दंगाइयों पर कार्रवाई हुई तो सवाल पर सवाल, खुश होंगे वो जिन्होंने मचाया था बवाल !
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बीते दिसंबर माह में नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर लखनऊ में दंगा और आगजनी करने वालों से नुकसान की भरपाई के लिए जो सख्त कदम उठाए थे, उन्हें हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट से भी करारा झटका लगा है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार और न्यायपालिका के बीच दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई के तरीके को लेकर मतभेद बढ़ता जा रहा है। एक तरफ योगी सरकार उन अराजक तत्वों पर सख्त से सख्त कार्यवाही कर रही है जिन्होंने बीते दिसंबर माह में लखनऊ सहित पूरे प्रदेश में हिंसा और आगजनी का तांडव किया था जिसके चलते कई निर्दोष लोगों की मौत हो गई थी, वहीं दूसरी तरफ न्यायपालिका है जिसे दंगाइयों की निजता की चिंता सता रही है। कौन सही है ? कौन गलत ? इसको लेकर कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है। जहां तक आम लोगों की बात है तो उन्हें लगता है कि अराजक तत्वों के साथ कड़ाई से पेश आना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रदेश में जब कानून व्यवस्था बिगड़ती है तो न्यायपालिका प्रदेश सरकार को फटकार लगाती है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर यदि गौर किया जाये तो इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि पुलिस या जिला प्रशासन समय−समय पर तमाम समाचार पत्रों में कानून तोड़ने वालों के खिलाफ जो विज्ञापन नाम−पते के साथ छपवाती है वह भी गलत है।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बीते दिसंबर माह में नागरिकता संशोधन कानून के नाम पर लखनऊ में दंगा और आगजनी करने वालों से नुकसान की भरपाई के लिए जो सख्त कदम उठाए थे, उसे हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट से भी करारा झटका लगा है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। इसका मतलब यह हुआ कि लखनऊ जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा लगाए गए दंगाइयों के नाम पते और फोटोयुक्त होर्डिंग हटाना पड़ेगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इतना जरूर किया है कि मामला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच को भेज दिया है। वहां से ही अब योगी सरकार को कुछ राहत मिल सकती है। वर्ना तो योगी सरकार इस समय बैकफुट पर नजर आ रही है।
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बताते चलें कि लखनऊ में जगह−जगह सड़क किनारे दंगाइयों के बड़े−बड़े होर्डिंग लगाए जाने को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दंगाइयों की निजता का हनन मानते हुए यूपी सरकार से 16 मार्च तक पोस्टर हटाने को कहा था। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को योगी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, सुप्रीम कोर्ट की वेकेशन बेंच में जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस अनिरुद्ध बोस के सामने यूपी सरकार ने अर्जी दाखिल कर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट कई बार सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने के मामले में वसूली करने संबंधी आदेश दे चुका है। सरकार लोकतांत्रिक तरीके से धरना−प्रदर्शन के खिलाफ नहीं है, पर इसकी आड़ में सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए।
योगी सरकार के अधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि लखनऊ के कई चौराहों पर वसूली के लिए 57 आरोपितों के पोस्टर लगाए जाने की सुनवाई करते हुए 9 मार्च को हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा की बेंच ने राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए पोस्टर हटाने का आदेश दिया है। साथ ही लखनऊ के डीएम व पुलिस कमिश्नर से इस संबंध में 16 मार्च तक रिपोर्ट पेश करने को कहा था। कोर्ट ने कहा था कि 50 से अधिक लोगों की तस्वीरें और पर्सनल डेटा सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शित करना शर्मनाक है। सरकार ने कुछ लोगों की तस्वीरें सड़क किनारे पोस्टर पर देकर शक्ति का गलत प्रयोग किया है। जबकि हकीकत यह है कि यूपी पुलिस ने बकायदा वीडियो और सीसीटीवी खंगालने के बाद दंगाइयों की पहचान की थी, इसलिए इसमें गलती की गुंजाइश काफी कम है।
हाईकोर्ट की नाराजगी का आलम यह था कि लखनऊ में दंगाइयों की तस्वीरें बैनर पर लगाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न सिर्फ स्वतः संज्ञान लिया, बल्कि रविवार को छुट्टी वाले दिन भी इसकी सुनवाई की। इसके बाद सोमवार को राज्य सरकार को ये बैनर हटाने का आदेश जारी किया। यानी अदालत ने राज्य सरकार के एक कदम का विश्लेषण करके तुरत−फुरत न्याय कर दिया, जबकि यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार के रुख से कम से कम पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच गफलत की कोई स्थिति नहीं है। प्रदर्शनकारी जानते हैं कि जरा-सी हद लांघने पर सूबे की सरकार किसी भी हद तक चली जाएगी। नतीजा ये है कि राज्य में अमन कायम है। टकराव की स्थिति नहीं है और सबसे बड़ी बात किसी की जान नहीं जा रही है। जहां तक बात दंगाइयों के बैनर लगाने की है, ये सरासर गलत है। यदि किसी बेगुनाह का पोस्टर लगा है, तो उल्टे योगी सरकार से हर्जाना वसूला जाना चाहिए लेकिन अगर यदि कोई दंगा फैलाने का दोषी है तो उसकी सजा तो इस सार्वजनिक लानत−मलानत से ज्यादा बड़ी होनी चाहिए।
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बहरहाल, बात सुप्रीम कोर्ट की कि जाए तो न्यायमूर्ति यूयू ललित और अनिरुद्ध बोस की अवकाशकालीन पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार की याचिका पर सुनवाई की। शीर्ष अदालत की बेंच ने उत्तर प्रदेश सरकार से पूछा कि उन्हें आरोपियों का पोस्टर लगाने का अधिकार किस कानून के तहत मिला है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभी तक शायद ऐसा कोई कानून नहीं है, जिसके तहत उपद्रव के कथित आरोपियों की तस्वीरें होर्डिंग में लगाई जाएं। अब देखना होगा कि बड़ी बेंच इस मुद्दे पर क्या निर्णय लेती है।
-अजय कुमार
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