Gyan Ganga: रावण ने अपनी सभा में सिर्फ चाटुकारों की मंडली क्यों बिठा रखी थी?
मंत्रियों ने रावण को स्मरण कराया, कि महाराज! आप ही बताईये, कि आप कैसे-कैसे जीवों को, अपने शत्रुयों की श्रेणी में रखने लगे। आपने जब देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तो नर और वानर भला, आपके समक्ष कहाँ ठहरते हैं।
विगत अंक में आपने श्रवण किया कि रावण को उसकी पत्नी मंदोदरी बड़े प्यार व भाव से समझाती है। अनेकों प्रकार की नीति व प्रीति का प्रयोग भी करती है, कि रावण किसी न किसी प्रकार से श्रीराम जी के प्रति अपना विद्रोह भूल कर, अपने जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर करे। लेकिन रावण है, कि सूखी लकड़ी की भाँति अकड़ा ही पड़ा है। जो झुकाने पर टूट तो सकता है, लेकिन झुक नहीं सकता। रावण को लगा, कि मंदोदरी तो बस नाहक ही भयभीत हो रही है। बेचारी करे भी तो क्या? नारी है, तो डरेगी ही। लेकिन यह तो अच्छी बात नहीं न, कि त्रिलोक विजयी रावण की पटरानी, भला किसी से भयभीत क्यों हो। लेकिन छोड़ो, मैं क्यों उसे इतना हृदय में स्थान दे रहा हूँ? क्यों न मैं सभा में जाकर अपने मंत्रियों से जाकर वार्ता करूँ?
यह विचार कर रावण अपनी सभा में जा बैठा। जैसे ही वह सिंघासन पर बैठा, उसने सबसे यही समाचार सुना, कि शत्रु की सेना सागर के उस पार एकत्र हो गई है। रावण ने मंत्रियों से उचित सलाह मांगी। इतने मंत्रियों में एक भी मंत्री ऐसा नहीं था, जिसने कि कोई नीति व धर्म संपन्न बात कही हो। उल्टा सब के सब मंत्री हँसने लगे। वे बोले कि महाराज आप भी न बस! भला इसमें सलाह माँगने जैसा क्या है? आप तो बस चुप-चाप रहिए। अर्थात कोई चिंता न करें-
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‘बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू।।’
मंत्रियों ने रावण को स्मरण कराया, कि महाराज! आप ही बताईये, कि आप कैसे-कैसे जीवों को, अपने शत्रुयों की श्रेणी में रखने लगे। आपने जब देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तो नर और वानर भला, आपके समक्ष कहाँ ठहरते हैं। एक भी मंत्री ने यह नहीं कहा, कि रोग, ऋण और शत्रु को कभी भी छोटा नहीं समझना चाहिए। उल्टा सभी रावण को पक्का किए जा रहे हैं, कि उसने कुछ भी गलत कार्य नहीं किया। सागर उस पार सेना आ भी गई, तो कौन-सा पहाड़ टूट गया। हाथी पर दो-चार मक्खियाँ आकर बैठ भी जायें, तो हाथी को चिंतातुर होना चाहिए क्या? कारण कि मक्खियों का झुण्ड भी आकर, हाथी पर बैठ जाये, तो हाथी को रत्ती भर अंतर नहीं पड़ता। अरे महाराज! आप तो बस मस्त रहें, और आनंद करें। तितली के पंख फड़फड़ाने से धरा की धूल आसमाँ को थोड़ी न उठती है। आप की समानता तो पूरी जगत में कोई नहीं कर सकता महाराज।
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रावण को भी सभी मंत्रियों की सलाह बड़ी उचित लगी। एक बार तो रावण को यहाँ तक भी लगा, कि मंत्रियों से वानर सेना की चर्चा करके कहीं मैंने अनुचित तो नहीं कर दिया। क्योंकि ऐसा न हो, कि किसी के मन में ऐसा विचार न आ जाये, कि कहीं मैं वानर सेना से भयभीत तो नहीं? लेकिन मंत्रियों द्वारा निरंतर सुनी जा रही स्तुति ने रावण को आश्वस्त कर दिया, कि नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है। लेकिन रावण् को क्या पता था, कि उसने अपनी सभा में कोई मंत्रियों की सभा नहीं बिठा रखी है, अपितु चाटुकारों की एक मंडली जमा कर रखी है। और जिस राजा की सभा ऐसे चाटुकारों से रंगी हो, उस राजा का कल्याण कभी नहीं हो सकता। गोस्वामी जी ने बड़े सुंदर उदाहरण देकर एक सीख कही-
‘सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।’
गोस्वामी जी कहते हैं, कि मंत्री, वैद्य और गुरु अगर भय अथवा लालच की आशा से, हित की बात न कहकर, बस मीठी-मीठी बातें बोलकर काम चलाते हैं, तो राज्य, शरीर और धर्म, इन तीनों का नाश निश्चित ही हो जाता है। रावण के साथ तो चारों और, बस इसी प्रकार के ही लोग थे। वे या तो लालची थे, अथवा वे भय के मारे कुछ भी रावण के प्रतिकूल नहीं बोलते थे। वास्तव में सभी रावण के स्वभाव से भी तो भलीभाँति परिचित थे। वे जानते थे, कि रावण की रुचि के विपरीत अगर कुछ कह भी दिया, तो परिणाम सीधे मुत्यु ही है। अब ऐसी सीख देकर भला क्या लाभ, जो बदले में प्राण ही छीन ले। इसलिए चुप रहो और बस सुख भोग करो। हमें क्या है, जब पाँव में काँटा लगेगा, तो अपने आप ही ज्ञान हो जायेगा, कि आज पाँव गलत स्थान पर टिक गया है। हम पैर में आई बिआई का कितना भी वर्णन करें। लेकिन बिआई का दुख क्या होता है, यह तो अपने आप ही पता लग जायेगा, जब अपने पैर में बिआई होगी। ऐसे में रावण को कौन समझाये, कि उसके मुख पर तो दुर्भाग्य की मक्खी आन बैठी है। रावण तो पक्का यही कहेगा, कि उसके मुँह पर मक्खी भला कैसे बैठ सकती है। क्या उसका मुख ऐसा है, कि उस पर मक्खी भी बैठ जाये। माना कि चलो बोल कर नहीं बता पाये, तो हाथ से उड़ा कर ही मक्खी को हटा दिया जाये। लेकिन इसमें भी तो बला का जोखिम है। क्योंकि रावण यह थोड़ी कहेगा, कि कोई मेरा भला कर रहा है। अपितु वह तो यही सोचेगा, कि अमुक व्यक्ति, अवश्य ही मुझे चांटा मारने का दुस्साहस किया जा रहा है। बस ऐसा ही सोच कर सभी या तो चुप रहने में अपना भला समझते हैं, अथवा रावण की झूठी प्रशंसा में ही समय बिताते हैं।
तो क्या रावण को पूरी लंका नगरी में कोई भी समझाने वाला नहीं था? बिल्कुल था श्रीमान, और रावण की सभा में अब उन्हीं के आने की आहट थी।
कौन था वह रावण का हितकारी, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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