दिल्ली-एनसीआर में हवा के जरिये जहर अंदर कब तक खींचते रहेंगे लोग?

Delhi NCR Pollution problem
ANI
ललित गर्ग । Nov 1 2023 3:09PM

पराली के प्रदूषण से ”दीपावली“ के गौरवपूर्ण सांस्कृतिक अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाने की बजाय पराली का स्थायी हल निकाला जाना चाहिए। पराली के प्रदूषण को पटाखों के प्रदूषण के नाम पर ढकने की कुचेष्टा से बचना चाहिए।

इस वर्ष फिर से दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में पराली एवं वायु प्रदूषण से उत्पन्न दमघोटू माहौल का संकट जीवन का संकट बनता जा रहा हैं। दिल्ली-एनसीआर में हवा की क्वालिटी बेहद खराब यानी जानलेवा बनती जा रही है। अभी सर्दी शुरु भी नहीं हुई है, इस मौसम में ऐसा दूसरी बार हुआ है। हालांकि तात्कालिक वजहों से कभी-कभार राहत भले मिल जाए, लेकिन दिल्ली--एनसीआर ही नहीं, उत्तर भारत के बड़े इलाके में रहने वाले जनजीवन के लिए यह एक स्थायी समस्या एवं जीवन संकट बनती जा रही है, जो बच्चों, बुजुर्गों और सांस की बीमारियों से पीड़ित लोगों के लिए बेहद खतरनाक एवं जानलेवा साबित हो रही है। सरकारें भले ही इस मुद्दे को लेकर गंभीर नजर आने लगती हैं, भले ही इस जटिल से जटिलतर होती समस्या के समाधान का पूरा एक्शन प्लान तैयार भी है लेकिन इसके प्रभावी परिणाम देखने को नहीं मिलना, कहीं-ना-कहीं सरकार की नाकामी को ही दर्शा रहा है। दिल्ली और पंजाब सरकार ने अनेक लुभावने तर्क एवं तथ्य दिये, सरकारें जो भी तर्क दें, पर हकीकत यही है कि लोगों का दम घुट रहा है। अगर वे सचमुच इससे पार पाने को लेकर गंभीर हैं, तो वह व्यावहारिक धरातल पर दिखना चाहिए।

वायु की गुणवत्ता का खराब होना एवं प्रदूषण का ऐसा विकराल जाल है जिसमें मनुष्य सहित सारे जीव-जंतु फंसकर छटपटा रहे हैं, जीवन सांसों पर छाये संकट से जूझ रहे हैं। अस्पतालों के बाहर लम्बी कतारें देखने को मिलने लगी हैं। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के अनुसार लोगों को अगले कुछ दिनों तक खराब वायु में कमी आने की उम्मीद नहीं है। मौसम विभाग के अनुसार, अगर वायु गुणवत्ता शून्य से 50 के बीच रहे तो इसे ‘अच्छा’ माना जाता है। अगर एक्यूआई 51 से 100 के बीच रहे तो इसे ‘संतोषजनक’ और 101 से 200 के बीच एक्यूआई को ‘मध्यम’ माना जाता है। अगर एक्यूआई 201 से ऊपर चला जाए और 300 तक रहे तो इसे ‘खराब’, 301 से 400 के बीच रहे तो ‘बहुत खराब’ और अगर 400 से ऊपर पहुंच जाए तो इसे ‘गंभीर’ माना जाता है। दिल्ली-एनसीआर में 22 अक्टूबर को एक्यूआई 313 यानी बहुत खराब स्तर पर गया था। उसके बाद से हवा की गति धीमी होने और तापमान में गिरावट के कारण वायु गुणवत्ता ‘बहुत खराब’ श्रेणी में बनी हुई है। यह समस्या साल-दर-साल गंभीर होती जा रही है।

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इस गंभीर होती समस्या से पार पाने के लिए दिल्ली सरकार ने कई उपाय आजमाए, प्रदूषण पर नियंत्रण के लिये निर्देश जारी किये गये मगर वे कारगर साबित नहीं हो पा रहे। दिल्ली-एनसीआर में जगह-जगह जल छिड़काव करती सरकारी गाड़ियां भी दिखने लगी हैं, जो हवा में धूल की मात्रा कम करती हैं। मगर इन कदमों का स्वरूप ही बताता है कि सरकार समस्या के लक्षणों को कम करने में जुटी है लेकिन अभी तक समस्या को सुलझाने या इसकी गंभीरता को कम करने में कोई खास सफलता नहीं मिली है। इसके एक प्रमुख कारण के रूप में पंजाब और आसपास के राज्यों में पराली जलाने के चलन को कई साल पहले चिह्नित किया जा चुका है। मगर उस मोर्चे पर राजनीतिक कारणों से खास प्रगति के संकेत नहीं मिल रहे हैं। प्रदूषण जानलेवा स्तर तक खतरनाक हो गया है। प्रश्न है कि पिछले कुछ सालों से लगातार इस महासंकट से जूझ रही दिल्ली-एनसीआर को कोई स्थायी समाधान की रोशनी क्यों नहीं मिलती? सरकारें एवं राजनेता एक दूसरे पर जिम्मेदारी ठहराने की बजाय समाधान के लिये तत्पर क्यों नहीं होते? इस विषम एवं ज्वलंत समस्या से मुक्ति के लिये हर राजनीतिक दल एवं सरकारों को संवेदनशील एवं अन्तर्दृष्टि-सम्पन्न बनना होगा। क्या हमें किसी चाणक्य के पैदा होने तक इन्तजार करना पड़ेगा, जो जड़ों में मठ्ठा डाल सके।...नहीं, अब तो प्रत्येक राजनीतिक मन को चाणक्य बनना होगा। तभी विकराल होती वायु प्रदूषण की समस्या से मुक्ति मिलेगी।

बीते हफ्ते की ही बात की जाए तो पंजाब में बुधवार को पराली जलाने की 398, गुरुवार को 589 और शुक्रवार को 766 घटनाएं दर्ज की गईं। वैसे सरकारें इसे कम करने का अपने ढंग से प्रयास कर रही हैं। पंजाब के मोगा समेत कई इलाकों में फायर फाइटर्स की टीमें तैनात की गई हैं जो पराली जलने की सूचना मिलते ही मौके पर पहुंच कर उसे रोकने का काम करती हैं। यूपी में कहा गया है कि पराली जलाते पाए जाने वाले किसानों को किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं का फायदा नहीं दिया जाएगा। लेकिन यहां भी मामला सख्ती के जरिए किसानों को पराली जलाने से रोकने का ही है, जबकि जरूरत उन्हें ऐसे बेहतर विकल्प मुहैया कराने के है जिससे वे खुद इससे मुंह मोड़ने लग जाएं। पराली से खाद बनाकर खेती में उपयोग करने या अन्य उपायों से थर्मल पावर प्लांट और अन्य उद्योगों में ईंधन के तौर पर पराली का इस्तेमाल बढ़ाने जैसे कई सुझावों पर चर्चा होती रही है, लेकिन साफ है वे विकल्प किसानों तक अभी पहुंचाएं नहीं जा सके हैं।

वायु की गुणवत्ता को बढ़ाने एवं प्रदूषण कम करने और दिल्ली सहित देश के अन्य महानगरों-नगरों को रहने लायक बनाने की जिम्मेदारी केवल सरकारों की नहीं है, बल्कि हम सबकी है। हालांकि लोगों को सिर्फ एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभानी है, एंटीडस्ट अभियान भी निरन्तर चलाया जाना चाहिए। लोगों को खुद भी पूरी सतर्कता बरतनी होगी। लोगों को खुली जगह में कूड़ा नहीं फेंकना चाहिए और न ही उसे जलाया जाए। वाहनों का प्रदूषण लेवल चैक करना चाहिए। कोशिश करें कि हम निजी वाहनों का इस्तेमाल कम से कम करें और सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करें। आम जनता की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाली पटाखे जलाने की भौतिकतावादी मानसिकता को भी विराम देना जरूरी है। क्योंकि पटाखे जलाने से न केवल बुजुर्गों बल्कि बच्चों के जीवन पर खतरनाक प्रभाव पड़ने और अनेक रोगों के पनपने की संभावनाएं हैं। प्रदूषण मुक्त पर्यावरण की वैश्विक अभिधारणा को मूर्त रूप देने के लिये इको फ्रेंडली दीपावली मनाने की दिशा में सार्थक पहल करनी होगी, एक सकारात्मक वातावरण बनाना होगा। पराली ही तरह पटाखों उत्पन्न प्रदूषण खतरनाक हैं। पराली-पटाखे आज एक राजनीतिक प्रदूषण बन चुका है। इस प्रदूषण से ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। क्षण-क्षण अग्नि-परीक्षा देता है। पर हां! अग्नि परीक्षा से कोई अपने शरीर पर फूस लपेट कर नहीं निकल सकता। दिल्ली एवं पंजाब में एक ही दल ही सरकारें है, दूसरों पर आरोप लगाने की बजाय क्यों नहीं आम आदमी पार्टी की सरकार समाधान देती।

  

पराली के प्रदूषण से ”दीपावली“ के गौरवपूर्ण सांस्कृतिक अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाने की बजाय पराली का स्थायी हल निकाला जाना चाहिए। पराली के प्रदूषण को पटाखों के प्रदूषण के नाम पर ढकने की कुचेष्टा से बचना चाहिए। ''दीपावली'' हमारी संस्कृति है, सभ्यता है, आपसी प्रेम है, इतिहास है, विरासत है और दीपों की कतारों का आश्चर्य है। पराली से दीपावली के आसपास होने वाले प्रदूषण को पटाखे का प्रदूषण कहना, अतिश्योक्तिपूर्ण विडम्बना एवं समस्या से मुंह फैरने की पलायनवादी मानसिकता है। वास्तव में यह सरकारों का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है, जिसने सबको जहरीले वायुमंडल में रहने को विवश किया है। सर्दियों के मौसम में हवा में घातक धातुएं होती हैं, जिससे सांस लेने में दिक्कत आती है। हवा में कैडमियम और आर्सेनिक की मात्रा में वृद्धि से कैंसर, गुर्दे की समस्या और उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोगों का खतरा बढ़ जाता है। इसमें पराली के प्रदूषण से घातकता कई गुणा बढ़ जाती है। पटाखों का प्रदूषण उससे भी घातक है। 300 से अधिक एक्यूआई वाले शहरों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहने वाले सांस के रूप में जहर खींचने को क्यों विवश है, इसके कारणों पर इतनी बार चर्चा हो चुकी है कि उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं।

-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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