कोरोना को भी जीने का अधिकार है! (व्यंग्य)

Corona

हमें हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जन्म और मरण परमात्मा की देन है। इसलिए उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। चिंता करनी है तो संप्रदायों, रूढ़ी विचारधाराओं और अंधविश्वासों की करो। संस्कृति की रक्षा के लिए हमें कमर कसनी चाहिए।

भाइयों खाली क्यों बैठे हो? चलो उठो। अभी असंख्य मंदिर बनाने बाकी हैं। मस्जिद कम पड़ते जा रहे हैं। चलो उठो कहीं अल्लाह नाराज़ न हो जाए। गिरजाघर का घंटा नाद कानों तक नहीं पहुँच रहा। चलो जल्दी करो अजान के लिए मस्जिद और घंटानाद के लिए गिरजाघर तरसते जा रहे हैं। गुरु के द्वार तक पहुँचने के लिए गुरुद्वारे बनाते हैं। जितने धर्म हैं उतने घर बनाते हैं। जितनी प्रार्थनाएँ हैं उतने लोगों को बुलाते हैं। अस्पताल, पाठशाला यह सब बेकार है। यह भी भला कोई बनाने की चीज़ है! इसे कोई न कोई मूर्ख बना देगा। दुनिया में कबीरा जमात के लोगों की कमी थोड़े न है। बहुत पड़े हैं दुनिया में जो रात-रात भर जागकर दुखी संसार के लिए रोते हैं। उन मूर्खों को कोई बताए कि प्रार्थना मंदिरों में दिन रात बंदों की बंदगी प्राप्त कर रहे खुदा रातोंरात अस्पताल और पाठशाला चुटकी बजाते बना देंगे। जरूरत है तो प्रार्थना मंदिर बनाने के लिए दिल खोलकर दान-दक्षिणा देने की। इस दुनिया में जीने के लिए ज्ञान और चिकित्सा की नहीं केवल भक्ति की जरूरत है। भक्ति है तो सभी दुखों से मुक्ति है। हमारा काम प्रार्थना मंदिर बनाना है, महामारी का ठेका खुदा पर छोड़ दो। वही सब कुछ देख लेगा।

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भाइयों ध्यान रहे कि हमारे पंडितों, मौलवियों, फादरों, ब्रदरों की खातिरदारी में कोई कमी न रह जाए। ये ही तो हैं हमारे प्रार्थनाघरों के ठेकेदार जो दिन-रात ऊपरवाले की इबादत में अपना जीवन लुटाते हैं।। दान-दक्षिणा-अनुदान-डोनेशन के एवज में हमें पापों से बचाते हैं। पुण्य का भागीदार बनाते हैं। डॉक्टरों और अध्यापकों की समाज में कोई जरूरत नहीं है। यहाँ तो चुटकी बजाते महामारियों को छूमंतर कर दिया जाता है। घर-गृहिस्थी के कलह, मनमुटाव, जमीन-जायदाद के झगड़े, सास-बहू की खटपट, मात्र निंबू-मिर्ची, झाड़-फूँक से ठीक कर दिए जाते हैं। क्या अब भी लगता है कि हमें डॉक्टरों की जरूरत है? कतई नहीं। हमें बाबाओं की जरूरत है। पहुँचे हुए अंगूठाछाप बाबाओं के  सिर पर हाथ रखने मात्र से सभी विषयों का ज्ञान फट से प्राप्त हो जाता है। चूरन-फूरन खा लेने से सर्वज्ञाता बन जाते हैं। क्या अब भी हमें अध्यापकों की जरूरत है? कतई नहीं।

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हमें हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जन्म और मरण परमात्मा की देन है। इसलिए उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। चिंता करनी है तो संप्रदायों, रूढ़ी विचारधाराओं और अंधविश्वासों की करो। संस्कृति की रक्षा के लिए हमें कमर कसनी चाहिए। जरूरत पड़े तो सामने वाले की जान लेने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए। हमारे धर्म का कोई मजाक बनाए उसकी खाल नोच देनी चाहिए। यह ज्ञान-विज्ञान की बातें सब मट्टी है। इसलिए ज्ञान-विज्ञान को छोड़ो अंधविश्वासों का पालन करो। इससे हमारी समस्याएँ चुटकियों में दूर हो जाएंगी। सच तो यह है कि हमें ज्ञान-विज्ञान की चेतावनी भुलाकर चुनावी रैलियाँ करनी चाहिए। आईपीएल में भाग लेना चाहिए। कुंभ में भाग लेना चाहिए। गंगा जल कोरोना को समाप्त कर देता है। कुछ महानुभावों की मानें तो कोरोना भी प्राणी है, उसमें भी जान है। उसे भी जीने का अधिकार है। इसलिए उसे जीने दो। ज्ञान-विज्ञान को मरने दो। ऊपर कही बातों में थोड़ी भी ऊँच-नीच हुई तो देश बर्बाद हो जाएगा। इसलिए अस्पताल-पाठशाला से मुँह मोड़ो और देश को भगवान भरोसे छोड़ दो।      

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, 

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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