भाजपा भले किसी को धोखा देती नहीं हो लेकिन उसे ही सबसे ज्यादा धोखे क्यों मिलते हैं?
देखा जाये तो इस बार नीतीश कुमार ने अपने रुख में परिवर्तन कर अपनी खुद की विश्वसनीयता गिरायी है। नेता दल बदल या गठबंधन बदल करें इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन यदि नेता सिर्फ गठबंधन बदल पर ही ध्यान देता रहे तो इससे उसकी साख घटती है।
2020 के बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता से वोट मांगते हुए कहा था कि मुझे बिहार में नीतीश कुमार की जरूरत है। इसलिए जनता दल युनाइटेड की कम सीटें आने के बावजूद भाजपा ने प्रधानमंत्री की बात का मान रखते हुए मुख्यमंत्री पद नीतीश कुमार को सौंप दिया था। लेकिन दो साल के भीतर ही जनता दल युनाइटेड के नेता नीतीश कुमार ने अपने रुख में परिवर्तन करते हुए भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ दिया। देखा जाये तो 2020 का जनादेश एनडीए सरकार के लिए था और भाजपा की 74 सीटों की संख्या दर्शा रही थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही वोट पड़ा था। यही नहीं, भाजपा कई बार ऐलान कर चुकी थी कि जनता दल युनाइटेड के साथ उसका गठबंधन 2024 के लोकसभा चुनाव और 2025 के विधानसभा चुनावों में भी बरकरार रहेगा लेकिन नीतीश कुमार ने इस गठबंधन को चलने नहीं दिया।
देखा जाये तो इस बार नीतीश कुमार ने अपने रुख में परिवर्तन कर अपनी खुद की विश्वसनीयता गिरायी है। नेता दल बदल या गठबंधन बदल करें इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन यदि नेता सिर्फ गठबंधन बदल पर ही ध्यान देता रहे तो इससे उसकी साख घटती है। नीतीश कुमार को सोचना होगा कि क्या उनके गठबंधन सहयोगी बदल लेने भर से बिहार की किस्मत बदल जायेगी? बिहार में हाल में बदले माहौल के चलते जो निवेश आ रहा था यदि वह बाधित हुआ तो बिहार और पीछे चला जायेगा। नीतीश कुमार को इस सवाल का जवाब भी देना ही चाहिए कि जिनको कुशासन का प्रतीक बताकर उन्होंने अपनी छवि सुशासन बाबू की गढ़ी थी, आखिर वह उन्हीं कथित कुशासन के प्रतीकों के साथ क्यों खड़े हो गये? नीतीश कुमार अब भले राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं के गुणगान गायें लेकिन उन्हें यह पता होना चाहिए कि अबकी बार राजद के नेता भी उनसे सतर्क ही रहेंगे कि कहीं फिर से सुशासन बाबू का मूड ना बदल जाये!
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दूसरी ओर, भारतीय राजनीति में भाजपा के नाम इस बात का रिकॉर्ड रहेगा कि उसने भले अब तक किसी को धोखा नहीं दिया हो लेकिन उसे सर्वाधिक धोखे मिले जरूर हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा के बीच आधे-आधे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री पद संभालने का समझौता हुआ था। भाजपा ने पहला मौका मायावती को दिया लेकिन मायावती ने अपनी बारी पूरी होने पर भाजपा नेता कल्याण सिंह की सरकार नहीं चलने दी। कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर के साथ भाजपा ने मुख्यमंत्री पद बारी-बारी से संभालने का समझौता किया लेकिन एचडी कुमारस्वामी ने अपनी बारी पूरी करने के बाद भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा की सरकार बीच में ही गिरा दी। भाजपा ने झारखंड में शिबू सोरेन के झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई लेकिन सोरेन ने बीच में ही समर्थन वापस लेकर अर्जुन मुंडा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार गिरा दी थी। यही नहीं महाराष्ट्र में 2019 के विधानसभा चुनावों में जनादेश भाजपा-शिवसेना गठबंधन के पक्ष में था लेकिन शिवसेना ने कांग्रेस और राकांपा का समर्थन लेकर अपने नेतृत्व में सरकार बना ली थी। इसके अलावा भी कई ऐसे छोटे-बड़े मामले मिल जाएंगे जब भगवा दल को सहयोगी दल से मिले धोखे का सामना करना पड़ा।
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बहरहाल, यह भी एक रिकॉर्ड है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को छोड़ने वाले दल अन्य गठबंधनों में जाकर कुछ खास हासिल नहीं कर पाये। शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना, आरएलएसपी के ताजा उदाहरण तो सामने हैं ही साथ ही उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर का उदाहरण भी मौजूद है। नेताओं को यह समझना होगा कि आज के दौर में जनता को बरगलाया नहीं जा सकता क्योंकि अब वह नेता को उसके द्वारा किये गये काम के आधार पर ही वोट देती है। अब वह समय गया जब किसी अन्य के बारे में भ्रम फैलाकर या उसका डर दिखाकर वोट हासिल कर लिया जाता था।
-नीरज कुमार दुबे
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