एक्सीडेंटल राजनेता, क्रांतिकारी अर्थशास्त्री
मनमोहन सिंह को अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप ही याद किया जाता है। लेकिन प्रधानमंत्री को राजनेता भी होना चाहिए। मनमोहन आधुनिक और प्रचलित अर्थों में राजनेता नहीं थे। उनके ही मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने उन्हें एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री कहा है।
साल 1999 के आम चुनावों में दिल्ली की सात में छह सीटों पर तत्कालीन सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को करारी हार मिली थी। दक्षिण दिल्ली की इकलौती ऐसी सीट रही, जहां बीजेपी के विजय कुमार मल्होत्रा को जीत मिली थी। मल्होत्रा के सामने जिन्हें हार मिली थी, वे राजनेता मनमोहन सिंह थे। उन दिनों मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में काम करता था। अखबारी रिपोर्टिंग की एक रवायत है। वह विजेताओं को ही खोजती है और उनकी ही बात करती है। लेकिन हमारे तत्कालीन ब्यूरो चीफ और दिग्गज पत्रकार शरद द्विवेदी ने मुझे सफदरजंग रोड भेज दिया, जहां मनमोहन सिंह बतौर राज्यसभा सांसद रह रहे थे। शरद द्विवेदी का तर्क था कि मनमोहन सिंह देश की अर्थव्यवस्था को बदलने वाले राजनेता हैं। उनके घर का माहौल देखना चाहिए और उस पर स्टोरी लिखनी चाहिए।
मैं जब मनमोहन सिंह के घर पहुंचा तो वहां करीब साठ-सत्तर कार्यकर्ता मौजूद थे। बंगले में एक तरह से उदासी छायी थी। एक ड्रम में रसना घोल रखी गई थी और आने वाले लोगों को पिलाई जा रही थी। वहां कांग्रेस का कोई बड़ा नेता मौजूद नहीं था, सिवा राजस्थान के रामनिवास मिर्धा के। मिर्धा भी चुपचाप एक कोने में खड़े थे। और तो और, वहां पत्रकार भी नहीं थे। मेरे पहुंचने के बाद बंगले में सिर्फ एक और पत्रकार आए। इस बीच साधारण से सफेद कुर्ता-पाजामा और नीली पगड़ी में मनमोहन सिंह मेरी तरफ मुखातिब हुए। उन्हें मैंने बतौर पत्रकार परिचय दिया तो उन्होंने कांपते हाथों से हाथ मिलाया और फिर उसी तरह तकरीबन कांपते हुए रसना का गिलास मुझे थमा दिया। उस वक्त मैंने बचकाना सा सवाल पूछ लिया था, क्या सोच रहे हैं?
‘वैसा ही सोच रहे हैं, जैसा कोई हारा हुआ प्रत्याशी सोचता है।‘ उनका जवाब था।
मनमोहन सिंह को उसके बाद राज्यसभा और दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में खूब देखा। वे कभी पढ़ते हुए दिखते तो कभी चुपचाप बैठे हुए। 2004 में भारतीय जनता पार्टी के इंडिया शाइनिंग अभियान को धत्ता बताते हुए कांग्रेस की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने केंद्रीय सत्ता का दावेदार बन गया। तब शायद ही किसी ने सोचा था कि मनमोहन सिंह अगले प्रधानमंत्री बनेंगे। उस वक्त माना यह जा रहा था कि अगर किसी वजह से सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगी तो प्रणब मुखर्जी देश के अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं। लेकिन सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी की बजाय मनमोहन सिंह पर भरोसा किया।
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1991 में जब नरसिंह राव ने केंद्र की सत्ता संभाली, तब देश भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा था। देश की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि उसे विदेशी विनिमय के लिए अपना 67 टन सोना ब्रिटेन में गिरवी रखकर उसके एवज में 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लेना पड़ा था। ऐसे माहौल में नई सरकार के लिए देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना बड़ी चुनौती थी। लेकिन नरसिंह राव ने इसे स्वीकार किया। उन्होंने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया और मनमोहन सिंह ने उदारीकरण के साथ ही आर्थिक सुधारों की शुरूआत की। 1991 के चुनावों के बाद बनी नई सरकार ने 25 जुलाई 1991 को नया बजट पेश किया। उसी बजट को पेश करते हुए बतौर वित्त मंत्री देश को नई आर्थिक राह पर लेकर चल पड़े। उदारीकरण, वैश्वीकरण और आर्थिक सुधार के साथ देश आर्थिक मोर्चों को फतह करते हुए आगे बढ़ चला। इस राह पर देश आज कितना आगे बढ़ चुका है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भारत दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है। देश का आज आर्थिक नक्शा बदला हुआ नजर आता है तो उसकी बड़ी वजह मनमोहन सिंह की रखी हुई बुनियाद ही है।
मनमोहन सिंह को अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप ही याद किया जाता है। लेकिन प्रधानमंत्री को राजनेता भी होना चाहिए। मनमोहन आधुनिक और प्रचलित अर्थों में राजनेता नहीं थे। उनके ही मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने उन्हें एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री कहा है। मनमोहन सिंह पर आरोप लगा कि वे कठपुतली प्रधानमंत्री हैं। उनकी सरकार को सलाह देने के लिए सोनिया गांधी की अगुआई में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनी, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह सलाहकार कम, आदेश देने वाली संस्था है। उनकी ही सरकार ने तीन साल की सजा पाने वाले राजनेताओं की संसद और विधानमंडल की सदस्यता खत्म होने को रोकने वाला अध्यादेश पारित किया था, जिसे राहुल गांधी ने फाड़ कर एक तरह से उस अध्यादेश को प्रभावहीन कर दिया था।
मनमोहन सिंह 2004 से 2014 तक, दस साल देश के प्रधानमंत्री रहे। पहले कार्यकाल में तो नहीं, लेकिन 2009 से 2014 के कार्यकाल में उनकी सरकार और उनके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के खूब आरोप लगे। बेशक प्रधानमंत्री के रूप में उनके चरित्र और दामन पर कोई दाग नहीं लगा। लेकिन उनकी चुप्पी देश को खलती रही। इसलिए उन्हें मौनमोहन तक कहा जाने लगा था।
बिल्कुल मामूली परिवार में जन्मे मनमोहन सिंह ने अर्थशास्त्र की ऊंची शिक्षा हासिल की। कैंब्रिज में अर्थशास्त्र की ऊंची शिक्षा ली, दिल्ली के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और पंजाब विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष में अर्थशास्त्री रहे, भारत के रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे, योजना आयोग में रहे, वित्त मंत्री रहते हुए इतिहास ही रचा।
मनमोहन सिंह के बतौर प्रधानमंत्री कुछ बयान विवादास्पद भी रहे। उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। उनका एक और बयान था कि पैसे पेड़ पर नहीं फलते। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक समारोह में उन्होंने जब कृतज्ञ भाव से अंग्रेजों की ओर से भारत को बड़ी देन अंग्रेजी को बताया था, तब भी उन पर सवाल उठे थे।
मनमोहन सिंह सरलता और सादगी की मिसाल थे। यह सादगी उनकी ताजिंदगी पहचान रही। वे सहज भी रहे। प्रणब मुखर्जी उनके राजनीतिक बॉस रह चुके थे। बाद के दिनों में उनके मंत्रिमंडल में मुखर्जी बतौर वित्त मंत्री शामिल थे। तब भी मनमोहन उन्हें पहले की तरह सर ही कहा करते थे। जिस पर मुखर्जी ने प्रतिवाद किया था और उन्हें सर कहने से रोक दिया था। इसका खुलासा खुद प्रणब मुखर्जी ने अपने एक साक्षात्कार में किया था।
हर व्यक्तित्व के दो पहलू होते हैं। मनमोहन भी इस मानवीय व्यवहार के अपवाद नहीं थे। अब वे हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी सादगी और सरलता तो याद रहेगी, देश के आर्थिक भाग्य को बदलने वाले के रूप में उनकी छाप सदा अमिट रहेगी। भारत इसके लिए उनका शुक्रगुजार ही नहीं, ऋणी भी रहेगा।
-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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