तू डाल-डाल मैं पात-पात (व्यंग्य)
उनकी साँसें फूल गयी जब उनके सामने नेशनल मीडिया के रिपोर्टर ने लौकी नुमा माइक लिए उनके मुँह के सामने रख दिया। अब उनकी हालत उस साइकिल सिखे नौसिखिए की तरह थी जो चलाना तो जानता है लेकिन ब्रेक लगाने का ज्ञान नहीं।
मनमौजी बाबू बीस-पच्चीस बीघा जमीन के जमींदार हैं। जब से सुना है कि किसान आंदोलन चल रहा है, तो उनके होश उड़े-उड़े से हैं। उनकी मानें तो किसान आंदोलन रास्ते का बैल सरीखा है। न जाने बेमतलब किस वक्त उन पर हमला बोल दे। इसीलिए अपनी जमीनदारी हेकड़ी भीतर दबाए सिर पर किसानी गमछा बांधे पहुँच गए किसान आंदोलन में भाग लेने दिल्ली। वहाँ देखा तो किसान नारेबाजी कर रहे थे। उनके मुँह से नारा तो दूर बड़ी मुश्किल से दो शब्द भी निकलने के लिए पीछे हट रहे थे। अब भला जिसने जिंदगी भर हेकड़ी झाड़ी हो उसके मुँह से किसानी की बातें कैसे निकलेंगे?
फिर सोचा क्यों न इन्हीं किसानों के बीच में बैठे-बैठे किसानी नारों की ट्रेनिंग ही ले लूँ। इसमें उन्हें कामयाबी भी मिली। लेकिन उनकी साँसें फूल गयी जब उनके सामने नेशनल मीडिया के रिपोर्टर ने लौकी नुमा माइक लिए उनके मुँह के सामने रख दिया। अब उनकी हालत उस साइकिल सिखे नौसिखिए की तरह थी जो चलाना तो जानता है लेकिन ब्रेक लगाने का ज्ञान नहीं। अब इनकी हालत सावधानी हटी-दुर्घटना घटी से भी बदतर हो चुकी थी।
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संवाददाता ने पूछा– आप यहाँ क्यों आंदोलन कर रहे हैं?
जमींदार- हमें हमारी जमीन की चिंता चिता बनाए जा रही है। न गाँव में सुकून है और न सरकार पर यकीन। हम अपना सुकून और सरकार से यकीन मानने आये हैं।
संवाददाता ने पूछा– सरकार ने जो किसानों के लिए बिल बनाए हैं, उसके बारे में आपका ख्याल है?
जमींदार- अरे, आज की सरकारों में दम कहां है बिल बनाने और किसानों को उसमें रखने का। इतना छोटा-सा तो बिल है। ऊपर से किसान इतने बड़े-बड़े। सरकार किसान को सिर छिपाने उतना बिल बनायेगी, तभी तो वह रह पायेंगे न! वरना बिल किस काम का? तुम लोग देख ही रहे मूस सरकारों से बड़े बिल बना लेते हैं। क्या सरकार मूसों से गयी बीती है, जो किसानों के लिए पर्याप्त बिल भी नहीं बना सकती? मुझे समझ में नहीं आता कि सरकार को किस चीज़ की कमी है? मुझसे माँग लेते मैं बिल बनाने का सारा सामान दे देता! सच तो यह है कि सरकार की मंशा ही बुरी है। वह बिल नहीं बनाना चाहती बल्कि जमीन हड़पना चाहती है।’’
संवाददाता– वाह! आपने बिल के भी बिल बना दिए। लगता है आपको बिल के बारे में बहुत जानकारी है। अगर आप देश के प्रधानमंत्री होते तो इस किसान आंदोलन का हल कैसे निकालते?
जमींदार- हल? हल ही तो सारी समस्याओं की जड़ है। जब-जब हल की बात उठती है तो जमीन की पीड़ा हरी हो उठती है। मैं अगर प्रधानमंत्री होता तो जमीन वालों को प्रति बीघा हजारों रुपए देता। तब क्यों कोई यहाँ आकर किसान आंदोलन करेगा? किसान तभी आंदोलन करता है जब वह परेशान होता है। देश में बेरोजगार, आलसी, कामचोर, निकम्मा बनाने वाली हजारों योजनाएँ चल रही हैं। उन योजनाओं में करोड़ों-अरबों का रुपया बाँटा जा रहा है। मुझे यह समझ में नहीं आता कि इतनी योजनाओं का हाथी फाटक पार कर सकता है, उसकी पूँछ सरीखी किसान की समस्या से क्या दिक्कत है? यदि मैं ही सरकार होता तो उन्हें देश का सरताज बनाकर यूँ ही किसी किसान-पिसान योजना के तहत पैसे बाँट देता। इस देश के सभी दुखों का एक ही पीड़ाहारी बॉम है– मनमौजी योजना।
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संवाददाता– लगता है आप जमींदार है।
जमींदार– तुम्हें कैसे पता चला?
संवाददाता– तुम्हारे बेतुके जवाबों से। इससे पहले कि मैं तुम्हारी पोल इन किसानों के बीच खोल दूँ और वे तुम्हारा कचूमर बना दें, मैं जितना रुपया माँगता हूँ दे दो।
जमींदार– मैं किसान न सही। लेकिन धोखे की होशियारी बहुत पहले से जानता हूँ। तूम डाल-डाल हो तो मैं पात-पात हूँ। जो बेवकूफ इतनी देर तक मेरी ऊटपटांग बातें सुनता रहे, वह भला पत्रकार कैसे हो सकता है? मुझे पता है कि तुम भी नकली पत्रकार हो।
जमींदार और पत्रकार एक-दूसरे की सच्चाई जानकर बत्तीसी निकालते हुए हँसते हैं। इससे पहले यह राज़ कोई दूसरा जान ले अपना-अपना रास्ता नापने में भलाई समझते हैं।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
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