क्या है पीके की राजनीति, छह प्रदेशों के मुख्यमंत्री क्यों ले रहे हैं बिहार की राजनीति में दिलचस्पी
आने वाले दिनों में बिहार में पलायन एक चुनावी मुद्दा भी बनेगा और जब मुद्दा बनेगा तो मुमकिन है कि पलायन को रोकने की दिशा में कोई पहल की जाए? यह पहल कितनी कारगर होगी, यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि इसमें अभी लंबा वक्त लगनेवाला है।
‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है’ कभी नीतीश कुमार के समर्थन में यह नारा बुलंद करनेवाले वाले प्रशांत किशोर आजकल नीतीश सरकार के विरोध में बातें करने लगे हैं। ‘जन सुराज यात्रा’ के माध्यम से अपनी राजनीतिक पैठ बना रहे पीके जहां केंद्र सरकार को आड़े हाथों ले रहे हैं, वहीं नीतीश-लालू की आलोचना भी कर रहे हैं। लेकिन इसी क्रम में वे लालू को सामाजिक न्याय का मसीहा बताते हैं तो नीतीश के विकास मॉडल की प्रशंसा भी करते हैं। वे कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में भी बोलते हैं और कभी उनकी खुलकर आलोचना भी करने लगते हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर पीके की राजनीति क्या है? वह बिहार को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? इतना तो लगभग तय हो ही चुका है कि पीके आनेवाले दिनों में अपनी एक राजनीतिक पार्टी बनाएंगे। और अगर वे राजनीतिक पार्टी बनाते हैं तो किसको लाभ पहुंचाने का काम करेंगे और किसको नुकसान, यह भी एक अहम सवाल है। बिहार जैसे राज्य में जहां जाति के बिना कोई राजनीति नहीं होती, वहां जाति मुक्त राजनीति की बात लोगों के गले भी उतर पाएगी या नहीं, यह देखना अधिक दिलचस्प होगा।
पीके के लिए लोगों को यह समझाना भी बहुत मुश्किल काम होगा कि चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर कभी जिस मुख्यमंत्री की शान में कसीदे पढ़ रहे थे, आज उनकी तिखी आलोचना क्यों कर रहे हैं? उन्हें यह भी बताना होगा कि जिस भाजपा के लिए उन्होंने चुनावी रणनीति बनाने का काम किया, आज उसके खिलाफ क्यों मुखर हो उठे हैं? प्रशांत किशोर को यह समझना होगा कि पेशेवर चुनावी रणनीतिकार और पेशेवर राजनेता (जो कभी यह नहीं कहते कि मैं पेशेवर हूं) में बहुत फर्क होता है। स्वास्थ्य कारणों से हालांकि ‘जन सुराज यात्रा’ अभी रोक दी गई है लेकिन इसके फिर से जल्द ही चालू होने की उम्मीद है। जैसे-जैसे यह यात्रा आगे बढ़ेगी, यह तय है कि यह यात्रा राजनीतिक पार्टी का रूप ले लेगी। और जाहिर सी बात है कि जब वे राजनीतिक पार्टी बनाएंगे तो सत्ता में अपनी भागीदारी भी चाहेंगे, तब उन्हें ऐसे चुभते सवालों का सामना भी करना होगा।
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प्रशांत किशोर चूंकि चुनावी रणनीति बनाने में माहिर हैं। उन्होंने न सिर्फ हिंदी प्रदेशों में बल्कि, गैर हिंदी प्रदेशों में भी सफलता हासिल की है। प्रशांत किशोर यह कहते भी रहे हैं कि छह प्रदेशों के मुख्यमंत्री, जिनकी जीत में उनकी भूमिका है, उन्हें फंडिंग कर रहे हैं। इस बात से यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि प्रशांत जब चुनावी राजनीति में उतरेंगे, उन्हें पैसों की कोई कमी नहीं होगी। लेकिन यह बात शायद ही किसी के गले उतरे कि ये मुख्यमंत्री नि:स्वार्थ भाव से प्रशांत किशोर को फंडिंग कर रहे हैं। यह सवाल तो उठेगा ही कि इन छह प्रदेशों के मुख्यमंत्री बिहार की सत्ता बदलने के लिए पीके को क्यों फंडिंग कर रहे हैं? बिहार की राजनिति ये उनका क्या वास्ता? एक लगाइए और दस पाइए के मूलभूत सिद्धांत पर चल रही देश की चुनावी राजनीति में यह सवाल तो उठेगा ही कि फंडिंग करनवाले मुख्यमंत्रियों को आखिर रिटर्न क्या चाहिए?
पीके पलायन की समस्या पर मुखरता से बोलते रहे हैं और इसके लिए बिहार के राजनीतिक नेतृत्व को कोसते भी रहे हैं। पीके खुद बिहारी हैं और हर एक बिहारी को पलायन की पीड़ा असहनीय लगती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्हें भी पलायन की यह पीड़ा तकलीफ पहुंचाती होगी। लेकिन वे जिन छह मुख्यमंत्रियों की बात करते हैं (हालांकि उन्होंने कभी इन मुख्यमंत्रियों के नाम नहीं लिए हैं लेकिन समझनेवाले समझ सकते हैं कि वे मुख्यमंत्री कौन-कौन से हैं) उन राज्यों में भी बिहारी मजदूर और अन्य कामगार भारी संख्या में सेवारत हैं। जाहिर सी बात है कि इन मुख्यमंत्रियों से पीके के संबंध बहुत आत्मीय और घनिष्ठ होंगे। उन राज्यों के विकास में उन बिहारी कामगारों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। ऐसे में उन मुख्यमंत्रियों से बातकर उन बिहारी कामगारों के लिए कुछ अतिरिक्त सहुलियतें जुटाने का काम पीके क्यों नहीं कर सकते? इन प्रवासी कामगारों की दशा सुधारने के लिए कोई पहल क्यों नहीं की जा सकती?
आनेवाले दिनों में बिहार में पलायन एक चुनावी मुद्दा भी बनेगा और जब मुद्दा बनेगा तो मुमकिन है कि पलायन को रोकने की दिशा में कोई पहल की जाए? यह पहल कितनी कारगर होगी, यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि इसमें अभी लंबा वक्त लगनेवाला है। फिलहाल सत्य यही है कि बिहार से पलायन रोकना एक दिवास्प्न की तरह ही है। क्योंकि पलायन पर रोटी सेकने का काम सबने किया है लेकिन पलायन रोकने के लिए कोई ठोस पहल अब तक किसी के द्वारा नहीं की गई। पिछले कुछ वर्षों में नीतीश का विकास मॉडल शराबबंदी में इस कदर उलझा कि सारी महत्वपूर्ण बातें गौण हो गईं। मनरेगा जैसी योजनाएं राज्य में पंगु बनी हुई हैं। अलबत्ता बिहार में हाल के कुछ वर्षों में चमचमाती हुई सड़कें बनी हैं, जिन पर पंजाब, हरियाणा सहित विभिन्न राज्यों की बसें सरसराती हुई आती हैं और बिहारी मजदूरों को भरकर ले जाती हैं। मुख्यमंत्री सात निश्चय योजना के तहत राज्य में कई योजनाओं पर काम युद्ध स्तर पर चल रहा है। लेकिन इन योजनाओं में काम करने के लिए ठेकेदारों को मजदूर नहीं मिल रहे।
फलस्वरूप ठेकेदार बंगाली और बांग्लादेशी मजदूरों को बिहार बुला रहे हैं। ये मजदूर सस्ती मजदूरी पर इन दिनों बिहार में आसानी से मिल जा रहे हैं। सड़क निर्माण, भवन निर्माण, नल जल योजना और ईंट भट्ठों पर इन दिनों आपको बंगाल और बांग्लादेशी मजदूर आसानी से दिख जाएंगे। इन ठेका कंपनियों में स्थानीय मजदूरों को काम मिले और उचित मजदूरी मिले, इस दिशा में कोई कुछ पहल नहीं कर रहा। इन छोटी-बड़ी ठेका कंपिनयों में भी रोजगार के कई अवसर हैं और देश के विभिन्न हिस्सों में ये बिहारी मजदूर इसी तरह की ठेका कंपनियों में काम भी कर रहे हैं। पीके जैसे नेता अगर सही में बिहार से पलायन को दूर करना चाहते हैं तो उन्हें इन छोटी-मोटी बातों पर भी ध्यान देना होगा क्योंकि हम सबको पता है कि बूंद-बूंद से ही तालाब भरता है।
फिलहाल पीके की राजनीति कुछ युवाओं को आकर्षित करने लगी है। कुछ आइएएस, डॉक्टर और इंजीनियर जैसे बुद्धिजीवी लोग भी उनसे प्रभावित हुए हैं। बावजूद इसके मैं यह उम्मीद नहीं कर सकता कि 2025 के विधानसभा चुनाव में या आनेवाले दिनों में पीके बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। क्योंकि किसी राजनेता को प्रभावित करने से ज्यादा टेढ़ा काम आम लोगों को प्रभावित करने का है। हं, इतना तय है कि अगर वे पार्टी बनाकर चुनाव के मैदान में उतरते हैं तो वोट काटने का काम जरूर करेंगे। वे वोट किसका काटेंगे, किसको लाभ पहुंचाएंगे और किसको नुकसान यह तो समय बताएगा। फिलहाल पीके को इतना जरूर बताना चाहिए कि छह प्रदेशों के मुख्यमंत्री उन्हें क्यों फंडिंग कर रहे हैं? इन मुख्यमंत्रियों को बिहार की राजनीति में इतनी दिलचस्पी क्यों है?
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