आओ बेवकूफ बनते हैं (व्यंग्य)
एक दिन मैंने अपने घर पर गारंटी वाली भविष्यवाणी का बोर्ड लगा दिया। ‘भविष्यवाणी गलत होने पर पैसा वापस’ वाली पंक्ति बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवा दी। शुक्र है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था आज भी इतनी अपडेट नहीं हुई है कि वह भविष्यवाणियों को मात दे सके।
मैं बहुत दिनों से पंडिताई कर रहा था। मुझे पंडिताई का खास ज्ञान तो नहीं है लेकिन लोग खुद-ब-खुद बेवकूफ बनने के लिए तैयार हों तो मैं उनकी बेवकूफी को अपना ज्ञान बना लेता हूँ वह क्या हैं न कि जिस तरह अशुद्ध भोगियों से शुद्ध चीजें नहीं पचतीं ठीक उसी तरह से मूर्खों को ज्ञान की बातें समझ नहीं आतीं। इसीलिए तो चार कौओं के बीच में कोयल भी खुद को कौआ मानकर रह जाता है। वैसे भी ‘रील’धारी मूर्खता भरी हरकतें कर लाखो कमा लेते हैं जबकि बुद्धिमान कहलाने वाले डिग्रीधारी उधारी पर जिंदगी जिए जाते हैं।
एक दिन मैंने अपने घर पर गारंटी वाली भविष्यवाणी का बोर्ड लगा दिया। ‘भविष्यवाणी गलत होने पर पैसा वापस’ वाली पंक्ति बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवा दी। शुक्र है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था आज भी इतनी अपडेट नहीं हुई है कि वह भविष्यवाणियों को मात दे सके। मैं इसी बहती गंगा में हाथ, पैर या यूं कहिए साष्टांग डूब कर अपनी चांदी (हो सके तो सोना भी) करना चाहता था। इस धंधे में कामयाबी अपनी काबिलियत के हिसाब से नहीं सामने वाले की बेवकूफी पर निर्भर करती है। सड़कछाप भविष्यकर्ताओं के प्रति अंधभक्तों की लक्ष्मी जेब से निकल-निकल कर मेरा तिलक करना चाहती है तो मैं अपना माथा कैसे पोंछ सकता हूँ। वरना यही मूर्ख अंधभक्त मुझे बेवकूफ कहकर किसी और बड़े बेवकूफ के पास जायेंगे। भला दुनिया में बेवकूफों की कमी है जो मेरे पास उल्टे कदम आने की भूल करेंगे। लोगों को बेवकूफ बनाने का धंधा अत्यंत प्राचीन है। वर्तमान में अपनी पराकाष्ठा दिखा रहा है। भविष्य इसका उज्ज्वल है। ऐसा महान व्यापार छोड़कर मैं बेवकूफों की फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज नहीं कराना चाहता।
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एक दिन एक अंधभक्त मेरे पास आया। उसकी उंगलियां कम थी अंगूठियां ज्यादा थीं। चेहरा एक था चिंताएँ अनेक थीं। आंखें दो थी लेकिन रोने के लिए पूरा बदन पड़ा था। मैं उसके डर में अपना व्यापार खोजने लगा। मैंने उसकी समस्या जानी और पता चला कि घर में आर्थिक तंगी चल रही है। मैं सॉफ्टवेयर में उसका नाम और जन्मतिथि भर कर पंचांग निकालने ही वाला था कि वह बोल उठा- महाराज! इसकी आवश्यकता नहीं है। यह तो मेरे पास है। मुझे केवल आर्थिक संकट से बचने का कोई उपाय बताइए।
मैंने कहा – बेटा! आर्थिक संकट एकाएक दूर नहीं होंगे। छोटी-छोटी बचत बड़े आर्थिक संकट से तुम्हें निजात दिला सकती हैं। कल तुम दुकान के लिए अपनी गाड़ी पर मत जाना। हो सके तो पैदल जाना।
आश्चर्य की बात यह थी कि वह अंधभक्त मेरी बातों का शब्दशः पालन कर अपने और कई मित्रों के साथ लौटा। सभी मेरे चरणो में साष्टांग लेटे हुए थे। यह देखकर मुझे लगा कि भविष्कर्ताओं को प्रेम से ज्यादा भय का उपयोग करना चाहिए। इससे अंधभक्त जल्दी टूट जाते हैं। जीवन भर टूटे-टूटे ही रहते हैं। मैंने अंधभक्त से पूछा कि ऐसी क्या बात हो गई आप सब मेरे पास आए हैं? एक दिन पहले जो अंधभक्त आया था उसने कहा – महाराज! आपके कहे अनुसार मैं गाड़ी पर न जाकर पैदल अपनी दुकान चला गया। दुकान जाते ही मुझे पता चला कि पेट्रोल का भाव सैकड़ा पार कर गया है। अब मैं इसी तरह से आता-जाता हूँ। आपने न केवल मेरे सैकड़ों रुपए बचाए हैं बल्कि मेरा विश्वास भी जीत लिया है। मुझे पूरा विश्वास है कि आज आपने मुझे सैकड़ों रुपए का लाभ करवाया। कल अवश्य लाखों-करोड़ों का लाभ करवाएंगे। मुझसे आप की चमत्कारी महिमा के बारे में जानकर ये लोग भी आपकी शरण में आएँ हैं। इनका भी उद्धार कीजिए।
इतना सब कहते हुए सबने अपनी-अपनी ओर से अच्छी खासी दक्षिणा मुझे चढ़ा दी। उन बेवकूफों को कौन बताए कि महंगाई का बढ़ना और सूर्य का पूर्व से उदित होना दोनों सार्वभौमिक सच्चाई है। वे तो इसे मेरी ही महिमा मान रहे थे। मैंने भी ईमानदारी से महिमावान होने का नाटक किया और उन्हें विदा किया।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
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