Gyan Ganga: जब प्रभु समक्ष खड़े थे तब भी बालि के शरीर के सामने पत्नी तारा क्यों कर रही थी विलाप
श्रीराम तारा से कहते हैं कि हे तारा! क्यों इतना विलाप कर रही हो। आखिर क्या ऐसा विशेष घट गया, जो आज से पूर्व कभी घटा ही नहीं? यूं प्रतीत हो रहा है, मानो तुम अकेली ही ऐसी स्त्री हो, जो विधवा हुई हो। तारा को अब कुछ लगा कि कोई उसे कुछ कह रहा है।
बालि का तन भले ही ठंड़ा पड़ा था। लेकिन उसकी पत्नी तारा का मन कहाँ ठंडा था। वह तो व्याकुल थी, नीरस व वीरान थी। बालि तो बिना प्राणों के मृत था। किंतु तारा तो तन में प्राण लेकर भी मृत थी। कहने को तो भगवान उसके अतिअंत समीप खड़े थे, किंतु उसका भगवान तो बालि ही था। उसे अक्सर सिखाया भी तो यही गया था, कि एक सुहागन का पति ही उसका परमेश्वर होता है। हालांकि इस भाव में गहन त्रुटि छुपी हुई है। कारण कि भगवान का स्थान भला किसी व्यक्ति को कैसे दिया जा सकता है। और वह भी बालि जैसे व्यक्ति को! जिसने अपना अंतिम समय भले ही प्रभु का होकर निभा दिया। किंतु उसका भूत काल अतिअंत कलुषित व माया के कीचड़ में सना था। निःसंदेह उसका वर्तमान कुंदन-सा उज्ज्वल है। लेकिन भूतकाल तो अथाह आपत्तियों से दागदार है। जबकि ईश्वर तो सदैव पावन व पुनीत हैं। तो इस आधार पर पति तो कभी भी परमेश्वर नहीं हो सकता। लेकिन हां! ईश्वर अवश्य ही पति कहलाने के योग्य है। क्यों? क्योंकि हमारे धार्मिक ग्रंथों में पति किसको कहा गया है- ‘पाति इति पतिः’ अर्थात् जो पत्त (इज्जत) की रक्षा करता है, उसे ही पति कहा गया है। प्रश्न उठता है कि इज्जत अथवा सम्मान की रक्षा किससे करवानी है? यहाँ पर बड़ा गहन रहस्य छुपा हुआ है। तात्विक दृष्टि से देखेंगे तो हम सब जीव ईश्वर ही अंश हैं- ‘ईश्वर अंश जीव अबिनाशी’ हम ईश्वर की ही प्रतिछाया हैं। इस आधार पर जो सम्मान, उस परम शक्ति का है, वैसा ही सम्मान उसके जीव का भी बनता है। लेकिन जब यह जीव चौरासी लाख योनियों में भटकता है, तो निश्चित है कि यह ईश्वरीय अंश के लिए बड़े अपमान का विषय है। मानो हमारी पत्त, इज्ज़त अथवा सम्मान सब मिट्टी में मिल गया। लेकिन जो हमें इन चौरासी लाख यौनियों से बचा दे, हमें अधोगति के अंधकूप से बचा, सद्गति प्रदान करे, वही हमारा पति है। और यह सामर्थ्य केवल ईश्वर के सिवा अन्य किसी में भी नहीं! इसीलिए ईश्वर को ही पति कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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तारा अपने पंच भूतक सरीर के पति (बालि) के लिए तो महान विलाप कर रही है, किंतु जो हमारी आत्मा का वास्तविक पति है, अर्थात् परमात्मा, उसे वह पूर्णतः भूली हुई है। एक जन्म के पति के लिए इतना विलाप और जिस पति से बिछुड़े जन्मों बीत गए, उसके लिए कभी कोई वैराग्य नहीं, कभी मन में उथल-पुथल नहीं! क्या कभी अकेले बैठ कर चिंतन नहीं किया कि आखिर हमारा वास्तविक स्वामी कौन है। किसकी कृपा से हमारा जीवन चक्र चल रहा है। क्या सचमुच हमने नहीं सोचा कि सब प्राप्त करने के पश्चात् भी हम अशांत से क्यों रहते हैं? ऐसा भी नहीं कि धन दौलत मान प्रतिष्ठा का कोई अभाव है, लेकिन तब भी इतनी तन्हाई क्यों रहती है? सब पाकर भी इतना खालीपन क्यों है? सब पा तो लिया, फिर क्या पाना बाकी रह गया है। किसकी खोज में हम भागे जा रहे हैं। सज्जनों आठों पहर हम मात्र शून्य को एकत्र करने में लगे हुए हैं। शून्य एकत्र किया है, तो शून्य ही तो रहेंगे। ऐसा भी नहीं कि संसार व्यर्थ है। इसका भी अपना एक महत्व है। महापुरुषों ने कहीं भी इसे नकारा नहीं, लेकिन यह तो समझ लीजिए, कि किस प्रस्थिति में क्या महत्व है? संसार अगर शून्य मान लिया जाये तो गणित अनुसार क्या केवल शून्य की कीमत होती है? जी नहीं! शून्य से पहले अगर एक अंक लिख दिया जाये तो अवश्य ही शून्य की कीमत है। और वह भी छोटी मोटी नहीं अपितु पूरे दस गुणा। जैसे एक के बाद शून्य लगे तो एक अंक बढ़कर दस हो जाता है। उस दस अंक में फिर एक शून्य लग जाये तो दस से सीधे सौ पर जाकर कहानी रूकती है। कहने का तात्पर्य कि शून्य संसार से पहले, हमें श्रीराम रूपी एक अंक को अपने जीवन में स्थान देना होगा। तभी महापुरूषों ने कहा-
‘राम नाम एक अंक है, और जगत सब शून्य।
शून्य मिले कछु हाथ न, अंक रहे दस गूण’
श्रीराम कहीं व्यावहारिक संबंधों के विरोधी थोड़ी न थे। श्रीराम बस यह चाहते हैं कि सांसारिक रिश्तों में समर्पण अवश्य रखिए, लेकिन उससे पहले प्रभु को समर्पित हो जाईये। फिर देखिए ‘लोक सुखी परलोक सुहेला’ कैसे सार्थक होता है। श्रीराम तारा यूं विकल देख उसके पास जाकर पूछते हैं कि हे तारा! क्यों इतना विलाप कर रही हो? तारा को कुछ भी सुनाई न दिया, कयोंकि मायाधारी जीव केवल अंधा ही नहीं होता, अपितु बहरा भी होता है। कोई व्यक्ति मात्र नेत्रहीन हो, तो उसे बोल कर समझाया जा सकता है। अथवा वह व्यक्ति केवल बहरा हो और अंधा नहीं तो उसे इशारों से समझाया जा सकता है। लेकिन जो व्यक्ति अंधा भी हो, और बहरा भी हो तो उसे आप किस विधि से समझायेंगे। पति वियोग में तारा मानों अंधी व बहरी दोनों हो चुकी है। गुरुबाणी में महापुरूष उच्चारण करते हैं-
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‘मायाधारी अति अंना बोला।।
सबदु न सुणई बहु रोल घचोला।।
श्रीराम तारा से कहते हैं कि हे तारा! क्यों इतना विलाप कर रही हो। आखिर क्या ऐसा विशेष घट गया, जो आज से पूर्व कभी घटा ही नहीं? यूं प्रतीत हो रहा है, मानो तुम अकेली ही ऐसी स्त्री हो, जो विधवा हुई हो। तारा को अब कुछ लगा कि कोई उसे कुछ कह रहा है। देखा तो श्रीराम उसे बड़े प्यार से निहार रहे हैं। तारा को श्रीराम जी किंचित भी न भाये। भाते भी कैसे? उसकी दृष्टि में श्रीराम कोई भगवान बनकर थोड़ी न आये थे। अपितु उसके लिए तो मानो काल ही बनकर आये थे। श्रीराम फिर कहते हैं कि तारा बताओ तो आखिर हुआ क्या है? तारा कहती है कि देखो प्रभु! मेरे पति बालि मुझे छोड़ कर चले गए हैं। यह सुनकर प्रभु मुस्करा पड़े, और बोले कि हे तारा! तुम्हें क्या हो गया है। तुम कह रही हो कि बालि चला गया। किंतु कहां चला गया बालि? देखो बालि तो यहाँ लेटा हुआ है, यह तो कहीं भी नहीं गया। यह देह वाला बालि ही तुम्हारा पति था न? लो ये तो तुम्हारे सामने लेटा हुआ है।
तारा ने प्रभु के यह शब्द सुने तो सन्न-सी रह गई। वह हैरान-परेशान है कि प्रभु यह क्या कह रहे हैं? कहीं यह मेरी स्थिति का उपहास तो नहीं? इन्हें कुछ लग ही नहीं रहा कि कुछ घटा भी है।
आगे तारा श्रीराम जी को प्रतिउत्तर में क्या कहती है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम!
-सुखी भारती
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