Gyan Ganga: विभीषण ने रावण को अपनी बात समझाने के लिए क्या प्रयास किये थे?
चँद्रमा तो भले आधा व टेढ़ा भी क्यों न हो। लेकिन अगर वह भगवान शिव के मस्तक पर सुशोभित हो, तो वह तब भी शुभ माना जाता है। लेकिन चंद्रमा भले ही पूरा खिला हो, लेकिन अगर वह चौथ का हो, तो उसे कोई देखना भी पसंद नहीं करता।
रावण ने तो यह दृढ़ भाव से मान ही लिया था, कि संसार में अगर तीनों लोकों में, किसी के पास संपूर्ण ज्ञान है, तो वह है, केवल और केवल वह स्वयं। हाँ, उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाला अगर कोई है, तब तो सब ठीक है। अन्यथा ‘न’ कहने वाले का तो मानों प्राणों से मोह ही रुठ गया होता है। रावण की सभा में, जो चाटुकार मंडली थी, उन्हें भला क्या वास्ता था, कि रावण का हित किसमें है, और किसमें नहीं। उन्हें तो बस अपने भोगों की पूर्ती से सरोकार था। जो कि रावण के तलवे चाटने से भली-भाँति सिद्ध हो ही रही थी। लेकिन अभी-अभी रावण की सभी में जो आहट हुई थी। वह कोई साधारण व्यक्ति की नहीं थी। कारण कि वह आहट श्रीविभीषण की थी। ये वही श्रीविभीषण जी हैं, जो संपूर्ण लंका नगरी में कुछ यूँ वास कर रहे थे, जैसे कीचड़ में कमल वास करता है। कमल का आहार विहार भले ही कीचड़ में हो, लेकिन मजाल है, कि कमल कभी कीचड़ में लिप्त हो जाये। ठीक ऐसे ही श्रीविभीषण जी भी, अन्य राक्षस जनों की भाँति माया की कालख में, रत्ती भर भी लिप्त नहीं थे। श्रीविभीषण जी को पता था, कि रावण माता सीता जी को, मेरी भाँति ‘माँ’ की दृष्टि से तो देखेगा ही नहीं। इसलिए उसे इस नाते को बलपूर्वक स्वीकार कराना तो किसी भी भाव से उचित नहीं होगा। रावण के लिए तो माता सीता जी एक परस्त्री से बढ़कर कुछ भी नहीं है। इसलिए उसे कुछ नीति संपन्न सलाह ही देनी होगी।
यह सोच श्रीविभीषण जी ने, रावण को कोई एक बार प्रणाम नहीं किया। अपितु दो बार प्रणाम किया। एक बार तो सभा में आते ही प्रणाम किया और उसके पश्चात अपने आसन पर बैठते हुए प्रणाम किया। दो बार प्रणाम करने के पीछे, श्रीविभीषण का यही भाव था, कि रावण उनकी बात को विशेष ध्यान से सुने। श्रीविभीषण ने कहा, कि हे लंकेश! वैसे तो संपूर्ण जगत में, स्वयं का कल्याण किसे प्रिय नहीं है? लेकिन यह मंथन करना भी आवश्यक है, कि जीव का किस कार्य में कल्याण निहित है, और किस कार्य में नहीं। यह सर्वविदित है, कि जो भी मनुष्य अपना कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता है, तो उसे हे स्वामी! परस्त्री को ललाट को चौथ के चंद्रमा की भाँति त्याग दे-
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‘जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।।
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाईंर्।।’
चँद्रमा तो भले आधा व टेढ़ा भी क्यों न हो। लेकिन अगर वह भगवान शिव के मस्तक पर सुशोभित हो, तो वह तब भी शुभ माना जाता है। लेकिन चंद्रमा भले ही पूरा खिला हो, लेकिन अगर वह चौथ का हो, तो उसे कोई देखना भी पसंद नहीं करता।
रावण ने जब यह सुना, तो रावण को लगा, कि जैसे उसके माथे पर किसी ने लोहे का भारी भरकम घण दे मारा हो। उसे श्रीविभीषण जी से ऐसी आशा तो स्वपन में भी नहीं थी। उसने सोचा कि चलो, विभीषण मान मर्यादा का पक्षधर है। उसका ऐसा बोलना उसके मतानुसार उचित ही है। लेकिन इससे हमें क्या, हमने तो अपना निर्णय कर ही लिया है। हमारा भाई होने के नाते, वह ऐसा बोल भी सकता है। लेकिन उसकी सलाह पर विचार करना, अथवा नहीं करना तो मेरे ही अधिकार में है न? तो ठीक है, हम विभीषण की बात से सहमति नहीं रखते।
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रावण तो शायद ऐसा सोच ही रहा था, कि श्रीविभीषण जी ने कुछ बातें ऐसी कह दी, कि रावण चिढ़ गया। श्रीविभीषण जी बोले-
‘काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।’
अर्थात हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- यह सब नरक के द्वार हैं। आप यह सब छोड़ कर श्रीरामचंद्र जी को भजिए, जिन्हें संत भजते हैं। रावण ने जब यह सुना, तो रावण ने अभी भी कोई उग्र प्रतिक्रिया नहीं की। बस केवल सुनता ही रहा। लेकिन उसे अंदेशा तो होने ही लगा था, कि उसके भाई की डगर अलग हो चुकी-सी भासित हो रही है। लेकिन पगला विभीषण ऐसा क्यों कह रहा है, कि काम, क्रोध अथवा लोभ इत्यादि नरक के द्वार हैं। अरे भाई अगर हमारे यह समस्त गुण नरक के द्वार होते, तो फिर हम स्वर्ग के स्वामी भला क्योंकर होते? इसलिए तुम तो बस नाहक ही सोचे जा रहे हो। और रही बात कि उस वनवासी राम को संत लोग भजते हैं, तो इस बात से भला हमें क्या वास्ता? संत लोग उसे एक बार छोड़ो, पच्चास बार भजें। ऐसे नंग-मलंग संतों के भजने से भला वह वनवासी राम महान थोड़ी न हो जायेगा?
श्रीविभीषण जी ने मानों रावण के हृदय में उठने वाला यह धूआँ भाँप-सा लिया था। अभी तक तो श्रीविभीषण जी भी श्रीराम जी के बारे में कुछ खुल कर कह नहीं रहे थे। लेकिन उन्हें लगा, कि रावण को कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए। रावण को उसका कोई अपना सगा, अगर श्रीराम जी की महान व वास्तविक्ता कहेगा, तो हो सकता है, कि रावण को समझ आ ही जाये। हालाँकि श्रीहनुमान जी ने रावण को समझाने का सदप्रयास किया था। लेकिन रावण ने तो उन्हें वानर ही समझा। क्या पता मुझे अपना भाई का अधिकार भाव देते हुए, मेरी बात मान ही ले। तो श्रीविभीषण जी मानों एक ही चौपाई में चारों वेदों का सार कह देते हैं-
‘तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहु कर काला।।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता।।’
अर्थात हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार) भगवान हैं। वे निरामय (विकररहित), अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं।
रावण श्रीविभीषण जी की वाणी सुन कर क्या प्रतिक्रिया करता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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