राम के राज्य में राजनीति स्वार्थ से प्रेरित ना होकर प्रजा की भलाई के लिए थी
राम की संस्कृति जब—जब एक सम्पूर्ण और एकात्म राष्ट्र की अस्मिता बनकर उभरने लगती है, अराष्ट्रीय तत्व विक्षिप्त और बेचैन होने लगते हैं। लोकतंत्र के वोट तत्त्व की विवशता राष्ट्रीय परिवार, उसकी भूमि और भावना को आत्मघाती रूप दिया जाने लगता है।
श्रीराम केवल एक महापुरुष, केवल एक दैवी शक्ति संपन्न राजा या भगवान नहीं थे। श्रीराम का जीवन और चरित्र भारत राष्ट्र की जीवन चरित्र है। महाकवि कालिदास ने उनके व्यक्तित्व की तुलना हिमालय और सागर के साथ एक साथ करके यह बता दिया है कि राम व्यक्ति नहीं राष्ट्र हैं। भारत और उसकी सनातन परम्परा के लिए राम ही राष्ट्र हैं और राष्ट्र ही राम है। भारत के कण-कण में राम समाविष्ट हैं। भारत के चरित्र ही नहीं भारत के अस्तित्व के आधार राम हैं।
श्रीराम का अर्थ है मर्यादा। राम राज्य की स्थापना का अर्थ है मर्यादा की स्थापना। बहुत सोच-समझ कर बनाए गए हमारे संविधान में विविध प्रावधान होने पर भी, पारदेशीय संस्कृति और समाज के प्रभाव के कारण विविध प्रकार की विसंगतियां हमारे समाज में आज भी विद्यमान हैं। कर्त्तव्य विस्मृत करके केवल अधिकार की लड़ाई ने समाज में अविश्वास और घृणा का वातावरण पैदा कर दिया है। श्रीराम की मर्यादा का अर्थ है कर्त्तव्य का सर्वाेपरि होना। कर्त्तव्य सर्वाेपरि हो तो अधिकार, उत्तरदायित्वपूर्ण अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है।
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रामराज्य शासन की आदर्श संकल्पना है। एक ऐसी राज व्यवस्था जहां न कोई दुखी हो और न ही अभावों से ग्रस्त हो। जहां जन-जन भय मुक्त हो और चर्तुदिक शांति हो। जहां का शासन सभी के लिए मंगलकारी हो। राम इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए, क्योंकि उन्होंने हर हाल में मर्यादा की रक्षा की और स्थापित किया कि सत्यनिष्ठ, कर्मनिष्ठ और धर्मनिष्ठ आचरण ही मर्यादा है तथा उससे सभी बंधे हैं। वह हर रूप में मर्यादा के प्रतीक हैं।
राम के राज्य में राजनीति स्वार्थ से प्रेरित ना होकर प्रजा की भलाई के लिए थी। इसमें अधिनायकवाद की छाया मात्र भी नहीं थी। राम का राज्य मानव कल्याण के आदर्शों से युक्त एक ऐसा राज्य था जिसमें निस्वार्थ प्रजा की सेवा निष्पक्ष आदर्श न्याय व्यवस्था सुखी तथा समृद्ध शादी समाज व्यवस्था पाई जाती थी। राम इस सीमा तक लोकतांत्रिक हैं कि एक अवसर पर कहते हैं-यदि अनुमति हो तो कुछ कहूं और यदि मेरे कहे में कुछ अनुचित देखें तो मुझे टोक दें, मैं सुधार कर लूंगा। वह अपने राज्य में रहने वाले किसी भी व्यक्ति की राय के आधार पर फैसला लेने में हिचकते नहीं। श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन चरित ऐसी मर्यादाओं, कर्तव्य पालन और सभी के अधिकारों के प्रति सम्मान का पर्याय है। मानव सभ्यता के सम्पूर्ण लिखित-अलिखित इतिहास में श्रीराम जैसा व्यक्तित्व और चरित्र का दूसरा उदाहरण उपलब्ध नहीं है।
राम को धर्म का विग्रह कहा गया है, ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’. एक व्यापक अर्थ में राम का चरित धर्म मार्ग की चुनौतियों और उसके विचलन से उठने की मुश्किलों अर्थात जीवन के आधारों की मर्यादा स्थापित करने की राह में आने वाले प्रश्नों से रूबरू कराता है। गांव का अनपढ़ भी इनसे शिक्षित होता है और एक तरह के विवेक के भाव की अनुभूति करता है। श्रीराम मानव शरीर धारण करने पर जीवन के कठोर सत्य की कसौटी पर वे हमेशा ही कसे जाते हैं। किशोरावस्था से ही उनके सामने जो चुनौतियों की श्रृंखला शुरू होती है उसका जीवन में कभी अंत नहीं हुआ पर सारे कष्टों के बीच वे अविचल भाव से स्थित रहे। विकट परिस्थितियों में भी वे अपने पूरे परिवेश के साथ अनुकूलित रहते थे। उनके लिए आस-पास का कोई भी प्राणी ‘अन्य’ नहीं रहा, सभी अनन्य हो गए थे। वे गिरिजन, वनचारी और वानर सभी के हित के लिए जुटे रहे। करुणा और पर-दुखकातरता की भावना से ओत-प्रोत श्रीराम ने उन सबसे से प्रेम तथा सौहार्द का रिश्ता बनाया और निभाया।
सबको साथ लेकर चलने के मामले में राम अद्वितीय हैं। वनवासियों समेत समाज के सभी वंचित-शोषित वर्गों को आदर देना उनका स्वभाव है। उनमें आत्मविश्वास पैदा कर उनके सहयोग को वह अपनी शक्ति बना लेते हैं। साधारण जन समुदाय में समुद्र पार जाने का साहस जगाकर और परम पराक्रमी रावण की दिग्विजयी सेना को परास्त कर राम ने स्थापित किया कि केवल सैन्य बल शौर्य का परिचायक नहीं होता। वह अपने शौर्य के बल पर हर चुनौती पर विजय पा लेते हैं।
भारतीय जन मानस के समक्ष जीवन का जो आदर्श उन्होंने राजा के रूप में तथा आज्ञाकारी पुत्र के रूप में सबके सामने रखा तथा सबके प्रति स्नेह, करुणा और सेवा का भाव रखा, वह संपूर्ण भारतीय समाज तथा मानव जाति के लिए अनुकरणीय है। प्रख्यात समाजवादी नेता एवं चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया लिखते हैं- ‘राम की सबसे बड़ी महिमा उनके उस नाम से मालूम होती है जिसमें कि उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कह कर पुकारा जाता है। राम मर्यादा पुरुष थे। ऐसा रहना उन्होंने जानबूझ कर और चेतन रूप से चुना था। आज जब दुनिया भर में हड़पने और विस्तार की महत्वाकांक्षा सिर उठाए खड़ी है तो राम की मर्यादा को याद करना जरूरी हो जाता है। राम का जीवन बिना हड़पे हुए फैलने की एक कहानी है। उनका निर्वासन देश को एक शक्ति केंद्र के अंदर बांधने का मौका था। श्रीराम ने अयोध्या से लंका तक की अपनी यात्रा में कभी अतिक्रमण नहीं किया, वे दायरे से बाहर नहीं गए। जब पहली बार उन्हें वानर नरेश बालि के साम्राज्य पर अधिकार करने का मौका मिला था, वे चाहते तो बालि के भाई सुग्रीव का साथ देने के बहाने उसका साम्राज्य हड़प सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया है। यह एक विशाल हृदय राजकुमार की मर्यादा थी। यह नीतिशास्त्र की मर्यादा थी और राजनीति की भी।’
राम की संस्कृति जब—जब एक सम्पूर्ण और एकात्म राष्ट्र की अस्मिता बनकर उभरने लगती है, अराष्ट्रीय तत्व विक्षिप्त और बेचैन होने लगते हैं। लोकतंत्र के वोट तत्त्व की विवशता राष्ट्रीय परिवार, उसकी भूमि और भावना को आत्मघाती रूप दिया जाने लगता है। ऐसा एक बार नहीं अनेक बार हुआ है। देशवासियों ने अब अपने टूटे प्रण के टुकड़ों को जोड़कर प्राणों का कवच बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी है। श्रीराम प्रभु इस राष्ट्र की प्राणवायु हैं। इस राष्ट्र की हजारों वर्ष की जीवन यात्रा में अनेक राज्य बने और मिटे। अनेक राजा आए और गए। श्रीराम के आविर्भाव के पूर्व भी यह हुआ था जिसने भूत और वर्तमान को जोड़ रखा है।
मनु और इक्ष्वाकु से लेकर नरेंद्र मोदी तक की सत्ता परम्परा में श्रीराम का ही एकमात्र ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें यहां के समस्त राष्ट्रजन अपने राष्ट्र का त्रिकाल दर्शन करते हैं। शेष सभी ऐसे हैं जिसमें किसी में दल दिखाई देता है तो किसी में जाति। किसी में वंश बिम्ब है, तो किसी में सत्ता स्वार्थ की शरारत। राम की लोकरंजकता भारत के लोकतंत्र के आधुनिक संस्करण में पूर्णतः अनुपस्थित है। जीवन मूल्य राजनीतिक विवशता के बंदी हैं। राष्ट्रीय अस्मिता चुनावों के हार जीत की आश्रित है। वह विधायिका के पक्ष विपक्ष की संख्या की कसौटी पर कसी जाती है।
राम मानवता की चरम अभिव्यक्ति हैं, जिसमें दुःख-सुख, लोक-लाज, हानि-लाभ, जय-पराजय, ऊंच-नीच, नीति-धर्म सभी कुछ समाहित है। महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं कि राम, धर्म अर्थात् जो कुछ एक मानव के लिए धारण करने योग्य है, उसके मूर्तिमान रूप हैं। उन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिपादित कर एक सांस्कृतिक आधार प्रदान किया। राष्ट्र का केन्द्र राजा होता है। वह प्रजा का हित चिंतक और राष्ट्र का उन्नायक होता है। वह धर्म तथा सत्य का उद्गम स्थल है। मनुष्य के जीवन में आने वाली सभी संबंधों को पूर्ण एवं उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा देने वाला प्रभु रामचंद्र के चरित्र के समान दूसरा कोई चरित्र नहीं है।
वर्तमान समय में राम नीति की अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि पूरा विश्व घोर आपसी वैमनस्य और आर्थिक संकट से जूझ रहा है। राजा की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए या वर्तमान समय में जो पूरे विश्व में जिस प्रकार से शासन प्रणाली है, उसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है, चाहे वह अमेरिका हो या चीन या ग्रेट ब्रिटेन ही क्यों ना हो क्योंकि इन्हीं देशों का अनुसरण लगभग सभी देश अपने शासन सत्ता को चलाने के लिए करते हैं। शासन सत्ता के बल मत्स्य न्याय के आधार पर नहीं चलती चलती है। हमारे देश का अप्रतिम शासन सत्ता का मानक रामराज्य ही है जिसकी नींव त्याग है।
भारतीय जनमानस में राम गहरे-बहुत गहरे समाए आराध्य ही नहीं, हर रूप में सामने आने वाले आदर्श व्यक्ति भी हैं। वह जन-जन के ऐसे प्रेरणा पुरुष हैं जिन्होंने कर्तव्य निर्वहन का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व और समस्त मानवता के लिए अनुकरणीय है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने कर्तव्य पालन की जो सीख दी वह आज भी राह दिखाती है। इस सीख से यह राष्ट्र हर दिन-हर क्षण प्रेरित होता है और इसलिए वह उनकी जन्मस्थली पर उनके नाम के मंदिर की स्थापना को लेकर पुलकित है।
- डॉ. आशीष वशिष्ठ
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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