Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-14

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । Jun 14 2024 5:18PM

हमें सदा ही मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए, इस बात पर ज़ोर देते हुए विदुर जी कहते हैं— हे राजन् ! मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है; किंतु वही यदि कटु शब्दों में कही जाय तो महान् अनर्थ का कारण बन जाती है।

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें। 

प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –

विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं --- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है।

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निजानुत्पततः शत्रून्पञ्च पञ्च प्रयोजनान् ।

यो मोहान्न निघृह्णाति तमापद्ग्रसते नरम् ॥ 

विदुर जी कहते हैं, हे महाराज ! जो इंसान काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार इन पाँच विषयों की ओर दौड़ने वाले अपने पाँच इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को मोह के कारण वश में नहीं करता, उस मनुष्य को विपत्ति ग्रस लेती है॥ 

अनसूयार्जवं शौचं सन्तोषः प्रियवादिता ।

दमः सत्यमनायासो न भवन्ति दुरात्मनाम् ॥ 

गुणों में दोष न देखना, सरलता, पवित्रता, सन्तोष, प्रिय वचन बोलना, इन्द्रियदमन, सत्यभाषण तथा स्थिरता ये गुण दुरात्मा या दुराचारी लोगों में  में नहीं पाए जाते हैं। 

आत्मज्ञानमनायासस्तितिक्षा धर्मनित्यता ।

वाक्चैव गुप्ता दानं च नैतान्यन्त्येषु भारत ॥ 

हे भारत ! आत्मज्ञान, अक्रोध, सहनशीलता, धर्मपरायणता, अपने वचनकी रक्षा तथा दान ये गुण भी उत्तम पुरुषो में ही पाए जाते हैं। 

आक्रोश परिवादाभ्यां विहिंसन्त्यबुधा बुधान् ।

वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्यते ॥ 

मूर्ख मनुष्य विद्वानों को गाली और निन्दा से कष्ट पहुँचाते हैं। गाली देने वाला पाप का भागी होता है और क्षमा करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है। 

हिंसा बलमसाधूनां राज्ञां दण्डविधिर्बलम् ।

शुश्रूषा तु बलं स्त्रीणां क्षमागुणवतां बलम् ॥ 

दुष्ट पुरुषों का बल है हिंसा, राजाओं का बल है दण्ड देना, स्त्रियों का बल है सेवा और गुणवानों का बल है क्षमा ॥ 

वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः ।

अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहुभाषितुम् ॥ 

हे राजन् ! वाणी का पूर्ण संयम तो बहुत कठिन माना ही गया है, परंतु निरंतर विशेष अर्थयुक्त और चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती ॥ 

अभ्यावहति कल्याणं विविधा वाक्सुभाषिता ।

सैव दुर्भाषिता राजन्ननर्थायोपपद्यते ॥ 

हमें सदा ही मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए, इस बात पर ज़ोर देते हुए विदुर जी कहते हैं— हे राजन् ! मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है; किंतु वही यदि कटु शब्दों में कही जाय तो महान् अनर्थ का कारण बन जाती है। 

संरोहति शरैर्विद्धं वनं परशुना हतम् ।

वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम् ॥

बाणों से बींधा हुआ तथा फरसे से काटा हुआ वन भी पनप जाता है, किंतु कटु वचन कहकर वाणी से किया हुआ भयानक घाव नहीं भरता॥ 

कर्णिनालीकनाराचा निर्हरन्ति शरीरतः ।

वाक्षल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदि शयो हि सः ॥ 

कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं. परंतु कटु वचनरूपी काँटा नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि वह हृदय के भीतर धँस जाता है ॥

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचति रत्र्यहानि ।

परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु ॥ 

कठोर वचनरूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के मर्म पर ही चोट करते हैं, उनसे आहत मनुष्य रात-दिन घुलता रहता है अतः समझदार और विद्वान् पुरुष कठोर वचन से दूर ही रहे।

  

यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम् ।

बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽपाचीनानि पश्यति ॥ 

देवतालोग जिसे पराजय देते हैं, उसकी बुद्धि पहले ही हर लेते हैं; इससे वह नीच कमों पर ही अधिक ध्यान देता है। 

बुद्धौ कलुष भूतायां विनाशे प्रत्युपस्थिते ।

अनयो नयसङ्काशो हृदयान्नापसर्पति ॥ 

हे भ्राता श्री ! विनाशकाल उपस्थित होने पर बुद्धि मलिन हो जाती है; फिर तो न्याय के समान प्रतीत होने वाला अन्याय हृदय से बाहर नहीं निकलता है और अन्याय ही न्याय लगने लगता है। 

सेयं बुद्धिः परीता ते पुत्राणां तव भारत ।

पाण्डवानां विरोधेन न चैनाम् अवबुध्यसे ॥ 

भरतश्रेष्ठ ! आपके पुत्रो की वह बुद्धि पाण्डवों के प्रति विरोध से व्याप्त हो गयी है; और दुर्भाग्य है कि आप इन्हें पहचान नहीं रहे हैं ॥ 

राजा लक्षणसम्पन्नस्त्रैलोक्यस्यापि यो भवेत् ।

शिष्यस्ते शासिता सोऽस्तु धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः ॥ 

महाराज धृतराष्ट्र ! जो राज लक्षणों से सम्पन्न होनेके कारण त्रिभुवन का भी राजा हो सकता है, वह आपका आज्ञाकारी युधिष्ठिर ही इस पृथ्वी का शासक होने योग्य है ॥ 

अतीव सर्वान्पुत्रांस्ते भागधेय पुरस्कृतः ।

तेजसा प्रज्ञया चैव युक्तो धर्मार्थतत्त्ववित् ॥ 

वह युधिष्ठिर धर्म तथा अर्थ के तत्त्व को जानने वाला, तेज और बुद्धि से युक्त, पूर्ण सौभाग्यशाली तथा आपके सभी पुत्रो से बढ़-चढ़कर है॥ 

आनृशंस्यादनुक्रोशाद्योऽसौ धर्मभृतां वरः ।

गौरवात्तव राजेन्द्र बहून्क्लेशांस्तितिक्षति ॥ 

हे राजेन्द्र । धर्मधारियों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर दया, सौम्यभाव तथा आपके प्रति गौरव बुद्धि के, कारण बहुत कष्ट सह रहा है। आपको इस पर गौर करना चाहिए। 

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 

- आरएन तिवारी

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