Gyan Ganga: विभीषण ने किस तरह रावण के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूँका था?

Vibhishana
Creative Commons licenses
सुखी भारती । Oct 27 2022 6:22PM

श्रीविभीषण जी अभी तक रावण के समक्ष श्रीराम की केवल महिमा ही गा रहे थे। और साथ में रावण को बड़े सधे व मर्यादित से शब्दों में समझा रहे थे। किसी भी कटु शब्दों के प्रयोग से बचने का संभवतः प्रयास कर रहे थे। लेकिन अब उन्होंने खुले शब्दों में कहा, कि हे रावण ध्यान से सुनो!

श्रीविभीषण जी द्वारा, रावण को समझाने के समस्त प्रयास विफल साबित हुए। रावण ने यह भी न देखा, कि विभीषण तो उसका अपना सगा है। अगर उसे अपने भाई से कुछ आपत्ति भी है, तो उसे बैठ कर सुलझाने का प्रयास भी किया जा सकता है। लेकिन रावण को सहेजने की कला तो आती ही कहाँ है। उसे तो बिखेरने की कला में ही महारत है। इसी स्थान पर अगर श्रीराम जी होते, तो क्या वे अपने भाई के साथ ऐसा व्यवहार करते? श्रीराम जी अपने भाई भरत जी के साथ, कैसा दिव्य आचरण व लीला करते हैं, यह तो संसार का निम्न से निम्न व्यक्ति भी जानता है। कारण कि, कहाँ तो श्रीराम जी हैं, जो अपने भाई को चरण पादुका के रूप में, अयोध्या के राज सिंहासन का उपहार देते हैं। और कहाँ मूर्ख रावण है, जो अपने भाई को चरण से मारने का पाप करता है।

श्रीविभीषण जी ने रावण को समझाने का, जब बार-बार निष्फल प्रयास करके देख लिया, तो अंततः उन्होंने वह कठिन निर्णय ले ही लिया, जिससे वे निरंतर टलते आ रहे थे। जी हाँ! उन्होंने लंका नगरी के समस्त पद् व वैभवशाली वर्तमान को त्यागने का निर्णय ले लिया। और उन्होंने आकाश मार्ग से जाते हुए बोले-

‘रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।

मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।’

श्रीविभीषण जी अभी तक रावण के समक्ष श्रीराम की केवल महिमा ही गा रहे थे। और साथ में रावण को बड़े सधे व मर्यादित से शब्दों में समझा रहे थे। किसी भी कटु शब्दों के प्रयोग से बचने का संभवतः प्रयास कर रहे थे। लेकिन अब उन्होंने खुले शब्दों में कहा, कि हे रावण ध्यान से सुनो! श्रीराम जी सत्य संकल्प एवं सर्वसमर्थ प्रभु हैं। बात यहाँ तक भी सीमित नहीं है। क्योंकि वे तो जो हैं, वो हैं ही। लेकिन साथ में तुम्हारी संपूर्ण सभा काल के वशीभूत हैं। अतः मैं अब श्रीराम जी की शरण जाता हूँ, इसका मुझे दोष मत देना।

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: रावण बार-बार लात मार रहा था, फिर भी क्यों अपना सीस झुकाये जा रहे थे विभीषण?

श्रीविभीषण जी का ऐसे कठोर शब्दों का चयन करके, रावण को संबोधित करना, निःसंदेह एक क्रांति का बिगुल था। जो कि रावण को अवश्य सुनना चाहिए था। लेकिन रावण तो फिर रावण था। उसे श्रवण करने की तो आदत ही नहीं थी। क्योंकि सत्य से तो उसने कभी भी वास्ता नहीं रखा था। लेकिन उसने रत्ती भर भी यह अनुमान नहीं लगाया, कि जिस विभीषण ने मेरे समक्ष कभी एक शब्द तक नहीं बोला, वह आज आसमाँ में गरज कर मुझे धमकी देकर गया है। उसमें आखिर ऐसा बल व तेज, कब और कैसे प्रवेश कर गया। रावण तनिक-सा तो सोच ही सकता था, कि उस वनवासी राम में आखिर ऐसी क्या करामात है, कि वह सागर के उस पार पर बैठ कर भी, कैसे मेरे भाई को अपने वश में कर सकता है। सागर के उस पार बैठ कर, अगर वह यहाँ शासन कर सकता है, तो सोचो जब वह मेरी लंका नगरी के भीतर तक आन पहुँचा, तो उसकी पहुँच फिर कहाँ-कहाँ होगी। लेकिन हमने पहले भी कहा न, कि रावण की सोच सकारात्मक भला कैसे सोच सकती थी। उसने श्रीराम जी के संबंध में, जब नकारात्मक ही सोचना है, तो उसका भला फिर कैसे हो सकता था? उसे इस बात का अनुमान रत्ती भर नहीं है, कि वह श्रीविभीषण जी को लात मारकर लंका से निकालने पर कितने घाटे का सौदा कर रहा है। उसे लग रहा है, कि मैंने अपने भाई को, अपनी लंका से निकाल दिया है, तो वह दर-दर की ठोकरें खायेगा। दाने-दाने को मोहताज होगा। लेकिन उसे क्या पता था, कि श्रीविभीषण जी तो रत्न हैं। ऐसे मोतियों को निकाल कर फेंका नहीं जाता, अपितु प्रेम व सम्मान से सहेज कर रखा जाता है।

श्रीविभीषण जी ने भी फिर कौन-सा पर्दा रखा। उन्होंने भी खुले आसमाँ में जाकर घोषणा की, कि हे रावण! तुम भी किसी भ्रम में मत रह जाना, कि तुमने काल को वश में कर रखा है, तो तुम अमर हो। वास्तव में तुम्हारी संपूर्ण सभा, जो तुम्हें आठों पहर भ्रमित करके रखती है। उस सभा की प्रत्येक इकाई काल के वश में है। ठीक है, अगर तुम्हें यूँ ही काल के वश में रहने की हठ है, तो तुम रहो। लेनिक हमें ऐसी हठ की न ही तो इच्छा है, और न ही हमें ऐसा कोई शौक पालना है। क्योंकि हमें काल के जबड़े में नहीं, अपितु महाकाल के सान्निध्य में रहने की धुन व संकल्प है-

‘अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।

आयू हीन भए सब तबहीं।।

साधु अवग्या तुरत भवानी।

कर कल्यान अखिल कै हानि।।’

श्रीविभीषण जी जैसे ही ऐसा कह कर लंका नगरी का त्याग करते हैं। ठीक उसी समय ही, लंका नगरी के समस्त राक्षस आयुहीन हो गए।

इस घटना पर गोस्वामी तुलसीदास जी, रावण को लेकर केवल इतनी-सी ही टिप्पणी नहीं करते। अपितु वे तो एक और भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं-

‘रावन जब ही बिभीषन त्यागा।

भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।।’

अर्थात रावण ने जैसे ही, श्रीविभीषण जी को त्यागा, ठीक उसी क्षण से वह वैभव से हीन हो गया। गोस्वामी जी ने रावण के बारे में ऐसे वाक्य क्यों कहे। इनके क्या मायने हैं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

-सुखी भारती

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़