कुर्सी और मर्जी (व्यंग्य)

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Prabhasakshi

ऐसे ही एक नेता थे। कुर्सी क्या गई मानो बदन से जान निकल गई। इससे अधिक दुख अपने चमचों की गायब होती संख्या को लेकर थी। दुख भी क्यों न हो, कुर्सी पर बैठकर चमचों के लिए इतने पाप किए कि अगले सात जन्मों का कोटा मात्र छह महीने में भर लिया था।

बिना कुर्सी का नेता एकदम फर्जी कागज की तरह होता है। समर्थक भी ऐसे जो गुड़ खत्म होते ही उड़ने वाली मक्खियों की तरह कहीं ओर भिनभिनाने लगते हैं। इस मामले में मक्खियाँ समर्थकों से कहीं अधिक बेहतर होती हैं। वे कम से कम गुड़ खत्म होने के बाद भी कुछ देर वहीं ठहरकर जमीन पर लगे गुड़ की मिठास को ‘फील गुड’ करने में कोई कोताही नहीं बरतती। 

     

ऐसे ही एक नेता थे। कुर्सी क्या गई मानो बदन से जान निकल गई। इससे अधिक दुख अपने चमचों की गायब होती संख्या को लेकर थी। दुख भी क्यों न हो, कुर्सी पर बैठकर चमचों के लिए इतने पाप किए कि अगले सात जन्मों का कोटा मात्र छह महीने में भर लिया था। जितने ज्यादा पाप करते उतने अधिक चमचे बढ़ते। पाप और चमचों का संबंध शेयर मार्केट की तरह होता है। अब नेता जी के पास पाप करने का कोई मौका नहीं है, इसलिए चमचे उन्हें भगवान का नाम जपने और पुण्य कमाने के लिए उन्हें उन्हीं की हालत पर छोड़कर रफू चक्करर हो गए। यह देख नेता जी की तबियत दिन-ब-दिन बिगड़ने लगी। राजनीति का चमत्कार कहिए या फिर संयोग कि नेता जब तक कुर्सी पर होता है तब तक उसे कोई बीमारी तो क्या छींक तक उसे छूने से डरती है। जैसे ही कुर्सी से उतरे सारी बीमारियाँ पता पूछ-पूछ कर गले मिलने आ जाती हैं। कुछ यही हाल था इस नेता जी का।

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पहले लकवा के शिकार हुए फिर बोलने की शक्ति खो बैठे। कहते हैं कि कोई भी नेता एक बार नहीं हजार बार अपनी खोई हुई संपत्ति फिर से प्राप्त कर सकता है, बशर्ते कि उसकी बोलने की शक्ति बची रहे। अध्यापक के लिए चॉक पीस, डॉक्टर के लिए स्टेथस्कोप, सफाई कर्मचारी के लिए झाड़ू का जो महत्व होता है, वही महत्व नेता के लिए उसके बोलने की शक्ति का होता है। नेता की गिरती सेहत को देखकर उनका इकलौता  पुत्र बहुत परेशान था। अभी वह राजनीति में अर्ध-प्रशिक्षित था। पूर्ण प्रशिक्षित होने तक पिता कम नेता जी के अनुभव की अधिक आवश्यकता थी। इसलिए पहुँचे हुए डॉक्टर से पहुँचा हुआ इलाज करवा रहा था। 

दुर्भाग्यवश नेता जी जिंदगी से मौत की पहुँच की ओर बड़ी तेजी से दौड़ रहे थे। डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए। पुत्र को एक उपाय सूझा। उसने हर दिन छोटी-मोटी पार्टी के बहाने लोगों की भीड़ जुटाता और उन्हें पिता जी के दर्शन करवाता। यह सिलसिला कुछ दिन तक चलता रहा। इधर नेता जी को भ्रम हुआ कि यह भीड़ उन्हीं से मिलने आती है, सो उनकी सेहत सुधरने लगी। डॉक्टर आश्चर्यचकित थे। किंतु इधर दो-तीन दिन से लगातार बारिश होने लगी। भीड़ न जुट सकी। यह नेता जी के लिए असह्य हो चला। उन्हें भीड़ को न देख पाने का दौरा पड़ा और दुनिया से चल बसे। पुत्र के पूछने पर जब डॉक्टर ने नेता के डेड बॉडी की जाँच की तब उन्होंने मरने का कारण ‘भीड़ अटैक’ बताया।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार

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