Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-13

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । May 17 2024 6:34PM

विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं--- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है।

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें।

प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं–

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विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं--- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है।  

इन्द्रियौरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः ।

तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव ॥ 

हम सबके वश में न होने के कारण विषयों में रमनेवाली इन्द्रियों से यह संसार उसी तरह कष्ट पाता है, जैसे सूर्य आदि ग्रहों से तिरस्कृत होकर नक्षत्र नष्ट हो जाते हैं।। 

यो जितः पञ्चवर्गेण सहजेनात्म कर्शिना ।

आपदस्तस्य वर्धन्ते शुक्लपक्ष इवोडुराड् ॥ 

जो मनुष्य पूरी तरह से पाँचों इन्द्रियों के वश में रहता है, उसकी आपत्तियाँ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति बढ़ती हैं ॥ 

अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते ।

अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ॥ 

इन्द्रियों सहित मन को जीते बिना ही जो मन्त्रियों को जीतने की इच्छा करता है या मन्त्रियों को अपने अधीन किये बिना शत्रुको जीतना चाहता है, उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सब लोग त्याग देते हैं ॥ 

आत्मानमेव प्रथमं देशरूपेण यो जयेत् ।

ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते ॥ 

जो पहले इन्द्रियों सहित मन को ही शत्रु समझकर जीत लेता है, उसके बाद यदि वह मन्त्रियों तथा शत्रुओं को जीतने की इच्छा करे तो उसे सफलता मिलती है ॥ 

वश्येन्द्रियं जितामात्यं धृतदण्डं विकारिषु ।

परीक्ष्य कारिणं धीरमत्यन्तं श्रीर्निषेवते ॥ 

इन्द्रियों तथा मनको जीतने वाले, अपराधियों को दण्ड देने वाले और जाँच-परखकर काम करने वाले धीर पुरुष की लक्ष्मी अत्यन्त सेवा करती हैं ।। 

रथः शरीरं पुरुषस्य राजन् नात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्वाः ।

तैरप्रमत्तः कुशलः सदश्वैर् दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः ॥ ५९ ॥

हे राजन् ! मनुष्य का शरीर रथ है, बुद्धि सारथि है और इन्द्रियाँ इसके घोड़े हैं। इनको वश में करके सावधान रहनेवाला चतुर एवं धीर पुरुष काबू में किये हुए घोड़ों से रथी की भाँति सुखपूर्वक यात्रा करता है।। 

एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम् ।

अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ॥ 

शिक्षा न पाये हुए तथा काबू में न आने वाले घोड़े जैसे मूर्ख सारथि को मार्ग में मार गिराते हैं, वैसे ही ये इन्द्रियाँ वश में न रहने पर पुरुष को मार डालने में भी समर्थ होती हैं। 

अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्तं चैवाप्यनर्थतः ।

इन्द्रियैः प्रसृतो बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ॥ 

इन्द्रियाँ बश में न होने के कारण अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ समझकर अज्ञानी पुरुष बहुत बड़े दुःख को भी सुख मान बैठता है॥ 

धर्मार्थौ यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानुगः ।

श्रीप्राणधनदारेभ्य क्षिप्रं स परिहीयते ॥ 

जो धर्म और अर्थ का परित्याग करके इन्द्रियों के वश में हो जाता है वह शीघ्र ही ऐश्वर्य, प्राण, धन तथा स्त्री से हाथ धो बैठता है  ।

अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणामनीश्वरः ।

इन्द्रियाणामनैश्वर्यादैश्वर्याद्भ्रश्यते हि सः ॥ 

जो अधिक धन का स्वामी होकर भी इन्द्रियों पर अधिकार नहीं रखता, वह इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण ही ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है । 

आत्मनात्मानमन्विच्छेन्मनो बुद्धीन्द्रियैर्यतैः ।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ 

मन, बुद्धि और इन्द्रियों को अपने अधीन कर अपने से ही अपने आत्मा को जानने की इच्छा करे; क्योंकि आत्मा ही अपना बन्धु और आत्मा ही अपना शत्रु है।। 

बन्धुरात्माऽऽत्पनस्तस्य येनैवात्माऽऽत्मना जितः ।

स एव नियतो बन्धुः स एव नियतो रिपु: ॥ 

जिसने स्वयं अपने आत्मा को जीत लिया है, उसका आत्मा ही उसका बन्धु है। वही सच्चा बन्धु और वहीं नियत शत्रु है।॥ 

क्षुद्राक्षेणेव जालेन झषावपिहितावुभौ ।

कामश्च राजन्क्रोधश्च तौ प्राज्ञानं विलुम्पतः ॥ 

राजन् ! जिस प्रकार सूक्ष्म छेद वाले जाल में फँसी हुई दो बड़ी-बड़ी मछलियाँ मिलकर जाल को काट डालती हैं, उसी प्रकार ये काम और क्रोध-दोनों विशिष्ट ज्ञान को लुप्त कर देते है । 

समवेक्ष्येह धर्मार्थौ सम्भारान्योऽधिगच्छति ।

स वै सम्भृत सम्भारः सततं सुखमेधते ॥ 

जो इस जगत में धर्म तथा अर्थ का विचार करके विजय साधन- सामग्री का संग्रह करता है, वही उस सामग्री से युक्त होने के कारण सदा सुखपूर्वक समृद्धिशाली होता रहता है । 

यः पञ्चाभ्यन्तराञ्शत्रूनविजित्य मतिक्षयान् ।

जिगीषति रिपूनन्यान्रिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥ 

जो चित्त के विकारभूत पाँच इन्द्रिय रूपी भीतरी शत्रुओं को जीते बिना ही दूसरे शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसे शत्रु निश्चित रूप से पराजित कर देते हैं  ।

दृश्यन्ते हि दुरात्मानो वध्यमानाः स्वकर्मभिः ।

इन्द्रियाणामनीशत्वाद्राजानो राज्यविभ्रमैः ॥ 

इन्द्रियों पर अधिकार न होने के कारण बड़े-बड़े साधु भी अपने कर्मो से तथा राजा लोग राज्य के भोग विलासों से बँधे रहते हैं।। 

असन्त्यागात्पापकृतामपापांस् तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात् ।

शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावात् तस्मात्पापैः सह सन्धिं न कुर्यात् ॥ ७० ॥

पापाचारी दुष्टों का त्याग न करके उनके साथ मिले रहने से निरपराध सज्जनों को भी उनके समान ही दण्ड प्राप्त होता है, जैसे सूखी लकड़ी में मिल जाने से गीली भी जल जाती है; इसलिये दुष्ट पुरुषों के साथ कभी मेल नहीं करना चाहिए।  

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 

- आरएन तिवारी

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