धर्म के प्रति निरपेक्षता से बढ़ते अधर्म को आखिर रोकेगा कौन?

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कमलेश पांडे । Dec 24 2024 4:32PM

अब जरा सोचिए, भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन यदि वह प्राणी बद्ध/मानव बद्ध पर उदासीन रहता है, कुतर्क करता है तो इसका दोषी सरकार नहीं है तो कौन है? क्योंकि जनता को भी तो जागरूक करना उसी का कार्य है।

धर्म और अधर्म के बीच मौजूद सूक्ष्म विभाजन को स्पष्ट करते हुए लोक रचयिता गोस्वामी तुलसीदास महाकाव्य रामचरित मानस में लिखते हैं कि 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।' यानी कि दूसरों का हित सोचना-करना ही धर्म है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना ही अधर्म है। जहां तक भारत और उसकी धर्मनिरपेक्षता का सवाल है तो खुद आरएसएस और उसका राजनीतिक संगठन भाजपा (जनसंघ का परिवर्तित स्वरूप) इस पर सवाल उठाते हुए तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस और समाजवादी दलों की सरकारों पर तुष्टिकरण के आरोप मढ़ती आई है। 

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इससे स्पष्ट है कि धर्म के प्रति बढ़ती निरपेक्षता से बढ़ते अधर्म को आखिर कौन रोकेगा, यह यक्ष प्रश्न है और इस नीतिगत सवाल पर आरएसएस को ढुलमुल नहीं, बल्कि स्पष्ट रवैया अपनाना चाहिए। चूंकि वह विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक संगठन है, दुनिया के सबसे पुराने धर्म सनातन धर्म के आधार पर जीवन पद्धति को विकसित करने और प्राणी मात्र की रक्षा करने का वह पक्षधर रहा है, इसलिए उसके रवैए से देश सहित विश्व का जनमत प्रभावित होता है। क्योंकि वह अमूमन तार्किक और लोकहितैषी बातें करता आया है। उसकी शाखाओं की दिनचर्या समाज के लिए भी सेहतमंद साबित होती आई हैं। भाजपा को इस मुकाम तक पहुंचाने में उसकी मेंटर की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।

अब जरा सोचिए, भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन यदि वह प्राणी बद्ध/मानव बद्ध पर उदासीन रहता है, कुतर्क करता है तो इसका दोषी सरकार नहीं है तो कौन है? क्योंकि जनता को भी तो जागरूक करना उसी का कार्य है। गाहे बगाहे होने वाले सांप्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय या आपराधिक हिंसा-प्रतिहिंसा की बातों को कुछ देर के लिए विराम भी दे दिया जाए, क्योंकि मानवीय सनक को काबू में रखना किसी भी प्रशासन के लिए जटिल कार्य है। फिर भी इस पर सियासी कारणों से रोक नहीं लगाना भी अधर्म है।

वहीं, ऐसी ही हिंसक प्रवृत्ति से जुड़ा एक पूरक सवाल है कि यदि भारत सरकार पशु-पक्षी बद्ध के लिए लाइसेंस जारी करती है या फिर इस तरह की मिलीजुली मानवीय प्रवृत्ति पर खामोश रहती है तो मेरे विचार में वह एक अधार्मिक प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है और इससे उसका प्रशासन भी प्रभावित होगा। मेरा मानना है कि यदि देशवासियों को सही शिक्षा दी जाएगी, तो पुलिस व सैन्य खर्च में भारी कमी स्वतः आ जाएगी। आज यदि देश की जनता नाना प्रकार की नैतिक-भौतिक त्रासदी से जूझ रही है तो इसके पीछे उसकी धर्मनिरपेक्ष भावना ही है। जिसके चलते देशवासियों को सही शिक्षा की डिलीवरी नहीं हो पा रही है। 

आश्चर्य होता है कि इसके बावजूद भी हमारे धर्मनिरपेक्ष नेता मदमस्त हैं। वो यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारे देश में कौन सा धर्म सही शिक्षा दे रहा है और कौन सा धर्म भड़काऊ शिक्षा दे रहा है। इनकी शिनाख्त करके उसे सही राह पर चलने के लिए भारत का प्रशासन विवश नहीं करेगा, तो कौन करेगा। आप धर्मनिरपेक्ष हैं, बहुत अच्छी बात है। लेकिन आप प्रकृति धर्म, प्राणी धर्म और मानव धर्म से निरपेक्ष नहीं हो सकते, क्योंकि इसका सम्मिलित स्वरूप ही राजधर्म है। मनुष्यों को नियंत्रित रखने के लिए किसी न किसी धर्म की जरूरत होती है, जो उन्हें अधार्मिक होने से रोकता है। हिंसक प्रवृत्ति अधार्मिक है,  भोगवाद अधार्मिक है, क्योंकि इससे रोग उतपन्न होता है और बढ़ता है। वहीं, अहिंसा, त्याग और सेवा की भावना धार्मिक है, जिसे बढ़ावा देना चाहिए। यह प्राकृतिक गुण है, मानवीय गुण है और प्राणी मात्र के लिए हितैषी है। इस नजरिए से सनातन धर्म/हिन्दू धर्म इसका वाहक समझा जाता है। चूंकि हमारी सरकार धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए वह इन नैसर्गिक गुणों से भी निरपेक्ष होना चाहती है, जो तमाम जन-समस्याओं की जननी है। 

इसलिए सवाल उठता है कि जिन्होंने हमें हिन्दू राष्ट्र और सनातनी सोच के सपने दिखाए, उन्हें भी जब देशवासियों ने कुछ अच्छा कर गुजरने के मौके दिये तो वो भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। क्या सत्ता के दुर्गुणों ने उन्हें भी अपने मायाजाल में फंसा लिया और अब वे दुष्टों के बढ़ते प्रभाव के वशीभूत होकर धर्मनिरपेक्ष होने मतलब अन्याय का समर्थन करने की वकालत कर रहे हैं। सच कहूं तो इससे एक बार फिर से धर्म की सही समझ ज्ञानी जनों के न्याय के कठघरे में खड़ी है। 

खासकर तब, जब हिन्दू हृदय सम्राट समझे गए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत, गत रविवार को अमरावती में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कहते हैं कि दुनिया में धर्म के नाम पर जितने भी अन्याय, अत्याचार होते हैं, उनके पीछे धर्म की गलत समझ काम कर रही होती है। याद दिला दें कि इससे पहले बीते सप्ताह ही आरएसएस प्रमुख ने यह भी कहा था कि जगह-जगह मंदिर विवाद खड़े करना ठीक नहीं है। लिहाजा संघ प्रमुख के बयानों के पीछे छिपी चिंता को समझे जाने की जरूरत है। क्योंकि ऐसा करना हालिया घटनाओं की रोशनी में खासा अहम हो जाता है। 

उन्होंने धार्मिक जटिलता पर ठीक ही कहा कि धर्म बड़ा जटिल विषय है और इसे समझने में अक्सर गलती होने की आशंका बनी रहती है। आखिर कब धर्म की उदार वृत्ति पर संप्रदाय विशेष की संकीर्ण दृष्टि काबिज हो जाती है और कब धार्मिक समावेशिता को सांप्रदायिक कट्टरता ढक लेती है, यह कई बार हमलोगों की समझ में नहीं आता है। आसेतु हिमालय यानी भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में देखा जाए तो बांग्लादेश में हाल के सत्ता परिवर्तन ने कैसे समाज को कट्टरपंथी तत्वों के चंगुल में ला दिया, यह सबके लिए एक ताजा सबक हो सकता है। इससे पहले पाकिस्तान के कट्टरपंथी सोच से हमलोग अवगत और भुक्तभोगी दोनों हैं। कभी उसी का भूभाग रहे बंगलादेश की बदलती घटनाओं और पनपती सोच की हम उपेक्षा नहीं कर सकते। क्योंकि कमोबेश वैसी ही ताकतें हमारे यहां भी सक्रिय हैं।

यह खतरा वास्तविक इसलिए भी प्रतीत होता है, क्योंकि ऐसे उदाहरण दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी देखने को मिलते हैं। खासकर एक धर्म विशेष के नाम पर पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में आतंकवाद का जैसा खौफनाक अभियान चला, उसे उस धर्म की सही समझ का उदाहरण कतई नहीं माना जा सकता है। लेकिन संघ प्रमुख की बातें सिर्फ दूसरे देशों के संदर्भ में नहीं कही गई हैं। बल्कि धर्म की गलत व्याख्या के कारण 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' का अजेंडा पीछे छूटने का खतरा अपने देश में भी कम नहीं है।

इसलिए हमें एकता के सूत्र तलाशने होंगे। उन्हें अमल में लाना पड़ेगा। इसी खतरे की ओर संकेत करते हुए संघ प्रमुख भागवत ने कहा है कि जगह-जगह मंदिर का विवाद खड़ा करना ठीक नहीं है। विविधताएं हमारा वर्तमान तो हैं ही, ये हमारे अतीत का भी हिस्सा रही हैं। अलग-अलग धर्म, संस्कृति से जुड़े लोग यहां आते रहे, शुरुआती मतभेद और कड़वाहट दफन करते हुए विशाल भारतीय संस्कृति में घुलते-मिलते रहे। तभी इन विविधताओं के बीच एकता के मजबूत सूत्र विकसित हुए। देश भर में ऐसे हजारों श्रद्धाकेंद्र हैं जहां एक से अधिक धर्मों के चिह्न, संकेत, सबूत ढूंढे जा सकते हैं। इस आधार पर वर्तमान में विवाद खड़ा करना हमें कहीं नहीं ले जाएगा। 

लेकिन सुलगता सवाल है कि यदि इतिहास के पापों को प्रक्षालित नहीं किया गया तो भविष्य में भी अतीत जैसी जघन्य घटनाओं की पुनरावृत्ति सम्भव ही नहीं है, बल्कि सियासी तौर पर धमकियां भी मिलती रही हैं, जो चिंता का विषय है। इसलिए पुराने सनातनी श्रद्धा केंद्रों को फिर से हासिल करने के जनमिशन की राह में हमें न तो बाधा खड़ी करनी चाहिए, न ही उसके प्रतिकूल कोई टिप्पणी करनी चाहिए। क्योंकि यह ऐसा पुनीत कार्य है जो अभी नहीं होगा तो कभी नहीं होगा। क्योंकि खुद पूरी दुनिया अपने-अपने मामलों में उलझी हुई है और चाहकर भी हमारे खिलाफ एकजुट नहीं हो सकती है। इसे समझिए और रणनीति बनाइए।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि हिंदू मंदिरों के पुनरुद्धार के उपायों से हिन्दू-मुस्लिम तनाव पैदा होगा और विकास में बाधा आएगी। शायद इसी खतरे से बचने के लिए कानून के जरिए यह तय किया गया कि देश की आजादी के वक्त जिस पूजा स्थल का जैसा स्वरूप था, उसे अंतिम मान लिया जाए। अब चाहे जिस किसी भी बहाने से ऐसे विवाद खड़े किए जाएं, वे सामाजिक समरसता के लिए ठीक नहीं होंगे और देश के विकास में बाधा बनेंगे। 

ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे राजनीतिक दल क्षुद्र बुद्धि के हैं। यदि हमारा प्रशासन इतिहास के अन्याय को खुद दुरुस्त करते हुए अतिक्रमित हिन्दू धार्मिक स्थलों की पहचान करता और उन्हें मुक्त करवाता तो कोई बखेड़ा खड़ा नहीं होता। इस कार्य को अंजाम दिए बिना कट ऑफ डेट 1947 ठहराना हिंदुओं के साथ प्रशासनिक अन्याय होगा। यदि हमें धर्मनिरपेक्ष ही रखना था तो फिर धार्मिक आधार पर देश विभाजन क्यों स्वीकार किया। और जब कर लिया तो फिर यह संधि क्यों नहीं किया कि पाकिस्तान के सारे हिन्दू हमारे और हिन्दुस्तान के सारे मुसलमान तुम्हारे।

इतना ही नहीं, इस पूरे प्रकरण में न्यायिक दूरदर्शिता के अभाव और सियासी बेईमानी के चलते भी ये मामले दिन-प्रतिदिन उलझते चले जा रहे हैं। सीधा सवाल है कि जब भारत का विभाजन हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर स्वीकार किया गया तो फिर हिंदुओं के हिस्से वाले हिंदुस्तान के ऐतिहासिक पापों का प्रक्षालन तो उसी वक्त कर दिया जाना चाहिए। क्योंकि तब भी राष्ट्र विभाजन के बावजूद सांप्रदायिक दंगे हुए थे। ये हमारे नेतृत्व के कायराना हरकतों और व्यक्तिवादी नजरिए के चलते ही तो हुए थे। स्वतंत्र भारत में भी अनगिनत दंगे हुए हैं। बहुतेरे तो सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज भी नहीं किये गए, क्योंकि तब यही प्रशासनिक निर्देश होते थे राजनीतिक आकाओं के।

यदि हम धर्मनिरपेक्ष हैं तो हमें जाति-धर्म-भाषा-लिंग निरपेक्ष भी होना होगा। इनकी संवाहक भारतीय संविधान के इन साम्राज्यवादी दुर्गुणों को मिटाना होगा। एक देश, एक चुनाव, या एक देश एक, कर व्यवस्था जीएसटी मानिंद जीवन के हर क्षेत्र में भारतीयता की भावना को पिरोना होगा। जो इससे इंकार करे, उसे भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर निर्वासित करना होगा। यह सरकार का कार्य है, उसके लिए दबाव समूह के रूप में कार्य करने वाले सामाजिक संगठनों का कार्य है। समाज को सच्ची राह दिखाने वाले धर्मगुरुओं के कार्य हैं, जो आजकल एक-दूसरे धर्म के खिलाफ जहां-तहां भड़काते तो दिख रहे हैं, लेकिन इनके समानांतर धर्मनिरपेक्ष शिक्षा देने वाले धर्मगुरुओं का अभाव है या वो सही मायने में अल्पसंख्यक हैं। 

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इसलिए आज महती जरूरत है कि इन्हें प्रोत्साहित कीजिए। क्योंकि प्रकृति धर्म, प्राणी धर्म और मानव धर्म की सही शिक्षा देना ही धर्मनिरपेक्षता है, अन्यथा रक्तरंजित दुनिया का हाल देख लीजिए। सही मुद्दे पर आपकी खामोशी भी कल आपकी शांति भंग कर सकती है। इसलिए आज से तैयारी शुरू कर दीजिए। सत्य-अहिंसा-प्रेम के दुश्मनों का गला घोंटने के लिए हमारा प्रशासन ततपर रहे, इसके लिए समकालीन सत्ता पर दबाव बनाइए। अन्यथा मूल धर्म के प्रति निरपेक्षता से अधर्म ही बढ़ेगा। अपने अतीत को देख लीजिए और भविष्य के प्रति सचेत होइए। आपको जगाना हमारा कार्य है। हमने कर दिया। अब आपकी बारी है।

कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक 

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