Gyan Ganga: श्रीहनुमानजी ने रावण के सामने कौन-से सौदे की बात रखी थी?
श्रीहनुमान जी को पता था, कि रावण सीख के लिए उपयुक्त पात्र नहीं है। लेकिन यह सीख तो, श्रीराम जी की सीख थी, तो वह तो उन्हें देनी ही थी। वैसे तो बँदर को सीख देना उचित नहीं माना गया है। क्योंकि बया पक्षी ने एक बार, एक बँदर को सीख देने की गलती की थी।
श्रीहनुमान जी ने रावण को सीख देने के लिए स्वयं को बाँधना भी स्वीकार कर लिया। दोनों हाथ जोड़ कर वे रावण को समझा रहे हैं, कि रावण अपने कुल का भी विचार करे। उसके पिता इतने बड़े तपस्वी हैं। उसके दादा भी महान संत हैं। लेकिन पता नहीं, उनके भाग्य में वह कैसा कलंकित काल होगा, कि रावण उनके पवित्र कुल का अंश बना। हँस के घर में कागा का जन्म तो नहीं होता। लेकिन रावण का, ऋर्षि विर्श्वा व पुलस्तय मुनि के घर में जन्म होना, यह सिद्ध करता है, कि कभी-कभी युगों में भी, कभी एक आध बार, कागा हँस के कुल को दाग लगाने आ ही जाता है। श्रीहनुमान जी जब रावण के समक्ष हाथ जोड़ते हैं, तो एक बार यह दृश्य देख कर, हमारे भी मन को दुख-सा महसूस होता है। कारण कि एक विशाल सागर, कीचड़ की एक बूँद के समक्ष झुक कर खड़ा हो तो, यह हृदय को स्वीकार-सा नहीं होता। यूँ लगता है, कि गंगा जी जैसे पुनीत पावन श्रीहनुमान जी को, रावण जैसे नीच के समक्ष झुकना ही नहीं चाहिए था। वे तो रावण को मिलते ही, उसे दण्डित करते और माता सीता जी को लेते चलते बनते। लेकिन प्रभु श्रीराम जी ने भी, पवनसुत हनुमान जी को अपना दूत, ऐसे ही थोड़ी ना चुना था। उन्हें पता था, कि मेरा दूत अपना अपमान भले ही होना स्वीकार करले, लेकिन अपने स्वामी अर्थात मेरे सम्मान को कभी ठेस नहीं पहुँचने देगा। और मेरा सम्मान केवल इसमें नहीं कि श्रीहनुमान जी सभी राक्षसों का वध ही करते। वध तो उनका कभी भी किया जा सकता है। लेकिन सर्वप्रथम आवश्यक है, कि प्रत्येक प्राणी को मेरा संदेश देना चाहिए। ताकि वह जीव मृत्यु पश्चात जब मेरे दिव्य लोक में आये, तो वह यह तो उलाहना न दे पाये न, कि उसे कौन-सा मेरा भक्ति संदेश मिला था। अगर कोई आपका भक्त मुझे, भक्ति भाव से समझाता, तो मेरी भला क्या मति मारी गई थी, कि मैं पाप का मार्ग न त्यागता। इसलिए श्रीराम जी यही चाहते थे, कि श्रीहनुमान जी प्रत्येक राक्षस को, कम से कम एक अवसर तो दें ही, कि वह अधर्म का मार्ग न चुन कर, अध्यात्म की ओर अग्रसर हो। श्रीराम जी के इसी अनुशासन का पालन करने हेतु, श्रीहनुमान जी रावण को समझाने हेतु, अपने हाथ तक भी जोड़ रहे हैं। लेकिन इसका परिणाम सुखद निकलेगा, ऐसी आशा कम ही थी। कारण कि एक लोक कहावत है-
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‘सीख उसी को दीजिए, जा को सीख सुहाये।
सीख न दीजे बाँदरा, बया का घर भी जाये।।'
श्रीहनुमान जी को पता था, कि रावण सीख के लिए उपयुक्त पात्र नहीं है। लेकिन यह सीख तो, श्रीराम जी की सीख थी, तो वह तो उन्हें देनी ही थी। वैसे तो बँदर को सीख देना उचित नहीं माना गया है। क्योंकि बया पक्षी ने एक बार, एक बँदर को सीख देने की गलती की थी। परिणाम स्वरूप बँदर ने बया पक्षी का ही घर तोड़ डाला था। कहावत में तो चलो, यह कहा गया था, कि किसी बँदर को सीख नहीं देनी चाहिए। लेकिन यहाँ तो एक बँदर ही सीख दे रहे थे। और सीख लेने वाला कोई साधारण व्यक्ति नहीं, अपितु एक तपस्वी ब्राह्मण था। और उसे सीख देने का क्या परिणाम निकल सकता था, यह तो आपको कुछ समय बाद पता चल ही जायेगा। रावण ने सोचा, कि बँदर तो अतिअंत तीक्षण बुद्धि का स्वामी है। यह तो मुझे भावनात्मक रूप से वश में करना चाहता है। बताओ, इसे क्या लेना-देना मेरे पिता और मेरे दादा से। मैं भला कोई कम बड़ा तपस्वी हूँ, जो यह मेरे पिता व दादा को ही बहुत बड़ा तपस्वी मान रहा है। लेकिन कुछ भी है, यह वानर मुझे हाथ जोड़ कर, मेरी मिन्नतें कर रहा है, तो यह दृश्य मेरी दृष्टि को अतिअंत प्रिय लग रहा है। रही बात कि मैं इसकी कही हर बात सुनुं, तो इसके लिए मैं बाध्य थोड़ी न हूँ।
श्रीहनुमान जी ने सोचा, कि रावण अपने ही स्वनिर्मित काल्पनिक संसार में खोया हुआ है। क्यों न मैं इसके समक्ष एक सौदे की बात रखूँ। श्रीहनुमान जी बोले-
‘प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।’
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रावण को श्रीहनुमान जी कह रहे हैं, कि हे रावण तूने निःसंदेह ही, माता सीता जी का अपहरण करके अक्षम्य अपराध किया है। लेकिन तब भी, एक अवसर तुम्हारे पास अभी भी है। जिससे तुम इस कष्टकारी घड़ी से निकल सकते हो। मेरा कहा मानो, तुम अपने सभी अपराध स्वीकार करके, प्रभु श्रीराम जी के पावन श्रीचरणों में जा बिराजो। हमारे प्रभु श्रीरघुनाथ जी, शरणागतों के रक्षक और दया के सागर हैं। निश्चित ही वे तुम्हें अपनी शरण में झुका देख कर द्रवित हो जायेंगे। और तुम्हारें समस्त अपराधों को क्षमा कर, प्रभु तुम्हें अपनी शरण में ले लेंगे। इससे तुम्हारे साथ-साथ, तुम्हारी लंका का राज भी अचल हो जायेगा। रावण ने जब यह सुना, तो वह और प्रश्नवाचक भाव से श्रीहनुमान जी की ओर देखने लगा। क्योंकि मेरी लंका के राज्य के अचल होने से, भला श्रीराम जी की शरण में जाने का क्या वास्ता। मेरी लंका तो अचल है ही। भला यह कहाँ चलके जाने वाली है। तो श्रीहनुमान जी ने कहा, कि हे रावण, राज्य तो श्रीअयोध्या जी का अचल नहीं है। और तुम बात कर रहे हो लंका की? कारण कि अयोध्या के सिंघासन पर कभी राजा रघु बैठे थे। जो परंपरागत रूप से, कालान्तर से चलती-चलती, आज श्रीदशरथ जी के आधीनस्थ है। और कल अयोध्या के सिंघासन पर श्रीराम जी बिराजेंगे। और यह क्रम अनवरत चलता ही रहेगा। लेकिन अगर तुम श्रीराम जी के श्रीचरणों में, स्वयं को अखण्ड़ भाव से समर्पित कर दो तो तुम निश्चित ही लंका के सिंघासन पर अचल राज्य कर सकते हो-
‘राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू।।’
क्योंकि श्रीराम जी भले ही अपने राज्य को, स्वयं ही अपने हाथों से जल प्रवाह कर दें। लेकिन अपने शरणागत के राज्य को, वे सदैव अखण् रहने के वरदान से ही पोषित करते हैं।
रावण श्रीहनुमान जी के इस सौदे को सुन कर क्या मंथन करता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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