हम तो चले मरने (व्यंग्य)
नेता जी ने अपने साथियों की तरफ़ देखा। वे आँखों से कह रहे थे- अरे अंधों! तुम्हारी अकल क्या काली टोपी में ही रखी रह गयी! आठ भी क्यों कहा? कह देता कि एक भी नहीं मरा. जो पता लगाने जाते, उन्हें भी मार डालते।
एक नेता जी हैं। अक्सर बयान देते रहते हैं। यही उनका धंधा है। एक दिन उन्होंने लाठीचार्ज और गोलीकांड में शांति और प्रसन्नता से बयान दिया। बयान क्या, जैसे शतचंडी यज्ञ की सफलता बता रहे हों और कहा - कुल आठ आदमी पुलिस की गोली से मारे गये। उनके चेले चपाटों में से एक ने कहा- आठ नहीं, सौ मारे गये हैं। नेता जी ने देखा-हाँ, विरोधी हैं। दूसरे ने कहा- मेरे पास सरकारी और गैर-सरकारी दोनों आंकड़े हैं। बताइए आपको कौनसे चाहिए? नेता जी ने शराब का गिलास मुँह से लगाते हुए कहा- सरकारी आंकड़े तो हमीं तैयार करते हैं। गैर-साकारी आंकड़े बताओ। सामने वाला ने कहा - कुल पाँच सौ मज़दूर मारे गये हैं। कमोबेश एक-दो ज्यादा हो सकते हैं लेकिन कम तो कतई नहीं। नेता जी ने देखा- हूँ, बात तो सही है। अच्छा हुआ। आए दिन हड़ताल देने की धमकी दे रहे थे। कुछ लोगों को डराने के लिए कुछ को पीटना और कुछ को मारना पड़ता है। सेक्रेटरी ने कहा- बहुत ज़्यादा मौतें हुई हैं, तथ्यों को छिपाते जा रहे हैं। नेता जी ने देखा- हाँ, है तो विरोधी पार्टी के, पर कमबख़्त हमारे ही किसी नेता के इशारे पर काम कर रहे थे।
नेता जी ने अपने साथियों की तरफ़ देखा। वे आँखों से कह रहे थे- अरे अंधों! तुम्हारी अकल क्या काली टोपी में ही रखी रह गयी! आठ भी क्यों कहा? कह देता कि एक भी नहीं मरा. जो पता लगाने जाते, उन्हें भी मार डालते। किसे मालूम होता! अब नेता जी ने मौत का हिसाब किया- बिलकुल बनिये की तरह ख़ून की क़ीमत तय करके दे दी। देखो भाई, तुम्हारे बैंगन के इतने पैसे हुए, भिंडी के इतने और गाजर के इतने। न भूलचूक, न लेना-देना। जो मरा, उसके परिवार वालों को पाँच लाख रुपये देंगे। जो ज़्यादा घायल होकर अस्पताल में है, उसे पचास हजार रुपये। जिसकी सिर्फ़ मरहम पट्टी हुई है, उसे दस हजार रुपये। हो गया हिसाब साफ़।
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उधर फायरिंग के शिकार लोगों के परिवार की औरतें यों बात कर रही थीं- हमारी तो क़िस्मत फूट गयी। हमारे मर्द को मामूली मरहम-पट्टी हुई है तो हमें दस हजार ही मिलेंगे। उसमें भी बिचौलिए काटकर देंगे। मानो उन्हीं को अपनी मरहम पट्टी करवानी है। तू भागवान है सुनीता, कि तेरा मर्द मर गया। तुझे तो तुझे पूरे पाँच लाख मिलेंगे। हमारा मर्द तो शुरू से निखट्टू है। इस चंपा का घरवाला फिर भी ठीक है।
अस्पताल में पड़ा है तो पचास हाजर रुपये तो मिलेंगे। हमारे मर्द से तो इत्ता भी न हुआ। सरकार धन्य है। उसने मरने वालों के परिवारों का मनोबल बहुत ऊँचा उठा दिया है। बड़ा दिल बड़ी सरकार है। लोग रोटी के बदले गोली खाने को तैयार हैं। सरकार के लिए भी रोटी से गोली सस्ती पड़ती है। वह रोटी की जगह गोली सप्लाई कर देती है। बस भगवान से यही प्रार्थना है कि बिचौलिए खाएँ तो खाएँ लेकिन थोड़ा कम खाएँ तो हमारा कुछ भला होगा। तभी चंपा ने कहा– इतनी महंगाई बढ़ती जा रही है, लेकिन सरकार है कि हताहतों के लिए रेट का मेनू फिक्स्ड कर रखी है। देखो न कितनी महंगाई बढ़ गई है। कम से कम मरने, इलाज कराने वालों का रेट तो बढ़ाना चाहिए। तभी सुनीता बोल उठी– इंसान निंबू थोड़े न है कि एकदम दाम बढ़ जायेंगे। यहाँ सबकी कीमत बढ़ती है। इंसान की कीमत जस की तस रहती है। वह तो भाग्य मनाओ कि कुछ तो मिल रहा है, वरना फोकट ही निपटा दिए जाते। मुआवजे वाली मौत कुत्ते की मौत से बेहतर होती है।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार
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