वक़्त के हाथों में (व्यंग्य)

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Prabhasakshi
संतोष उत्सुक । Nov 27 2024 5:27PM

बदल चुका वक़्त अब चाहने लगा है कि हम सरकारी लोक विज्ञापन विभाग की तरह कार्य करें। विज्ञापन की डिजाइनिंग बढ़िया हो। शब्दावली प्रभाव पैदा कर दिल और दिमाग में घुस जाने वाली हो। विज्ञापन में प्रयोग किए रंग आंखों को भले लगने वाले हों।

हमारे मित्र फेसबुक पर उचित पाठ पढ़ाते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से समाज में कुछ तो जागरुकता उगेगी। उन्हें पता है कि फेसबुक नामक किताब को अधिकांश पाठक घंटों पढ़ते हैं। सुबह सबसे पहले इसका एक या कई अध्याय ज़रूर पढ़ते हैं। रात को अच्छी नींद लेने के लिए कुछ ख़ास मनपसंद हिस्सों का रसपान करते हैं। बीमार शरीर डॉक्टर के पास जाए और डॉक्टर कहे कि सुबह की सैर करें तो पार्क में ईमानदारी से टहलते हैं और ज़िम्मेदार इंसान की तरह रीलें भी देखते रहते हैं।  सड़क पर चलते चलते दूसरों से टकरा जाते हैं लेकिन कुछ न कुछ ज़रूरी देखते रहते हैं। चलते चलते टाइप करते रहते हैं। अपने सुविचार और कुविचार नादान पाठकों को प्रेषित करते रहते हैं।  

माफ़ करें बात कहीं और जा रही है। तो, हमारे एक मित्र ने एक दिन अपनी वाल पर एक शेर पेश किया ‘मुझको मालूम है सच ज़हर लगे है सबको, बोल सकता हूं मगर होट सिए बैठा हूं’। एक पाठक ने लिखा ‘शुभ विचार’ तो दूसरे ने उन्हें सलाह भी दी ‘बेहतर है होंठों को आराम से बंद रखना धीरे धीरे सीख लो’। उनकी बात सही है। समय बदल चुका है। अब तो चुप रहने का ज़माना है। कोई भी व्यक्ति जिसकी नागरिक, सामाजिक, प्रशासनिक, राजनीतिक या आर्थिक ज़िम्मेदारी है अपने गलत काम पर प्रतिक्रिया नहीं चाहता बल्कि तालियां माँगता है। चाहता है, सफलता के घोड़े पर सवार दूसरे दिमागों को रौंदता रहे। सब खड़े खड़े मुस्कुराते रहें। कोई कुछ न कहे। 

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बदल चुका वक़्त अब चाहने लगा है कि हम सरकारी लोक विज्ञापन विभाग की तरह कार्य करें। विज्ञापन की डिजाइनिंग बढ़िया हो। शब्दावली प्रभाव पैदा कर दिल और दिमाग में घुस जाने वाली हो। विज्ञापन में प्रयोग किए रंग आंखों को भले लगने वाले हों। उसमें प्रयोग किए सुन्दर चेहरे कृत्रिम बुद्धि द्वारा रचे गए हों। ऐसा दिखे कि एक बार मिली ज़िंदगी खूब आनंद से बीत रही है। 

मित्र की फेसबुक वाल पर, उसी शेर को पढ़कर किसी ने सचाई का शेर छोड़ा, ‘मैं सच कहूंगा मगर फिर भी हार जाऊंगा, वो झूट बोलेगा और लाजवाब कर देगा’।  

बात तो सही है। जो बात डर कर जीने में है वह डराकर जीने में नहीं। डरकर जीने में सुरक्षा का अनुभव होता है। पता ही नहीं चल पाता कि अडोस पड़ोस में क्या हो रहा है। डराने में खतरे झेलने होते हैं। आंखें मीच लेने में और फायदा है। नज़र नहीं आता कि सच को कितना नकारा जा रहा है। कानों में रुई डालने का भी फायदा है। कितनी ही किस्म की चीखें सुनाई नहीं देती। कान के परदे सुरक्षित रहते हैं। ज़बान बंद रखने से, खाना मुफ्त मिलता है। बिना मेहनत, खाते में नकदी आती है। वक़्त के हाथों में खेलने का बहुत फायदा है रे।  

- संतोष उत्सुक

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