Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-22

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । Aug 20 2024 3:28PM

जो मनुष्य अपने साथ जैसा बर्ताव करे उसके साथ वैसा ही वर्ताव करना चाहिये-यही नीति-धर्म है। कपट का आचरण करने वाले के साथ कपट पूर्ण बर्ताव करे और अच्छा बर्ताव करने वाले के साथ. साधु-भाव से ही बर्ताव करना चाहिये।

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारा जा सकता है। 

नीति धर्म का उपदेश देते हुए विदुरजी महाराज धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं कि --- 

यस्मिन्यथा वर्तते यो मनुष्यस् तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः ।

मायाचारो मायया वर्तितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युदेयः ॥ 

जो मनुष्य अपने साथ जैसा बर्ताव करे उसके साथ वैसा ही वर्ताव करना चाहिये-यही नीति-धर्म है। कपट का आचरण करने वाले के साथ कपट पूर्ण बर्ताव करे और अच्छा बर्ताव करने वाले के साथ. साधु-भाव से ही बर्ताव करना चाहिये।

जरा रूपं हरति धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया ।

कामो हियं वृत्तमना्यसेवा क्रोधः श्रियं सर्वमेवाभिमानः ॥ 

बुढापा हमारे रूप-सौन्दर्य का, आशा धैर्य का, मृत्यु प्राणों का, असूया धर्माचरण का, काम लज्जा का, नीच पुरुषों की सेवा सदाचार का, क्रोध लक्ष्मी का और अभिमान सर्वस्व का ही नाश कर देता है ॥ 

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धृतराष्ट्र उवाच।

 

शतायुरुक्तः पुरुषः सर्ववेदेषु वै यदा ।

नाप्नोत्यथ च तत्सर्वमायुः केनेह हेतुना ॥ 

धृतराष्ट्र ने कहा- जब सभी वेदो पुराणों में इंसान को सौ वर्ष की आयु वाला बताया गया है, तो वह किस कारण से अपनी सौ वर्ष की आयु पूरा नहीं कर पाता ? ॥ 

विदुर उवाच ।

अतिवादोऽतिमानश्च तथात्यागो नराधिपः ।

क्रोधश्चातिविवित्सा च मित्रद्रोहश्च तानि षट् ॥ 

एत एवासयस्तीक्ष्णाः कृन्तन्त्यायूंषि देहिनाम् ।

एतानि मानवान्घ्नन्ति न मृत्युर्भद्रमस्तु ते ॥ 

विदुरजी ने कहा--- हे राजन् ! आपका कल्याण हो। अत्यंत अभिमान, अधिक बोलना, त्याग का अभाव, अति क्रोध, अपना ही पेट पालने की चिन्ता और मित्र से द्रोह-ये छः तीखी तलवारें देहधारियों की आयु को काटती हैं। 

विश्वस्तस्यैति यो दारान्यश्चापि गुरु तक्पगः ।

वृषली पतिर्द्विजो यश्च पानपश्चैव भारत ॥ 

शरणागतहा चैव सर्वे ब्रह्महणैः समाः ।

एतैः समेत्य कर्तव्यं प्रायश्चित्तमिति श्रुतिः ॥ 

हे भारत ! जो अपने ऊपर विश्वास करने वाले की स्त्री के साथ समागम करता है, जो गुरु स्त्री गामी है, ब्राह्मण होकर शुद्र की स्त्री से सम्बन्ध रखता है, शराब पीता है तथा जो बड़ों पर हुकुम चलाता है, दूसरों की जीविका नष्ट करता है, ब्राह्मणों से अपनी सेवा कराने वाला और शरणागत की हिंसा करने वाला है इन सबको ब्रह्म हत्यारा मानना चाहिए । यदि कदाचित इनका सङ्ग हो जाए तो प्रायश्चित करना चाहिए। यह वेदों की आज्ञा है । 

गृही वदान्योऽनपविद्ध वाक्यः शेषान्न भोकाप्यविहिंसकश् च ।

नानर्थकृत्त्यक्तकलिः कृतज्ञः सत्यो मृदुः स्वर्गमुपैति विद्वान् ॥ 

बड़ो की आज्ञा मानने वाला, नीतिज्ञ, दाता यज्ञ शेष अन्र का भोजन करने वाला, हिंसा रहित, अनर्थकारी कार्यो से दूर रहने वाला, कृतज्ञ, सत्यवादी और कोमल स्वभाव वाला विद्वान् स्वर्ग-गामी होता है । 

सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः ।

अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥ 

राजन् ! सदा प्रिय वचन बोलने वाले मनुष्य तो सहज में ही मिल सकते हैं, किंतु जो अप्रिय होता हुआ हितकारी हो, ऐसे वचन के वक्ता और श्रोता दोनों ही दुर्लभ हैं।। 

यो हि धर्मं व्यपाश्रित्य हित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये ।

अप्रियाण्याह पथ्यानि तेन राजा सहायवान् ॥ 

जो धर्म का आश्रय लेकर तथा स्वामी को प्रिय लगेगा या अप्रिय-इसका विचार छोड़कर अप्रिय होने पर भी हित की बात कहता है; उसी से राजा को सच्ची सहायता मिलती है।। 

त्यजेत्कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।

ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ 

कुल की रक्षा के लिये एक मनुष्य का, ग्राम की रक्षाके लिये कुल का, देश की रक्षा के लिये गाँव का और आत्मा के कल्याण के लिये सारी पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिये ।

आपदर्थं धनं रक्षेद्दारान्रक्षेद्धनैरपि ।

आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि ॥ 

आपति के लिये धन की रक्षा करे, धन के द्वारा भी स्त्री की रक्षा करे और स्त्री एवं धन दोनों के द्वारा सदा अपनी रक्षा करे ॥ 

द्यूतमेतत् पुराकल्पे दूष्टं वैरकरं नृणाम् ।

तस्माद् द्यूतं न सेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान् ॥ 

प्राचीन काल में जुआ खेलना मनुष्यों में वैर डालने का कारण देखा गया है अतः बुद्धिमान् मनुष्य हँसी के लिये भी जूआ न खेले।। 

उक्तं मया द्यूतकालेऽपि राजन् नैवं युक्तं वचनं प्रातिपीय ।

तदौषधं पथ्यमिवातुरस्य न रोचते तव वैचित्र वीर्य ॥ 

प्रतीपनन्दनं ! विचित्र वीर्य कुमार ! राजन् ! मैंने जुए का खेल आरम्भ होते ही कहा था कि यह ठीक नहीं है, किन्तु रोगी को जैसे दवा और पथ्य नहीं भाते, उसी तरह मेरी वह बात भी आपको अच्छी नहीं लगी ।। 

इस प्रकार विदुर जी ने अपने विवेक के अनुसार महाराज धृतराष्ट्र को खूब समझाया। हम सबको भी विदुर जी द्वारा बताई गईं बातों पर गौर करना चाहिए और विदुरनीति को अपने जीवन में उतारना चाहिए। 

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 

- आरएन तिवारी

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