इतिहास के उन ओझल पन्नों की याद
यूरोपीय देशों की सभ्यता की इतिहासकार जब भी चर्चा करते हैं, ब्रिटिश और फ्रेंच समाज को सबसे ज्यादा सुसंस्कृत माना जाता है। लेकिन ब्रिटिश समाज कितना सभ्य था, इसे भारत में किए उसके दमन से समझा जा सकता है।
अगस्त का महीना हमारी आजादी के इतिहास को ही समेटे नहीं है, बल्कि इस महीने के साथ कई क्रांतियों का गौरवमयी इतिहास भी समाहित है। तारीख में उन घटनाओं को तवज्जो तो मिली है, लेकिन भावी इतिहास के संदर्भ में उनके असर को अहमियत नहीं दी गई है। बलिया, तामलुक और सतारा की क्रांतियों और वहां स्वाधीन भारत से पहले ही सुराजी या स्थानीय सरकार की स्थापनाओं ने भावी इतिहास पर कितना असर डाला, इस नजरिए से उन्हें नहीं देखा-समझा गया।
नौ अगस्त 1942 की सुबह मुंबई में कांग्रेस के पूरे शीर्ष नेतृत्व को गिरफ्तार कर लिया गया। कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में हिस्सा लेने के लिए आ रहे वालंटियर और कार्यकर्ताओं को या तो रास्तों के स्टेशनों पर ही उतार दिया गया या फिर गिरफ्तार कर लिया गया। इसके पहले की रात को कांग्रेस ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव स्वीकार कर चुकी थी। संदर्भ के लिए बता दें कि ’भारत छोड़ो’ का नारा कांग्रेस में सक्रिय समाजवादी धड़े के युवा नेता युसूफ मेहर अली ने दिया था। चूंकि आज की तरह उन दिनों संचार के माध्यम नहीं थे, लिहाजा गांधी, नेहरू, पटेल समेत तमाम कांग्रेसी शीर्ष नेतृत्व की गिरफ्तारी की खबरें देर से देश के सुदूरवर्ती इलाकों में पहुंचीं। जैसे-जैसे ये जानकारी पहुंची, इलाकों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ बढ़ता चला गया।
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यूरोपीय देशों की सभ्यता की इतिहासकार जब भी चर्चा करते हैं, ब्रिटिश और फ्रेंच समाज को सबसे ज्यादा सुसंस्कृत माना जाता है। लेकिन ब्रिटिश समाज कितना सभ्य था, इसे भारत में किए उसके दमन से समझा जा सकता है। दिलचस्प यह है कि बयालिस की क्रांति के दौरान ही दूसरा विश्व युद्ध जारी था। यूरोप में हिटल को नाजी बताकर ब्रिटिश सेनाएं उसके विरोध में युद्धरत थीं। तब जर्मन शासक हिटलर यूरोप की नजर में असभ्य था। हिटलर को असभ्य और अमानवीय बताने वाली ब्रिटिश सरकार भारत में उन्हीं दिनों हिटलर जैसा ही कहर ढा रही थी। इतिहास में बयालिस की क्रांति और अंग्रेजों के दमन को इस नजरिए से भी कभी व्याख्यायित नहीं किया गया।
बयालिस के आंदोलन के दौरान अंग्रेजों का दमनचक्र हर उस इलाके में पूरी क्रूरता के साथ चला, जहां के लोगों ने सुराज के लिए आवाज बुलंद की। बलिया को कुछ ज्यादा ही दमनचक्र से गुजरना पड़ा। इसकी वजह यह रही कि बलिया ने खुद को आजाद घोषित कर दिया। 18 अगस्त को बैरिया, रसड़ा, सुखपुरा आदि जगहों पर हुई अंधाधुंध गोलीबारी और उसमें नौजवानों और छात्रों के बलिदान से बलिया का खून खौल उठा। तकरीबन करीब दस लाख की आबादी सड़कों पर उतर आई। रेलवे लाइनें उखाड़ डाली गईं, थाने और तहसील लूट लिए गए। दिलचस्प यह है कि तब बलिया के कलेक्टर कोई अंग्रेज नहीं, भारतीय जगदीश्वर चंद्र निगम थे। लोगों का गुस्सा इतना बढ़ा कि निगम को हारकर बलिया जेल में बंद कांग्रेस के जिला अध्यक्ष चित्तू पांडेय को छोड़ना पड़ा। 19 अगस्त के दिन बलिया ने खुद को आजाद घोषित कर दिया और चित्तू पांडेय उस सरकार के मुखिया बने, जबकि क्रांतिकारी महानंद मिश्र पुलिस प्रमुख। इस आजादी के बाद जिस व्यवस्था ने पांच-छह दिनों तक व्यवस्था चलाई, उसे ‘सुराजी सरकार’ नाम दिया गया था।
बलिया के साथ मिदिनापुर के तामलुक और महाराष्ट्र के सतारा में भी ऐसी ही देसी सरकारें बनीं। तीनों जगह पांच से लेकर हफ्तेभर में अंग्रेजी हुकूमत ने कब्जा कर लिया और उसके बाद जो दमन चक्र चला, सिहरन के साथ उसे याद करने वाली पीढ़ी भी अपनी उम्र पूरी करके दुनिया को विदा कह चुकी है। इसके बावजूद वह दमन बलिया के लोगों के रगों में आज भी दौड़ रहा है।
ब्रिटिश 23 अगस्त की रात में संयुक्त प्रांत के ब्रिटिश गवर्नर हैलेट ने बनारस के कमिश्नर नेदर सोल को बलिया का प्रभारी जिलाधिकारी बना कर बलूच फौज के साथ भेजा..इसी दिन दोपहर में बक्सर की ओर से जलमार्ग से मार्क स्मिथ और 24 अगस्त की सुबह आजमगढ की ओर से कैप्टन मूर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज बलिया पहुंची और फिर वह बलिया में हिटलर की नाजी सेना बन गई। दमन के आगे निहत्थी जनता कितने दिन तक टिकती। बलिया का सत्ताहस्तांतरण खारिज करके उस पर ब्रिटेन का कब्जा कर लिया गया। हैलट ने ब्रिटिश भारत के सचिव को अगस्त 42 के आखिर में बलिया पर कब्जे का टेलीग्राम भेजा और बीबीसी ने इस पर खबर प्रसारित की।
बलिया की आजादी और हिंसा को लेकर सवाल भी उठाए गए। जाहिर है कि सवाल उठाने वाले ब्रिटिश सभ्यता पोषक ही थे। लेकिन अहिंसा के पुजारी गांधी ने उन सवालों को खारिज कर दिया था। उन्होंने बलिया की घटनाओं के लिए ब्रिटिश सरकार के दमन और अत्याचार को ही जिम्मेदार बताया था। अहमदनगर जेल से छूटते ही बलिया को लेकर जवाहर लाल नेहरू ने जो कहा था, वह भी अहम है। उन्होंने कहा था कि उस हालात में वे भी ऐसा ही करते, जैसा बलिया वालों ने किया।
इस घटना के दो दशक पहले असहयोग आंदोलन के दौरान भी बलिया पर ब्रिटिश सरकार के अत्याचार झेलने पड़े थे। गांधी जी को इसकी रिपोर्ट उनके सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी ने भेजी थी, जिसके आधार पर गुजराती नवजीवन में गांधी जी ने बलिया पर लेख लिखा था। पूरी दुनिया बलिया को अक्खड़ बताती है, लेकिन इस लेख में गांधी जी बलिया वालों को सज्जन बताते हैं। 1925 में बलिया पहुंचे जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि वे बलिया की सरजमीं को चूम लेना चाहते हैं।
इतिहास को बदलने में इन घटनाओं की अहम भूमिका रही है। इनके चलते आंदोलनकारी इलाकों ने इतिहास ही नहीं, बाद के दौर में भी कीमत चुकाई है। यह कीमत कभी पिछड़ापन के रूप में दिखती है तो कभी मूल्यांकन की कमी के रूप में। इतिहास की खासियत है कि वह नए संदर्भों में फिर से नए सिरे से उठ खड़ा होता है। यह इतिहास उठ रहा है और अपना हक मांग रहा है।
- उमेश चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार
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