Gyan Ganga: प्रभु श्रीराम से बात करते समय आखिर सागर के मन में चल क्या रहा था?
जिन श्रीराम जी को प्रत्येक जीव के संपूर्ण अंतस का ज्ञान है। वे घट-घट की जानने वाले हैं। क्या वे श्रीराम जी, यह नहीं जानते थे, कि ऐसी दिव्य कला वाले वानर तो मेरी सेना में पहले से ही हैं। तो क्यों मैं सागर जैसे हठी व मूढ़ के मसक्ष विनय करने में तीन दिनों का समय बर्बाद करूँ।
श्रीरामचरितमानस एक ऐसा दिव्य ग्रंथ है, कि अगर आप उसमें एक बार गहनता से उतर गए, तो सच मानिएगा, आप इस क्षीर सागर में से निकलने के लिए नहीं तड़पेंगे, अपितु उसमें डूब जाने के लिए तरसेंगे। आप विगत प्रसंग को ही ले लीजिए। श्रीराम जी सागर के समक्ष, लंका पार जाने का मार्ग पाने के लिए ऐसे मिन्नतें कर रहे हैं, मानो उनके पास कोई चारा ही न हो। और उस पर भी परम आश्चर्य देखिए, कि सागर भी अकड़ के खड़ा हो गया, कि नहीं भाई, अपनी बेईज्जती करवाये बिना हम भी नहीं मानेंगे। प्रसंग में अंततः यह निष्कर्ष निकलता है, कि सागर ही श्रीराम जी को बताता है, कि आपकी सेना में दो वानर ऐसे हैं, जिन्होंने लड़कपन में ही, ऋर्षि अगस्त्य से यह वरदान ले लिया था, कि वे बड़े-बड़े पर्वतों को भी अगर हाथ लगायेंगे, वे पर्वत भी पानी में डूबेंगे नहीं, अपितु तैरेंगे-
‘नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।’
आप सोचिए, जिन श्रीराम जी को प्रत्येक जीव के संपूर्ण अंतस का ज्ञान है। वे घट-घट की जानने वाले हैं। क्या वे श्रीराम जी, यह नहीं जानते थे, कि ऐसी दिव्य कला वाले वानर तो मेरी सेना में पहले से ही हैं। तो क्यों मैं सागर जैसे हठी व मूढ़ के मसक्ष विनय करने में तीन दिनों का समय बर्बाद करूँ। श्रीराम जी सीधे नल और नील को भी तो आदेश दे सकते थे, कि जाओ सेतु तैयार करो। लेकिन हम देखते हैं, कि श्रीराम जी ने ऐसा नहीं किया। कारण यह था, कि प्रभु अपनी प्रत्येक लीला से समाज के प्रत्येक प्राणी को यह संदेश देना चाहते हैं, कि कभी भी अपने जीवन में सर्व समर्थ होने के पश्चात भी, किसी अन्य के सहयोग व सेवा की सहभागिता को सम्मलित करने का अंतिम चरण तक प्रयास करो।
प्रभु चाहते थे, कि सागर की भी मेरे धर्म अभियान में सेवा लगे। उसका अहम का भी मर्दन हो। और साथ में लंका में यह गूँज भी जानी चाहिए थी, कि दशरथ नंदन राम, केवल किसीके समक्ष उपवास पर ही नहीं बैठ सकता है, अपितु उसके समक्ष बाण का संधान भी कर सकता है। हम फेरने बैठ जायें, तो माला में ही कमाल कर देते हैं। और फेरने बैठ जायें, तो भाला भी हमारे हाथ की कठपुतली है।
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पूरे प्रसंग में एक बात तो निकल कर सामने आई, कि श्रीराम जी को न तो माता सीता जी को मिलने की जल्दबाजी है, और न ही यह भावना है, कि उनसे मिलने में तनिक-सा भी कोई विलम्भ हो। निष्कर्ष बस यही है, कि कैसे भी समाज में सबको जीने की कला आये। कोई भी त्याग, परहित व धर्म का पल्लु कोई न छोड़े।
सागर ने जब देखा, कि प्रभु ने बाण का संधान तो कर ही दिया है। वह तो अपना प्रभाव दिखा कर ही दम लेगा। लेकिन बाण के अंगारों से अब किसे भस्म किया जायेगा, अभी तक यह तय नहीं हुआ था। और प्रभु की मनः स्थिति तो स्पष्ट समझ आ रही थी, कि वे भूल ही गए थे, कि उन्होंने अग्नि बाण का भी संधान कर रखा है। सागर ने देखा, प्रभु अब उस पर पूर्ण प्रसन्न हैं। अबके मिले पता नहीं दोबारा कब मिलेंगे। प्रभु ने मेरे मानसिक ताप, अर्थात मेरे अहम व अज्ञान का नाश तो कर दिया, लेकिन मेरे भौतिक ताप का नाश होना अभी बाकी है। भौतिक ताप यह, कि सागर अपने उत्तरी भाग के मानवों से अत्याधिक पीड़ित था। जिसका समाधान वह आज तक नहीं कर पाया था। सागर ने सोचा, कि क्यों न मैं श्रीराम जी से आग्रह करके, प्रभु के अग्नि बाण का प्रहार उन दुष्टों पर करवा दूँ। प्रभु ने सागर के इस निवेदन की लाज रखी। उत्तरी भाग के समस्त दुष्टों का नाश किया। सागर ने भी वादा किया, कि वह अपने सामर्थ अनुसार प्रभु के प्रत्येक सेवा कार्य में सहयोग करेगा। इतना कह कर सागर प्रभु को प्रणाम कर वापिस चला गया।
और यहीं पर सुंदर काण्ड का समापन होता है। आगे प्रभु द्वारा कौन-सी लीलायें की जाती हैं, जानेंगे अगले प्रसंगों में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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