Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-23
सेवकों की जीविका बन्द करके दूसरों के राज्य और धन के अपहरण का प्रयत्न नहीं करना चाहिये, क्योंकि अपनी जीविका छिन जाने से भोगों से वंचित होकर पहले के प्रेमी मन्त्री भी उस समय विरोधी बन जाते हैं और राजा का परित्याग कर देते हैं।
मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारा जा सकता है।
नीति धर्म का उपदेश देते हुए विदुरजी महाराज धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं कि ---
काकैरिमांश्चित्रबर्हान्मयूरान् पराजैष्ठाः पाण्डवान्धार्तराष्ट्रैः ।
हित्वा सिंहान्क्रोष्टु कान्गूहमानः प्राप्ते काले शोचिता त्वं नरेन्द्र ॥
नरेन्द्र! आप कौओं के समान अपने पुत्रों के द्वारा विचित्र पंख वाले मोरों के समान पाण्डवों को पराजित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, सिंहो को छोडकर सियारों की रक्षा कर रहे हैं; समय आने पर आप को इसके लिये पश्चाताप करना पड़ेगा।।
इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-22
न भृत्यानां वृत्ति संरोधनेन बाह्यं जनं सञ्जिघृक्षेदपूर्वम् ।
त्यजन्ति ह्येनमुचितावरुद्धाः स्निग्धा ह्यमात्याः परिहीनभोगाः ॥
सेवकों की जीविका बन्द करके दूसरों के राज्य और धन के अपहरण का प्रयत्न नहीं करना चाहिये, क्योंकि अपनी जीविका छिन जाने से भोगों से वंचित होकर पहले के प्रेमी मन्त्री भी उस समय विरोधी बन जाते हैं और राजा का परित्याग कर देते हैं ।
वाक्यं तु यो नाद्रियतेऽनुशिष्टः प्रत्याह यश्चापि नियुज्यमानः ।
प्रज्ञाभिमानी प्रतिकूलवादी त्याज्यः स तादृक्त्वरयैव भृत्यः ॥ २६ ॥
जो सेवक स्वामी के आज्ञा देने पर उनकी बात का आदर नहीं करता, किसी काम में लगाये जाने पर इनकार कर देता है, अपनी बुद्धि पर गर्व करने और प्रतिकूल बोलने वाले उस सेवक को शीघ्र ही त्याग देना चाहिये ।|
न निह्नवं सत्र गतस्य गच्छेत् संसृष्ट मन्त्रस्य कुसङ्गतस्य ।
न च ब्रूयान्नाश्वसामि त्वयीति स कारणं व्यपदेशं तु कुर्यात् ॥
दुष्ट सहायको वाला राजा जब बहुत लोगों के साथ मन्त्रणा समिति में बैठकर सलाह ले रहा हो, उस समय उसकी बात का खण्डन न करे; मैं तुम पर विश्वास नहीं करता ऐसा भी न कहे, अपितु कोई उचित बहाना बनाकर वहाँ से हट जाय ॥
घृणी राजा पुंश्चली राजभृत्यः पुत्रो भ्राता विधवा बाल पुत्रा ।
सेना जीवी चोद्धृत भक्त एव व्यवहारे वै वर्जनीयाः स्युरेते ॥ ३० ॥
अधिक दयालु राजा, व्यभिचारिणी स्त्री, राज कर्मचारी, पुत्र, भाई, छोटें बच्चों वाली विधवा., सैनिक और जिसका अधिकार छीन लिया गया हो, ऐसे लोगों के साथ लेन-देन का व्यवहार नहीं करना चाहिए।।
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपर्यन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च श्रुतं दमश्च ।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥
ये आठ गुण मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं- बुद्धि, कुलीनता, शास्त्र ज्ञान, इन्द्रिय निग्रह, पराक्रम, अधिक न बोलने का स्वभाव, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता का भाव ।।
गुणा दश स्नानशीलं भजन्ते बलं रूपं स्वरवर्णप्रशुद्धिः ।
स्पर्शश्च गन्धश्च विशुद्धता च श्रीः सौकुमार्यं प्रवराश्च नार्यः ॥
नित्य स्नान करने वाले मनुष्य को बल, रूप, मधुर स्वर, उज्ज्वल वर्ण, कोमलता, सुगंन्ध, पवित्रता, शोभा, सुकुमारता और सुन्दर स्त्रियाँ- ये दस लाभ प्राप्त होते हैं ॥
अकर्म शीलं च महाशनं च लोकद्विष्टं बहु मायं नृशंसम् ।
अदेशकालज्ञमनिष्ट वेषम् एतान्गृहे न प्रतिवासयीत ॥
अकर्मण्य, बहुत खाने वाले, सब लोगो से वेर करने वाले अधिक मायावी, क्रूर, देश-काल का ज्ञान न रखने वाले और निन्दित वेष धारण करने वाले मनुष्य को कभी अपने घर में नहीं ठहरने दे।
कदर्यमाक्रोशकमश्रुतं च वराक सम्भूतममान्य मानिनम् ।
निष्ठूरिणं कृतवैरं कृतघ्नम् एतान्भृतार्तोऽपि न जातु याचेत् ॥
बहुत दुःखी होने पर भी किसी कृपण, गाली बकने वाले, मूर्ख, जंगल में रहने वाले, धूर्त, निर्दयी, वैर रखने वाले से कभी सहायता की याचना नहीं करनी चाहिये ॥
सङ्क्लिष्टकर्माणमतिप्रवादं नित्यानृतं चादृढ भक्तिकं च ।
विकृष्टरागं बहुमानिनं चाप्य् एतान्न सेवेत नराधमान्षट् ॥
क्लेशप्रद कर्म करने वाला, अत्यन्त प्रमादी, सदा असत्यभाषण करने वाला, अस्थिर भक्ति वाला स्नेह से रहित अपने को चतुर मानने वाला- इन छः प्रकार के अधम व्यक्तियों से सदा दूर रहना चाहिए।
उत्पाद्य पुत्राननृणांश्च कृत्वा वृत्तिं च तेभ्योऽनुविधाय कां चित् ।
स्थाने कुमारीः प्रतिपाद्य सर्वा अरण्यसंस्थो मुनिवद्बुभूषेत् ॥
हे राजन ! पिता को चाहिए कि पुत्र को उत्पन्न कर उसे ऋण के भार से मुक्त करके उसके लिये किसी जीविका का प्रबंध कर दे, फिर बेटियों का योग्य वर के साथ विवाह कर देने के पश्चात् बन मे मुनिवृत्ति से रहने की इच्छा करे।।
भीष्मस्य कोपस्तव चेन्द्र कल्प द्रोणस्य राज्ञश्च युधिष्ठिरस्य ।
उत्सादयेल्लोकमिमं प्रवृद्धः श्वेतो ग्रहस्तिर्यगिवापतन्खे ॥
इन्द्र के समान पराक्रमी महाराज ! आकाश मे तिरछा उदित हुआ धूमकेतु जैसे सारे संसार में अशान्ति और उपद्रव खड़ी कर देता है, उसी तरह भीष्म, आप, द्रोणाचार्य और राजा युधिष्ठिर का बढ़ा हुआ क्रोध इस संसार का संहार कर सकता है ॥
तव पुत्रशतं चैव कर्णः पञ्च च पाण्डवाः ।
पृथिवीमनुशासेयुरखिलां सागराम्बराम् ॥
आपके सौ पुत्र, कर्ण और पाँच पाण्डव - ये सब मिलकर समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कर सकते हैं ॥
धार्तराष्ट्रा वनं राजन्व्याघ्राः पाण्डुसुता मताः ।
मा वनं छिन्धि स व्याघ्रं मा व्याघ्रान्नीनशो वनात् ॥
राजन् ! आपके पुत्र वन के समान हैं और पाण्डव उसमें रहने वाले व्याघ्र हैं। आप व्याघ्रों सहित समस्त वन को नष्ट न कीजिये तथा बन से उन व्याघ्रो को दूर न भगाइये ॥
न स्याद्वनमृते व्याघ्रान्व्याघ्रा न स्युरृते वनम् ।
वनं हि रक्ष्यते व्याघ्रैर्व्याघ्रान्रक्षति काननम् ॥
व्याघ्रों के बिना वन की रक्षा नहीं हो सकती तथा वन के बिना व्याघ्र नहीं रह सकते; क्योंकि व्याघ्र वन की रक्षा करते हैं और वन व्याघ्रों की इस बात पर गौर कीजिए।।
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
अन्य न्यूज़