Gyan Ganga: क्या लंका नगरी का त्याग करते हुए विभीषण के मन में कोई पश्चाताप था?
केवल इतना ही नहीं, श्रीविभीषण जी को प्रभु श्रीराम जी के पावन युगल श्रीचरणों की महिमा भारी से भी भारी प्रतीत हो रही है। श्रीविभीषण जी, प्रभु के श्रीचरणों के प्रति इतने भाव से भीगे हैं, कि उन्हें चारों ओर, प्रभु के श्रीचरणों की ही लीला दिखाई पड़ रही है।
श्रीविभीषण जी का लंका नगरी से त्याग होना, रावण के पापों के अंत की खुली घोषणा थी। विगत अंक में भी हमने कहा था, कि श्रीविभीषण जी ने जब कहा, कि अब मैं श्रीराम जी के सान्निध्य में जाकर वास करूँगा, तो उसी समय लंका नगरी के समस्त राक्षस गण, काल के आधीन हो गए। रावण भी उसी घड़ी वैभव से हीन हो गया।
मन में प्रश्न उठता है, कि गोस्वामी जी ने इस घटना के घटने पर, रावण के संबंध में ‘वैभवहीन’ एवं ‘आयुहीन’ जैसे वाक्यों का प्रयोग क्यों करते हैं? क्योंकि रावण के वैभव हीन होने, अथवा राक्षसगणों के आयुहीन होने में, श्रीविभीषण जी के लंका त्याग की घटना का तो कोई संबंध ही प्रतीत नहीं होता। आईये, इस प्रश्न का समाधान हमें, भगवान शंकर प्रदान करते हैं। वे माता पार्वती जी को श्रीराम कथा रसपाण करवाते समय कहते हैं-
‘साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिज कै हानी।।’
अर्थात हे भवानी! साधु का अपमान अगर कहीं भी हो गया है, तो वहाँ उसी क्षण सकल कल्याण की हानि हो जाती है। समस्त देवता वहाँ से रूठ जाते हैं। आपके द्वारा अर्जित की गई, संपूर्ण विद्यायें भी काली स्याही सिद्ध होती हैं। जीवन में किया गया प्रत्येक पुण्य, दुर्भाग्य से पाप की भेंट चढ़ जाता है। और रावण के साथ ऐसा ही घटने की संपूर्ण तैयारियां हो चुकी थीं। ऐसा नहीं कि रावण ने ऐसा पाप प्रथम बार किया था। इससे पूर्व भी, रावण श्रीहनुमान जी के साथ, ऐसा की कलुषितमय कार्य कर चुका था। अभी तक तो पहले वाले पापों का भी नाप-तोल नहीं हुआ था, कि रावण ने अपने पापों का, एक न्या अध्याय और जोड़ दिया था।
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इधर श्रीविभीषण जी ने जब लंका नगरी का त्याग किया, तो ऐसा नहीं, कि अपने इस निर्णय को लेकर, उनके मन में इसका कोई पश्चाताप था। वहीं उनके स्थान पर, अगर कोई सांसारिक, माया में रत्त व्यक्ति होता, तो निश्चित ही सोचता, कि मेरे साथ तो बड़ा घाटे का सौदा हो गया। मेरा मंत्री पद, सम्मान व इतनी बड़ी स्वर्ण लंका नगरी का सुख छिन गया। जाते-जाते बड़े भाई से, सबके सामने पिटाई खाई, वो अलग। हाय प्रभु, अभी तो श्रीराम जी के साथ, वनों के कष्ट सहना भी तो बाकी हैं। क्या कहुँ, मैं तो बरबाद हो गया।
माना कि संसार का एक साधारण व्यक्ति ऐसा सोच सकता है। लेकिन श्रीविभीषण जी के साथ ऐसा नहीं था। कारण कि वे कोई साधारण व्यक्ति थोड़ा न थे? अपितु उच्च कोटि के भक्त व सच्चे संत थे। उनके मन में ऐसा कोई भी पश्चाताप नहीं था। अपितु वे तो अपने इस निर्णय से, अति उत्साहित व प्रसन्न थे। उनसे तो प्रभु मिलन का, अपना चाव ही नहीं संभाला जा रहा था। उनके मन में श्रीराम जी को लेकर, अनेकों सुंदर मनोरथ प्रस्फुटित हो रहे थे। और उन सुंदर मनोरथों में, सबसे प्रथम व एकमात्र मनोरथ था- ‘प्रभु के पावन श्रीचरणों के दर्शनों की अभिलाषा’। जी हाँ, श्रीविभीषण जी केवल एक ही चिंतन में मग्न हैं, कि अहो! मैं कितना भाग्यशाली हूँ, कि मैं भगवान श्रीराम जी के, कोमल और लाल वर्ण के सुंदर श्रीचरण कमलों के दर्शन करूँगा। वे श्रीचरण सेवकों को सुख देने वाले हैं। यह वही पावन युगल चरण हैं, जिनका स्पर्श पाकर ऋर्षि पत्नि अहल्या भी तर गई और जो दंडकवन को पवित्र करने वाले हैं-
‘देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जे पद परसि तरी रिषनारी।
दंडक कानन पावनकारी।।’
केवल इतना ही नहीं, श्रीविभीषण जी को प्रभु श्रीराम जी के पावन युगल श्रीचरणों की महिमा भारी से भी भारी प्रतीत हो रही है। श्रीविभीषण जी, प्रभु के श्रीचरणों के प्रति इतने भाव से भीगे हैं, कि उन्हें चारों ओर, प्रभु के श्रीचरणों की ही लीला दिखाई पड़ रही है। यहाँ तक कि उन्हें माता सीता जी के हृदय में भी, प्रभु श्रीराम जी की मूर्त नहीं, अपितु प्रभु के श्रीचरणों का ही वास दिखाई पड़ रहा है। वे सोच रहे हैं, कि नहीं-नहीं, प्रभु के श्रीचरण केवल श्रीसीता जी के हृदय तक ही नहीं टिके हैं। अपितु प्रभु के श्रीचरण तो दौड़ते भागते भी हैं। जी हाँ! कपटमृग के पीछे भागने वाले श्रीचरण भला किसके थे? यह वही श्रीचरण हैं, जो कि भगवान शंकर जी के हृदय रूपी सरोवर में भी वास करते हैं। मेरा अहोभाग्य है, कि आज मैं उन्हीं श्रीचरणों का दर्शन करूँगा-
‘जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए।।
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई।।’
श्रीविभीषण जी को, प्रभु के श्रीचरणों के प्रति इतना प्रेम इसलिए भी था, क्योंकि अभी-अभी उन्हें, एक ऐसे कठोर व मृतप्रायः चरणों के द्वारा मार-मार कर, लंका नगरी से अपमानित करते हुए निकाला गया था, जिनकी कि उसने आज तक, भगवान के श्रीचरणों की भाँति सेवा की थी। जी हाँ, वे चरण रावण के ही थे। लेकिन तब भी, रावण के चरणों ने अंततः श्रीविभीषण जी को क्या दिया, ठोकरें ही न? लेकिन उसी स्थान पर, एक श्रीराम जी के युगल चरण हैं, जो कि सबको अपनाते हैं। श्रीभरत जी को अपनी चरण पादुकायें प्रदान कर, प्रभु श्रीराम जी ने राज पद प्रदान कर दिया।
यहाँ एक विषय और चिंतन योग्य है। वह यह कि, रावण द्वारा श्रीविभीषण जी पर किये गए चरण प्रहार को, प्रभु श्रीराम जी सागर के इस पार बैठे-बैठे भी रोक सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अपितु श्रीविभीषण जी के साथ, रावण द्वारा क्रियावंत, ऐसा पाप होने दिया। जिससे कि शायद, श्रीविभीषण जी को भी यह अहसास संपूर्ण रूप से दृढ़ हो गया, कि सुंदर व कोमल चरण तो, श्रीराम जी के ही हैं। संसार के चरण भले ही बड़े कोमल व सगे से प्रतीत हों, लेकिन वे होते तो पत्थर की भाँति ही कठोर व चोट देने हैं।
श्रीविभीषण जी अपने समस्त भावों को हृदय रूपी पोटले में बाँधे, अब सागर के इस पार आ खड़े हुए। समस्त वानर सेना ने देखा, कि अवश्य ही रावण का कोई खास दूत पहुँचा है-
‘ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा।।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।’
श्रीविभीषण जी के साथ, इस पार प्रभु के दरबार में कैसा सम्मान होता है? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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