Gyan Ganga: गुस्सा आने के बावजूद श्रीहरि ने नारदजी को कुछ क्यों नहीं कहा?
देवऋर्षि नारद जी ने कुछ शब्द तो कहे, लेकिन वे समस्त दिखने में तो भक्तिमय भाव वाले ही लग रहे थे, लेकिन भीतर से एक-एक शब्द अहंकार से सना था। कारण कि देवऋर्षि नारद जी ने, अब कहीं जाकर कहा, कि न-न भगवान! यह सब करामात तो बस आप ही की कृपा है।
श्रीहरि ने देवऋर्षि नारद जी के मुखारबिंद से संपूर्ण काम चरित को सुना। कोई और होता तो शायद श्रीहरि, वहीं पर उसको डांट देते। लेकिन तब भी उन्होंने देवऋर्षि नारद जी के मुख से वह पूरा वाक्य सुना। प्रश्न उठता है, कि श्रीहरि ने देवऋर्षि नारद जी को क्यों नहीं कुछ कहा? निश्चित ही श्रीहरि को देवऋर्षि नारद जी पर, क्रोध आने की बजाये, उनकी केवल चिंता हो उठी। क्योंकि श्रीहरि जानते थे, कि देवऋर्षि नारद जी स्वभावगत ऐसे विकारी नहीं हैं। ऐसा नहीं है, कि उन्हें विषय जन्मजात ही प्रिय हों। उल्लू को जैसे अँधकार से स्वाभाविक ही प्रेम है। गिद्ध को भी जैसे मृत जीवों के दुर्गंध युक्त मास की ललक होती ही है। ठीक वैसे, देवऋर्षि नारद जी की वृति वैसी तो कभी भी नहीं रही। हाँ, किसी कर्म-संस्कार के प्रभाव से माया ने मोहित कर दिया है, तो इसका अर्थ यह थोड़ी न है, कि देवऋर्षि नारद जी के प्राण ही निकाल लो। एक सांसारिक पिता भी यह ध्यान रखता है, कि उसका कौन-सा पुत्र निरंतर पाप कर्म करने वाला है, और कौन-से पुत्र ने वर्षों बाद कोई गलती की है। निश्चित ही वह पिता नित उलाहने लाने वाले को तो अवश्य ही डांटेगा और जो पुत्र ने केवल आज ही यह पाप किया है, उसे वह प्यार से बिठा कर समझायेगा। श्रीहरि ने भी सोचा, कि देवऋर्षि नारद जी मेरे ऐसे पुत्र हैं, कि जिन्हें किसी भी मूल्य पर त्यागा तो नहीं जा सकता। लेकिन अहंकार के जिस विशालकाय पेड़ को उन्होंने पाल रखा है, उसे तो जड़ से उखाड़ना अतिअंत आवश्यक है। श्रीहरि भले ही मन से तो देवऋर्षि नारद जी से प्रसन्न नहीं थे, लेकिन तब भी वे चाह कर भी देवऋर्षि नारद जी को कटु वचन नहीं बोल पा रहे हैं। श्रीहरि ने अपना मुख तो भले ही रुखा सा किया। लेकिन बोले वे मधुर वचन ही-
‘रुख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान
तुम्हरे मुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान।।’
श्रीहरि ने कहा, कि हे देवऋर्षि नारद जी, आप ने जो कहा, कि आप ने कामदेव को परास्त कर दिया है। तो आपके संदर्भ में, यह कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। कारण कि आप तो ऐसे महान ज्ञानी हैं, कि कोई अन्य भी आपका स्मरण करले, तो उनके भी मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते है। फिर आपकी तो बात ही क्या है।
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यह सुन देवऋर्षि नारद जी को इतना अच्छा लगा, कि वे कुछ कह ही न पाये। जबकि उन्हें कहना चाहिए था, कि हे प्रभु! संसार में किसी का भी विकार हरा जाता है, तो वह तब ही संभव होता है, जब वह आपको समर्पित होकर, आपका भजन करता है। लेकिन देवऋर्षि नारद जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा। वे चुप रहे, और मन ही मन प्रसन्न हैं, कि भले ही भगवान शंकर ने मेरे प्रताप को नहीं जाना, तो क्या हुआ। कम से कम श्रीहरि ने तो मेरे तप व साधना का लोहा माना। और देखो श्रीहरि मेरे लिए कितने अच्छे-अच्छे संबोधन कर रहे हैं। देवऋर्षि नारद जी अपनी प्रशंसा में कहे जाने वाले शब्दों के प्रवाह को अनवरत सुनते जाना चाह रहे थे। शायद इसीलिए उन्होंने नहीं कहा था, कि नहीं भगवान मैं इसका कारण थोड़ी न हूँ। यह सब तो आपकी ही कृपा है। श्रीहरि ने भी देखा, कि देवऋर्षि नारद जी तो बिल्कुल चुप ही हैं। वे तो अपनी काम विजय का हमें नन्हां सा भी श्रेय नहीं दे रहे हैं। चलो कोई बात नहीं। हम उन्हें थोड़ा और उचका देते हैं। उनकी प्रशंसा में दो-चार शब्द और गढ़ देते हैं-
‘सुनु मुनि मोह हेइ मन ताकें।
ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें।।
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा।
तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा।।’
अर्थात हे मुनिराज! वास्तविकता तो यह है, कि मोह तो उसको होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। रही बात आपकी, तो आप तो महान ब्रह्मचर्य में तत्पर और बड़े धीर बुद्धि वाले हैं। भला कहीं, आपको भी काम सता सकता है?
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श्रीहरि ने तो सोचा, कि शायद देवऋर्षि नारद जी को अब कोई ज्ञान आ जाये, कि मैं भक्तिपथ से विचलित हो गया हूँ। लेकिन श्रीहरि की तो संपूर्ण आशा ही टूट गई। कारण कि अब देवऋर्षि नारद जी ने कुछ शब्द तो कहे, लेकिन वे समस्त दिखने में तो भक्तिमय भाव वाले ही लग रहे थे, लेकिन भीतर से एक-एक शब्द अहंकार से सना था। कारण कि देवऋर्षि नारद जी ने, अब कहीं जाकर कहा, कि न-न भगवान! यह सब करामात तो बस आप ही की कृपा है। मैं क्षुद्र-सा जीव भला क्या कर सकता हूँ?
श्रीहरि ने जब देवऋर्षि नारद जी के यह अभिमान से भरे शब्द सुने, तो मन ही मन विचार करने लगे, कि देवऋर्षि नारद जी के हृदय में गर्व का बड़ा भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है। मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा। क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा, जिससे मुनि का कल्याण हो, और मेरा खेल हो-
‘बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी।
पन हमार सेवक हितकारी।।
मुति कर हित मम कौतुक होई।
अवसि उपाय करबि मैं सोई।।’
भगवान विष्णु देवऋर्षि नारद जी के कल्याण हेतु क्या उपाय अपनाते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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