चेक बाउंस के ही 45 लाख से अधिक मामलें न्यायालयों में विचाराधीन
अदालतों में लंबित मुकदमों के अंबार को इसी से समझा जा सकता है कि देश में 5 करोड़ से अधिक मुकदमों में वादी प्रतिवादी न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मजे की बात यह है कि इनमें से एक लाख 80 हजार मामलें तो 30 साल से भी अधिक समय से लंबित चल रहे हैं।
केन्द्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने जानकारी देते हुए बताया है कि देश के न्यायालयों में 45 लाख से अधिक मामलें केवल और केवल चेक बाउंस होने से संबंधित है। अदालतों में लंबित मुकदमों में करीब 9 प्रतिशत मामलें तो चेक बाउंस के ही है। इसमें भी सर्वाधिक 6 लाख से अधिक मामलें राजस्थान में विचाराधीन है वहीं राजस्थान के साथ ही महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य है जहां चेक बाउंस के सर्वाधिक मामलें विचाराधीन है। न्यायालयों में मुकदमों के बोझ को लेकर न्यायपालिका से लेकर सरकार और इससे जुड़े लोग सभी चिंतित है। देश के न्यायालयों में कुल 5 करोड़ से अधिक मामलें लंबित चल रहे हैं। लगातार सुधारों और सकारात्मक प्रयासों के बावजूद न्याय की प्रतीक्षा में इतनी अधिक संख्या में प्रकरणों का बकाया होना इस मायने में भी चिंता का कारण है कि न्यायालयों पर मुकदमें को बोझ कम होने के स्थान पर लगातार बढ़ता ही जा रहा है। यह सब तो तब है जब लोक अदालतों का समय समय पर लगातार आयोजन किया जा रहा है। दरअसल कुछ इस तरह के मुकदमें है जो सबसे अधिक न्याय के मंदिर का बोझ बढ़ा रहे हैं। ऐसे मुकदमों के निस्तारण की दृष्टि से यातायात नियमों की अवहेलना करने वाले मुकदमों के निस्तारण का जो रास्ता अख्तियार किया गया है वह निश्चित रुप से सराहनीय और न्यायालयों के बोझ को कम करने की दिशा में सकारात्मक प्रयास माना जा सकता है। यदि चेक बांउस वाले मामलों को भी इसी तरह से निपटान का कोई रास्ता निकल सके तो न्यायालयों में मुकदमों के अंबार को निष्चित रुप से कम किया जा सकता है।
न्यायपालिका और सरकार न्यायालयों में मुकदमों के अंबार से चिंतित होने के साथ ही समाधान की दिशा में लगातार प्रयास कर रही है। चेक बांउस जैसे मुकदमों के शीघ्र निस्तारण के लिए सुझाव देने के लिए 10 मार्च, 21 को दस सदस्यीय कमेटी भी बनाई गई समिति ने नेगोशियेबल इंस्ट्रूमेंटल कोर्ट बनाने की सलाह के साथ ही पायलट प्रोजेक्ट के रुप में स्थापना के सुझाव भी दिए और पायलट प्रोजेक्ट के रुप में करीब25 कोर्ट बने भी। पर परिणाम सामने नहीं आ सके हैं।
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अदालतों में लंबित मुकदमों के अंबार को इसी से समझा जा सकता है कि देश में 5 करोड़ से अधिक मुकदमों में वादी प्रतिवादी न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मजे की बात यह है कि इनमें से एक लाख 80 हजार मामलें तो 30 साल से भी अधिक समय से लंबित चल रहे हैं। देश के सबसे बड़े न्याय के मंदिर में 80 हजार से अधिक मामलें लंबित है। एक मोटे अनुमान के अनुसार लंबित न्यायालयों में से करीब 85 प्रतिशत से अधिक मामलें तो जिला अदालतों में विचाराधीन है। करीब 25 प्रतिशत मामलें राजस्व से जुड़े हैं। यातायात नियमों की अवहेलना के मामलें भी बहुत अधिक संख्या में है पर इसके निराकरण का रास्ता निकलने लगा है। देश में समय समय पर नियतकाल में लग रही लोक अदालतों में भी बड़ी संख्या में मुकदमों का निस्तारण होने लगा है। पर सवाल वहीं का वहीं हैं कि देष के न्यायालयों में फास्ट ट्रेक सहित विशेष अदालतें बनने के बाद भी कम होने की जगह दिन प्रतिदिन अधिक ही होते जा रहे है। विचाराधीन कैदियों के संदर्भ में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु की टिप्पणी और उपकी चिंता से सभी वाकिफ हो चुके हैं। होता तो यहां तक है कि हजारों की संख्या में ऐसे प्रकरण देखने को मिल जाएंगे जिसमें जितनी सजा होनी चाहिए उससे अधिक समय तो ज्यूडिशियल कस्टेडी में ही निकल जाता है। इसी तरह से मामूली मारपीट और इसी तरह के दूसर छोटे मोटे मुकदमें न्यायालयों में लगातार बोझ का कारण बनते जा रहे हैं। आपसी जमीन जायदाद और गज दो गज जमीन के, रास्ते के और इनके कारण राजस्व मुकदमों के साथ ही क्रिमिनल मुकदमों और इसी तरह के मुकदमों के न्यायिक प्रक्रिया को पूरा करते हुए त्वरित निस्तारण का कोई समाधान खोजा जाना आवश्यक है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे न्यायालयों द्वारा मुकदमों का बोझ कम करने के लिए लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। व्यवस्था में काफी सुधार किये गए हैं। पुराने लंबित मुकदमों की पहले सुनवाई पर जोर दिया जा रहा है। इसी तरह से तारीख पर तारीख लेने की परंपरा को भी तोड़ा जा रहा है। व्यवस्था को अधिक पारदर्शी और तकनीक सेवी बनाया जा रहा है। त्वरित निस्तारण पर जोर दिया जा रहा है। पर तथ्य तो यही दर्शा रहे हैं कि लाख प्रयासों के बावजूद मुकदमों का अंबार कम नहीं हो रहा। भारतीय न्याय प्रणाली को लेकर सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि देशवासियों को न्याय सिस्टम के प्रति विष्वास है और यही कारण है कि लोग जब कोई विकल्प नहीं दिखता तो न्याय के दरवाजे पर गुहार लगाते है।
तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि न्यायालयों में सरकार से जुड़े मुकदमों की संख्या भी बहुत बहुत बड़ी संख्या में हैं। आर्बिटेशन के प्रावधान होने के बावजूद अधिक मामलें निपट नहीं पाते हैं। अब चेक बांउस के मामलों को ही लिया जाए तो इसमें दो बाते साफ है। मोटे रुप से चेक बांउस होने की स्थिति में 2 वर्ष की सजा या चेक राशि की दो गुणा राशि चुकाने के प्रावधान है। केस की प्रकृति के अनुसार सजा कम ज्यादा हो सकती है। ऐसे में 43 लाख मुकदमों का केवल चेक बाउंस से संबंधित होना इसलिए चिंता का विषय हो जाता है कि पांच करोड़ में से यह संख्या कम होती है और खासतौर से ऐसे हालातों में निचली अदालत में मुकदमों का बोझ काफी कुछ कम हो सकता है। इसके लिए सबसे अच्छा रास्ता तो चेक बांउस प्रकरणों के निपटान के लिए विशेष अभियान चलाते हुए लोक अदालत लगाई जाकर उसमें दोनों पक्षों को बुलाकर समझाईश से निपटाया जा सकता है या कुछ इसी तरह का कोई हल खोजा जा सकता है। ऐसे मामलों में एक या दो से अधिक तारीख तो दी ही नहीं जानी चाहिए। ऐसे मामलें अदालत में आने की साथ ही दोनों पक्षों को अपना पक्ष रखने का तारीख दर तारीख नहीं बल्कि पहली या दूसरी तारीख में ही देकर के निस्तारित किया जाना अधिक उचित होगा ताकि इस तरह के प्रकरणों का निष्पादन हो सके। यह तो सामान्य व्यक्ति के रुप में सुझाव हो सकता है। न्यायपालिका से जुड़े विशेषज्ञ विद्वतगण इस तरह की समस्याओं के समाधान के लिए न्यायिक प्रक्रिया को पूरी करते हुए कोई सकारात्मक सुझाव दे और सरकार व न्यायपालिका द्वारा परीक्षण कर कोई ऐसी व्यवस्था करें तो मुकदमों के अंबार को कम किया जा सकता है। चेक बांउस तो एक पक्ष है इसी तरह के ऐसे मुकदमें जिनमें अधिक कानूनी पेचिदगियां नहीं होती हो उनके त्वरित निस्तारण का रास्ता निकाल कर न्यायालयों के बोझ को हल्का किया जा सकता हैं। सरकार, न्यायपालिका और इस क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों को इस दिशा में भी निरंतर मनन और समाधान खोजना ही होगा ताकि न्याय जल्दी मिल सके, मुकदमों का भार कम हो सके।
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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