाया की आकर्षक, वैभवशाली गोद में तो हमारे प्रेरक प्रवाचक भी बैठे हैं। हां, एक बार आत्मबल विकसित हो गया तो जीवन में आवश्यक विकृतियों का प्रबंधन आसान हो सकता है। 

मेज़ पर रखी गीता को थोड़ा सा पढ़ना तो दूर, पैकिंग से आज़ाद करने की भी, हिम्मत नहीं हो रही थी। उन्होंने किताब को हमेशा टिके रहने वाले पालिथिन में ही लिपटे रहने दिया ताकि धूल से बची रहे और ससम्मान दूसरी उदास किताबों के साथ रख दिया।  

- संतोष उत्सुक

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