Gyan Ganga: श्रीराम की बात सुन कर क्यों सुग्रीव की आँखें आश्चर्य से फट गयी थीं
अचानक प्रभु श्रीराम जी ने कुछ ऐसा कह डाला कि सुग्रीव के तो प्राण ही सूख गए। भय के मारे उसकी रूह ही कांप गई। क्योंकि श्रीराम जी ने सुग्रीव से वह कह डाला जिसकी उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। अब सुग्रीव सोचने लगे कि करें तो क्या करें?
सुग्रीव ने जब देखा कि प्रभु श्रीराम जी तो बालि वध हेतु अडिग हैं और वे बालि को मारकर ही दम लेंगे। तो हो सकता है सुग्रीव ने फिर सोचा हो कि चलो कोई नहीं, अब बालि के मरने का समय आ ही गया होगा, तो कोई क्या कर सकता है? मन में वैराग्य होने के कारण सुग्रीव महान ज्ञानी होने का प्रदर्शन कर ही रहा था और उसे यह भलीभांति आश्वासन भी था कि चलो बालि श्रीराम जी के हाथों से मरेगा तो यह भी शुभ ही है। स्वयं को प्रत्येक क्रिया व परिस्थिति से तटस्थ मान, सुग्रीव को लग रहा था कि बस अभी श्रीराम जी अपना बाण निकालेंगे और बालि का दो क्षण में वध कर निवृत हो जाएंगे। और हमें तो दर्शक की भांति बस देखना ही है। फिर इसके पश्चात् न बालि होगा और न उसका भय।
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सुग्रीव को यह सब बड़ा सरल व सीधा-सा प्रतीत हो रहा था। मानो हथेली पर लड्डू रखा है और बस उठाकर खा ही लेना है। शायद सुग्रीव के हृदय के किसी कोने में यह भाव भी हों कि चलो अच्छा ही हो रहा है कि बालि का जड़ से ही इलाज होने जा रहा है। और वह भी बड़े तरीके से। अब तो बालि वध का आक्षेप भी मुझ पर नहीं आएगा। क्योंकि मेरी इच्छा नहीं है फिर भी श्रीराम जी बालि का वध कर रहे हैं। तो उत्तरदायित्व भी श्रीराम जी पर ही आएगा। समाज में इसके द्वारा मेरा नाम भी कलंकित होने से बच जाएगा।
निःसंदेह सुग्रीव स्वयं को अत्यंत ही सुरक्षात्मक घेरे में महसूस कर रहा था। लेकिन अचानक प्रभु श्रीराम जी ने कुछ ऐसा कह डाला कि सुग्रीव के तो प्राण ही सूख गए। भय के मारे उसकी रूह ही कांप गई। क्योंकि श्रीराम जी ने सुग्रीव से वह कह डाला जिसकी उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। जी हाँ! श्रीराम जी सुग्रीव को संबोधित करते बोले कि हे वीर सुग्रीव! तैयार हो जाओ, समय आ चुका है कि तुम अब बालि को उसके द्वार पर जाकर युद्ध के लिए ललकारो। यह सुनकर सुग्रीव का मुख खुला का खुला रह गया, आँखें आश्चर्य से फटने वाली हो गईं। उसे लगा कि अरे यह श्रीराम जी ने क्या कह डाला। अवश्य ही वे मेरे संग उपहास या व्यंग्य ही कर रहे हैं। लेकिन भाई ऐसा भी क्या उपहास कि सामने वाले का कलेजा ही फटकर मुँह को आ जाए। बोले कि बालि से जाकर युद्ध करो। मेमने को कहो कि जाकर सिंह से भिड़े या कद्दू को कहो कि जाकर चाकू पर जोर से कूदो तो अंजाम तो किसी से छुपा नहीं होता न। ठीक वैसे ही जाकर बालि को युद्ध के लिए ललकारो तो परिणाम मेरी मृत्यु ही तो है। पूर्व की तरफ चलते−चलते श्रीराम जी यूं पश्चिम की तरफ क्यों लौट पड़े। प्रण बालि को मारने का किया है या बालि द्वारा मुझे मरवाने का? न बाबा न, मुझे ऐसा उपहास तनिक भी पसंद नहीं। लेकिन यह क्या श्रीराम जी की भाव भंगिमा तो कहीं से भी उपहास के चिन्ह समेटे नहीं है।
तो इसका तात्पर्य श्रीराम जी सत्य कह रहे हैं क्या? लेकिन यह क्या धोखा है? कहा तो था कि वे ही बालि को अपने एक तीर में मार डालेंगे और अब अवसर आया तो मुझे ही युद्ध के लिए धकेल रहे हैं। भला यह कैसा प्रण और क्षत्रिय धर्म? श्रीराम जी का क्या है, वे तो वापिस अयोध्या लौट जाएंगे, बखेड़ा तो मुझसे खड़ा हो गया था। बालि से मुझे ही भिड़ना था तो पहले ही बता देते न। मैं व्यर्थ ही क्यों इस झमेले में पड़ता। न, न, न यह तो कदापि उचित नहीं है।
सुग्रीव अंदर तक डगमगा गया। वैराग्य क्षण भर में छू मंतर हो गया। चंद पल पहले जो सुग्रीव ने कहा था कि प्रभु मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि सब त्यागकर केवल आपकी सेवा भक्ति करूं तो श्रीराम जी हँस पड़े थे। क्योंकि श्रीराम जी जानते थे कि सुग्रीव जब मैं किसी के समक्ष हूँ तो कोई भी भक्त होने का दंभ भर सकता है। लेकिन बात तो तब है न कि सामने साक्षात् यमराज हो और तब भी भक्ति भाव बना रहे। और देखो तुम्हारा भक्ति भाव ढेरी होता जा रहा था। प्रण किया था सेवा का, लेकिन प्राणों का मोह हावी हो रहा हो। सुग्रीव तो मानो सर्प के मुख में छिपकली जैसा प्रतीत कर रहा था। न मौत की रागनी से बच पा रहा है और न जीवन की स्वर लहरियों को अनसुना कर पा रहा है। न श्रीराम जी को छोड़े बन पा रहा है, न बालि को पकड़े चल पा रहा है। हो सकता है कि सुग्रीव को श्री हनुमान जी पर क्रोध आ रहा हो कि पवन पुत्र ने अच्छा फंसाया मुझे। अच्छा होता, श्री हनुमान जी को मैंने परीक्षा के लिए भेजा ही नहीं होता और पहाड़ी छोड़कर चुपचाप भाग जाता। लेकिन अब तो बीच मंझधार में फंस गया हूँ।
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सुग्रीव को यूं दुविधा में फंसा देख श्रीराम जी को दया आ गई। श्रीराम जी सुग्रीव को स्नेह व आश्वासन देते हुए कहते हैं कि सुग्रीव तुम क्यों व्यर्थ चिंता करते हो। बालि को तो निश्चित ही मैं अपने बाण से ही मारूंगा। लेकिन लड़ना तो बालि के समक्ष तुम्हें ही पड़ेगा। श्रीराम जी ने मानो अध्यात्म का पूरा सूत्र ही खोलकर रख दिया। कर्म सिद्धांत समझने के लिए प्रभु ऐसे ही जीवंत घटनाक्रमों का ही तो चयन करते हैं। जीव चाहता है कि बालि वध रूपी फल अथवा लक्ष्य मुझे यूं ही बैठे−बैठे प्राप्त हो जाए। मैं कुछ न करूं बस चुपचाप बैठा रहुँ और स्वयं प्रभु ही जाकर मेरा कार्य सिद्ध कर दें। परंतु प्रभु कहते हैं कि हे सुग्रीव! निश्चित ही बालि वध तो हम ही करेंगे लेकिन करेंगे छुपकर। हम सामने प्रकट होने की बजाए पेड़, लताओं के पीछे रहकर ही कार्य करेंगे। लेकिन हमारी यह कृपा तब ही होगी, जब तुम भी कर्म करने की अनिवार्यता व रीति का दामन नहीं छोडेंगे। यह तो मुझे भी पता है कि बालि को मारना तुम्हारे वश की बात नहीं। लेकिन मुझ पर विश्वास करके तुम बालि से भिड़ो तो सही। घबराना क्यों, मैं हूँ न तुम्हारे साथ। बालि मुझे नहीं देख पा रहा हो तो मुझे आश्चर्य नहीं। मैं उसके लिए छुपा हूँ लेकिन अपने भक्त के लिए नहीं, तुम तो मुझे देख ही पा रहे हो न कि मैं तुम्हारी खातिर छुपकर खड़ा हूँ। फिर भय क्यों, अविश्वास क्यों?
क्या सुग्रीव बालि से युद्ध के लिए तत्पर होता है या नहीं जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम
-सुखी भारती
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