कोरोना संकट ने पूरी दुनिया को जीवनशैली बदलने पर मजबूर कर दिया है
वास्तव में मृत्यु की कल्पना हमें जीवन की गहराइयों में ले जाती है। हमें पता चलता है कि जो सांसें हमें मिली हैं, उनमें से एक भी सांस को व्यर्थ नहीं खोना है। निर्विकार रहकर एक-एक सांस का उपयोग करना है। अपनी ‘चदरिया’ पर दाग नहीं लगने देना है।
मानव जीवन भौतिक, आर्थिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर बार-बार और आसानी से चोट खाते हुए भी सबक नहीं ले रहा है। उन्नत विज्ञान और तकनीक इन चोटों से हमें बचाने में असमर्थ है। कोरोना महासंकट को झेलते हुए भी इंसान जीवन की इस यथार्थता को समझ नहीं पा रहा है। यही कारण है कि संसार की मोह-माया, सत्ता एवं स्वार्थ के लुभावने इन्द्रजाल में फंसकर अपने सारे क्रिया-कलाप इस प्रकार करता जा रहा हैं, मानो अमरौती खाकर आये हों, अजर-अमर होने का वरदान लेकर आये हों। यदि उन्हें इस बात का ध्यान रहे कि जिन्दगी जटिल से जटिलतर होती जा रही है, मृत्यु प्रतिपल सम्मुख खड़ी है, जीवन किसी भी क्षण विकराल बन सकता है तो अपने कृत्यों एवं कारनामों पर सोचना चाहिए। इसी कोरोना महामारी ने मनुष्य और प्रकृति के बिगड़े संबंधों की ओर फिर ध्यान दिलाया है, मानव से दानव बन रही दुनिया की शक्ल को प्रस्तुति दी है। गत चार सौ वर्ष की महामारियों, महायुद्धों और हालिया दशकों में अंतहीन जिहादी एवं आतंकवादी हमलों ने भी यही दिखाया है। तब एक स्वस्थ, शालीन और सद्भावपूर्ण जीवन के लिए मानवता को क्या करना चाहिए? इस पर विचार करने की जरूरत है। लेकिन सुविधावाद में आदमी आदमी से बिछुड़ गया है। वह जमाना अब स्वप्न की चीज हो गया है, जब हमारी संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एवं सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामय का घोष ही नहीं करती थी, उस पर अमल भी करती थी। आज भारत की उसी जीवनशैली को जन-जन की जीवनशैली बनाना होगा।
कोरोना महामारी एक तात्कालिक, वास्तविक और विराट त्रासदी है, एक महाप्रकोप है, जो हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना महामारी जल्द खत्म होने वाली नहीं है। भले ही हमने अतीत में श्रेष्ठ जीवन जिया और तमाम तरह की उन्नतियां हासिल कीं। भले ही हम मानव इतिहास के सर्वश्रेष्ठ युग के साक्षी बने हैं, लेकिन एक बड़ा सत्य यह भी सामने खड़ा है कि एक कोरोना वायरस के सामने हम निरूपाय हैं, हमारा विज्ञान एवं हमारी तकनीक भी असहाय है। तकनीक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियां हर दृष्टि से जीवन को श्रेष्ठ नहीं बना सकतीं। हमें प्रकृति के नियमों का सम्मान करना ही होगा, प्रकृति के दोहन को रोकना ही होगा। मानवता पर जब-जब संकट आया, तब-तब इसके समाधान के लिए दुनिया को भारत की ज्ञान-परंपरा एवं समृद्ध संस्कृति ने रोशनी दिखायी है।
वास्तव में मृत्यु की कल्पना हमें जीवन की गहराइयों में ले जाती है। हमें पता चलता है कि जो सांसें हमें मिली हैं, उनमें से एक भी सांस को व्यर्थ नहीं खोना है। निर्विकार रहकर एक-एक सांस का उपयोग करना है। अपनी ‘चदरिया’ पर दाग नहीं लगने देना है। उसे ज्यों का त्यों उतार कर रख देना है। लेकिन हमारी चदरिया तो दागों से लहूलुहान है। हम देवालय जाते हैं। प्रभु की मूर्ति के आगे क्षण भर के लिए हमारे मन की मलिनता दूर हो जाती है। हमारे विचार पवित्र हो जाते हैं। मैल का आवरण हट जाने पर आत्मा की ज्योति चमकने लगती है। यह तब होता है, जबकि हमारा मुंह प्रभु की ओर होता है, और पीठ दुनिया की ओर। लेकिन जैसे ही हम देवालय से बाहर आते हैं, हमारे मुंह दुनिया की ओर हो जाता है, उद्योगपति उद्योग में, किसान खेती-बाड़ी में, राजनेता राजनीति में, मजदूर मजदूरी में, लेकिन जीवन के अंत में वे पाते हैं कि उनके हाथ कुछ लगा नहीं।
भारत का योग, आयुर्वेद, खानपान, साहित्य, परंपरा, ज्ञान और अनुभव उपयोगी हैं, जिस तरह हजारों वर्ष पहले जीवनोपयोगी थे। वे अभी तक संग्रहालय की चीज नहीं बने है। आज भी भारत एक मायने में उसी कालखंड का गौरवशाली जीवन अपनी जीवनचर्या में शामिल किए हुए है। ऐसा विश्व की किसी अन्य सभ्यता में नहीं है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति, जीवनदर्शन शाश्वत है, त्रैकालिक, सार्वजनीन, सार्वदैशिक है। इसका संपर्क संपूर्ण अस्तित्व और वृहतर चेतना से रहा है। उपनिषद, जैन आगम इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उनमें मौजूद सत्य एवं तथ्य देश, काल या समाज की सीमाओं से परे सार्वभौमिक प्रतीत होते हैं। उसी की सरल प्रस्तुति गीता में है। मन का तनाव बढ़ जाता है। इस तनाव को दूर करने के लिए गीता में ‘आहार-विहारस्य’ का मार्ग बताया गया है, अर्थात् हमें सात्विक भोजन करना चाहिए और पूरी निद्रा लेनी चाहिए। तामसिक भोजन मनुष्य की वृत्तियों को उत्तेजित करता है और निद्रा का पूरा न होना मन को बेचैन करता है। भोजन का संयम न हो तो शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता। भारत आदि काल से विश्व सभ्यता के लिए एक ज्ञान-स्रोत है। लेकिन विडम्बना है कि हम स्वयं ही अपने इस अखूट खजाने को नकार रहे हैं उसकी शक्ति को झुठलाकर आपाधापी में उलझे हैं। यह हमारी जिंदगी की एक ऐसी सच्चाई है, जिसे जानकर भी हम नहीं जानते, जिसे समझ कर भी हम नहीं समझते। अंग्रेजी के विख्यात कवि वर्ड्सवर्थ ने अपनी एक कविता में बड़े पते की बात कही है: ‘‘हम दुनिया में इतने डूबे हुए हैं कि प्रकृति से कुछ भी ग्रहण नहीं करते, उस प्रकृति से, जो हमारी अपनी है। निन्यानबे के फेर में, दुनिया के लेन-देन में अपनी सारी जिंदगी गुजार देते हैं।’
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संसार में जो धन-जन आदि पदार्थ हैं, उन सबको पाश-रूप जानकर इंसान को बड़ी सावधानी से, फूंक-फूंककर, पैर रखना चाहिए। जब तक शरीर सशक्त है तब तक उसका उपयोग अधिक-से-अधिक संयम-सादगी एवं अनुशासन से करना चाहिए। सूचनाओं का भंडार दिमाग में भर लेने से जीवन व्यस्त ही नहीं, अस्तव्यस्त हो रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी की उपयोगिता के साथ इस सत्य के प्रति भी सजग होना आवश्यक है कि हमारे संपूर्ण कर्मों का सामंजस्य प्रकृति और मूल सत्ता के साथ होना चाहिए। मनुष्य का स्वास्थ्य भी इस सामंजस्य पर निर्भर है। योग और आयुर्वेद हमारी आंतरिक ऊर्जा को संतुलित करते हैं। रोगों से बचने, लड़ने में शक्ति देते हैं, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं। दुनिया के शक्तिशाली कहे जाने वाले राष्ट्र के लोगों की सहज रोग-निवारक क्षमता यानी इम्यूनिटी कम हुई है। जबकि शरीर की सुदृढ़ता के लिए आसन एवं दीर्घायु के लिए प्राणायाम को वैज्ञानिक ढंग से ऋषियों ने अनुभव के आधार पर दिया है। प्राणायाम, कायोत्सर्ग, अनुप्रेक्षाएं करने वाले इंसान कोरोना वायरस के गहरे अटैक से मुक्त रहेंगे या उससे बचकर निकल आएंगे। ध्यान-पद्धति कोई भी हो, लेकिन कोरोना महासंकट-निवारण के लिए आत्म-शोधन अत्यावश्यक है। जिस घट में विष भरा हो, उसमें कितना भी अमृत डालिए वह विषाक्त हुए बिना नहीं रहेगा। गंगा का उद्गम गोमुख पवित्र है तो उससे जो जलधारा प्रवाहित होती है, वह भी पवित्र ही होती है। उसके जल को कितने भी दिन रख लीजिए, कभी दूषित नहीं होगा। यही बात मानव के शरीर, मन और बुद्धि के साथ है। इनके शुद्ध हुए बिना कोरोना महाव्याधि दूर करने और निरोगी एवं संकटमुक्त जीवन को पाने के उपाय कभी सफल नहीं होंगे। इसी से कहा गया है कि मन, वचन और काय का मैल जब तक दूर नहीं होगा, जीवन के उत्कर्ष का स्वप्न दिवा-स्वप्न बना रहेगा।
आत्म-शोधन के बिना आत्म-नियंत्रण संभव नहीं हो सकता है। एक दार्शनिक का कथन है ‘‘आदत को बदलने के लिए, स्वभाव को बदलने के लिए, कर्तव्य के पूरे रूप को बदलने के लिए, आत्म-शोधन आवश्यक है। यह कोरा दिशान्तरण नहीं है। मार्गान्तरीकरण नहीं है, वरन् समस्त रूपान्तरीकरण है। मनोविज्ञान का मार्गान्तरीकरण एक मौलिक वृत्ति के मार्ग को बदलने की प्रक्रिया है, उसको दूसरी दिशा में ले जाने की पद्धति है। शाकाहार को अपनाने वाले एवं सात्विक जीवनशैली जीने वालों के लिये भी कोरोना संकट से बाहर आना अन्यों की तुलना में ज्यादा आसान है। इस तरह की जीवनशैली मानवता में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करती। जो चाहे इसकी अनूठी शक्ति आजमा सकते हैं। छूत के रोग रोकने के लिए वैक्सीन जरूरी है, किंतु संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए संतुलित जीवन, संतुलित आहार-व्यवहार, अच्छी आदतें, सकारात्मक सोच व प्रकृति में स्थित मूल प्राण से स्वयं को जोड़ना आवश्यक है।
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लोगों का जीवन स्वस्थ हो, इसी से कोरोना कहर को रोका जा सकता है। इसके लिये भारतीय जीवनशैली कोरोना बाद के युग में एक मूल्यवान सबक हो सकता है, निरामय जीवनशैली का आधार हो सकता है। हमें अपने आंतरिक और बाह्य पर्यावरण के बीच संतुलन पुनः बनाना होगा, जो सदियों से बहुत से समाजों में टूटा हुआ सा रहा है। वर्तमान समय में इस समूची दुनिया को, हमारी मानवता को एक नई जीवनशैली, भारतीय मूल्यों वाली सभ्यता-संस्कृति की आवश्यकता है। योग, आयुर्वेद एवं भारतीय जीवनमूल्यों को निजता से सार्वभौमिकता, सार्वदेशिकता या समग्रता की ओर ले चलना होगा। कोरोना रूपी मृत्यु या संकट से अधिकांश व्यक्ति अत्यंत भयभीत हैं। वे भूले हुए हैं कि मृत्यु शत्रु नहीं, परम मित्र है। वह हमारे सिर पर बंधी एक घंटी है, जो हर घड़ी चेतावनी दे रही है- सावधान रहो। एक-एक क्षण का उपयोग उस साधना में करो, जो मानव-जीवन को कृतार्थ करे, कोरोना मुक्ति की दिशा में अग्रसर करे। वह यह भी कहती है कि इस धरा पर मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और उसे जो जीवन मिला है, वह दुर्लभ है और वह कोरोना जैसे अनेक संकटों से पार पाने में सक्षम है।
-ललित गर्ग
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