असुरक्षा की छाया में सुरक्षा (व्यंग्य)

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असुरक्षा और बेचैनी का बढना भी तो विकास ही है, कोई चीज़ बढ़ ही रही है घट तो नहीं रही। लेकिन जिनके पास बेहतर स्वास्थ्य संपदा व उच्च शिक्षा के फायदे हैं उन्हें कौन सा चैन है। अब यह लगने लगा है कि सुरक्षा की बातें किताबों का हिस्सा हो गई हैं।

विदेशियों और विदेशी संस्थाओं द्वारा किए जा रहे सर्वेक्षणों से मैं परेशान हो जाता हूं। कैसे कैसे विषय चुनते हैं फिर बताते रहते हैं कि सर्वेक्षण ने क्या कहा। हम बिना अध्ययन बता सकते हैं कि हमारे यहां एक से एक सुरक्षित योजनाएं हैं जिनसे हमारा जीवन मुफ्त में सुरक्षित और खुशहाल है। हमारे पास अप्रासंगिक चीज़ों पर बहस करने के लिए राष्ट्रीय समय है। हमने लिहाज़ पर बात करना बंद कर दिया है लेकिन आपस में यह बात अक्सर कहते हैं कि सब कुछ कितना ठीक चल रहा है। कुदरत हम पर बहुत मेहरबान है जिसने इस बार ठण्ड का मौसम उत्सव सा कर दिया था। इतने सालों बाद इतनी बर्फ दे दी कि लोगों ने असुरक्षित महसूस कर उसे बर्फ की सफ़ेद आफत कहना शुरू कर दिया। 

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हालांकि उन्हें भी पता है कि बर्फ कुदरत का वरदान है। विकास इतना हो गया है कि विज्ञान और तकनीक ज़िंदगी पर पूरा कब्ज़ा करने की तैयारी में हैं। कृत्रिम बुद्धि ने होशियारी का भेस धारण कर लिया है। शान्ति स्थापित करने के लिए युद्ध किए जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव सुरक्षा पर जारी रिपोर्ट अब फटी पुरानी लगने लगी है जिसके अनुसार दुनिया के छियासी प्रतिशत लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है। 

इस रिपोर्ट के ताज़ा संस्करण में यह प्रतिशत सौ फीसदी हो सकता है। ऐसी स्थिति में बंदा कई बार असुरक्षित महसूस कर कुदरत की असली गोद में जाना चाहता है लेकिन जाता नहीं है। भविष्य में कभी ऐसी असुरक्षात्मक रिपोर्ट जारी हो तो विकास के आंकड़े साथ देने चाहिए ताकि पता लगे कि दुनिया विकास के बारूद पर कहां से कहां पहुंच गई है। लगता है उन्होंने सर्वे में गलत लोगों को शामिल कर लिया। हमसे बात करते तो सही लोगों को सर्वे में शामिल करने की सलाह देते। उचित बुद्धि वालों से बढ़िया रिपोर्ट बनवाते। सफलता की रिपोर्ट्स बनवाने के मामले में हम विश्वगुरु हैं। वह बात अलग है कि कई तरह की दौलत के बावजूद लोग जीवन संघर्ष की नदी में फंसे पड़े हैं। इस नदी के किनारे ही कुछ लोग लंबा, स्वस्थ, समृद्ध जीवन जी रहे हैं। आपसी हिंसक संघर्ष, दुनिया में बढ़ते तनाव, स्वास्थ्य प्रणालियों की कम क्षमता ने जलवे दिखाए हैं।

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असुरक्षा और बेचैनी का बढना भी तो विकास ही है, कोई चीज़ बढ़ ही रही है घट तो नहीं रही। लेकिन जिनके पास बेहतर स्वास्थ्य संपदा व उच्च शिक्षा के फायदे हैं उन्हें कौन सा चैन है। अब यह लगने लगा है कि सुरक्षा की बातें किताबों का हिस्सा हो गई हैं। वह बात अलग है कि दूसरों को मारकर, अपना शासन किसी भी तरह बरकरार रखना, दूसरों की ढपली पर भी अपना राग बजाते रहना, सुरक्षा के नवीनीकृत नियम हैं। वैसे मानवता, धर्म, इंसानियत, सदभाव की बातें चरम पर हैं।

- संतोष उत्सुक

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