Gyan Ganga: अशोक वाटिका में माता सीता को देखकर हनुमानजी के मन में क्या ख्याल आया?

Hanumanji
सुखी भारती । Jan 13 2022 4:58PM

निंद्रा को भी प्रभु से यह अवश्य ही उलाहना होगा, कि हे प्रभु! भला यह भी क्या बात हुई, कि आप जहाँ बस जाते हो, वहाँ मेरा बोरिया बिस्तर ही गोल करवा देते हो। मजाल है, कि आपके प्रेमी के नयन निंद्रा के लिए, तनिक से भी मुँद जायें। मानों नयन तो निंद्रा से रूठ ही जाते हैं।

‘जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।

चलेउ पवन सुत बिदा कराई।।

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।

बन असोक सीता रह जहवाँ।।’

श्रीविभीषण जी ने उन समस्त युक्तियों का वर्णन कह सुनाया, जिसे सुन श्रीहनुमान जी ने, श्रीविभीषण जी से विदा लेकर, मसक सरीखा रूप धरकर, रावण की अशोक वाटिका में वहाँ प्रवेश किया, जहाँ माता सीता का निवास था। अशोक वाटिका, रावण की लंका में एक ऐसा स्थान था, जहाँ संसार का एक से बढ़कर एक, सुंदर से सुंदर फल एवं पौधा था। अशोक वाटिका में चंदन की एक से एक प्रजातियां देख, एक बार के लिए तो विधाता भी दाँतों तले अँगुलियां दबा लेने पर विवश थे। इन सब आकर्षणों से दूर, श्रीहनुमान जी ने माता सीता जी के दूर से ही दर्शन कर, मन ही मन प्रणाम किया। ‘तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।’ श्रीहनुमान जी वृक्ष के पत्तों में पूरी रात छुपे रहे। और क्या देखते हैं, कि माता सीता रात्रि के चारों पहर, बस बैठे-बैठे ही बिता देती हैं- ‘बैठेहिं बीति जात निसि जामा।’ और ऐसा नहीं कि माता सीता को बैठने की कोई विवशता थी। वे आराम से सो भी सकती थीं। लेकिन एक प्रसिद्ध पंजाबी गीत में कहा गया है न, कि ‘लग्गी वाले तां कदे नीं सौंदे, तेरी किवें अख्ख लग गई---नीं जिन्दे मेरीये।’ सही तो कहा है। जिनकी आँख प्रभु से लग गई हो, फिर उन आँखों में निंद्रा के आसन के लिए, भला कहाँ स्थान हो सकता है। निंद्रा को भी प्रभु से यह अवश्य ही उलाहना होगा, कि हे प्रभु! भला यह भी क्या बात हुई, कि आप जहाँ बस जाते हो, वहाँ मेरा बोरिया बिस्तर ही गोल करवा देते हो। मजाल है, कि आपके प्रेमी के नयन निंद्रा के लिए, तनिक से भी मुँद जायें। मानों नयन तो निंद्रा से रूठ ही जाते हैं। अरे रूठना ही है, तो माता सीता को, प्रभु आपसे रूठना चाहिए। कारण कि आपने नर लीला करते हुए, स्वयं अपनी प्रियतमा को, अपने से दूर किया। लेकिन इसके फलस्वरूप, माता सीता मुझ निंद्रा को ही अपने से दूर कर दिया। अब आप ही बताईये, भला यह कौन सा न्याय हुआ। यह सुन, भगवान भी निंद्रा रानी को भला क्या सांत्वना देते। क्या यह कहते, कि हे निंद्रा देवी! हम वरदान देते हैं, कि मेरे प्रेम के वियोग में तड़प रहे, प्रेमीयों के नयनों में भी, आज से तुम्हारा स्थाई वास होगा। ऐसा होने पर क्या वाकई में न्याय हो जाता? नहीं। अपितु यह तो प्रेम की पावन गाथा का घोर तिरस्कार होता। कारण जिन नयनों में पहले से ही किसीका स्थाई निवास हो, अर्थात विरह का निवास हो, तो उसे धक्के मारकर बाहर निकालना भला कहाँ का न्याय होगा। इसलिए श्रीसीता जी की रात्रि के दौरान, चारों पहर बिना निंद्रा के ही बीत गए। श्रीहनुमान जी को क्या पता था, कि माता सीता का, रातों का यह जागना आज कोई प्रथम बार ही नहीं था। अपितु यह तो तब से अनवरत गतिमान था, जब से माता सीता का श्रीरघुनाथ जी से बिछोह हुआ था। वह कौन सी रात थी, जो माता सीता के जगते नयनों की साक्षी न थी। निशाचरों की तो यह नगरी थी ही। लंका में तो पहले से ही कोई नहीं सोता था। आज माता सीता जी भी नहीं सो रहीं, तो कौन-सा अंतर था। अंतर था, और अंतर इतना विशाल था, कि जितना अंतर धरती और आसमाँ में, अथवा सागर के दो किनारों के मध्य होता है। कारण कि लंका वासियों का जागना, तो विषयों के आधीन था। और माता सीता का जागना, विषयों के विष नाशक के तौर पर था। जी हाँ! प्रभु की याद में जो भक्त जन, अपनी निंद्रायों को त्याग कर जागते हैं, उनके जन्मों-जन्मों के भाग्य जाग जाते हैं। हालाँकि माता सीता पर तो यह सिद्धांत लागु नहीं होता। कारण कि माता सीता तो स्वयं ही जगत जननी है। प्रभु की अर्धांगिनी हैं। अथवा दूसरे शब्दों में कह सकते हैं, कि माता सीता भी साक्षात ईश्वर ही हैं। और वे तो मानव मात्र के लिए, उनके कल्याणार्थ यह नर लीला कर रही हैं। इन रातों के जागरण से उनके भाग्य क्या जगने हैं, अपितु वे तो संपूर्ण धरा पर बस रहे प्राणीयों के भाग्य जगाती हैं। श्रीसीता जी श्रीराम जी के बिरह में इतनी डूब चुकी हैं, कि उन्हें पता भी नहीं चला, कि कब उनके सुंदर केश पर जटाओं की एक लट बन गई है। और इसी अवस्था में माता सीता अपने हृदय में श्रीरघुनाथ जी के गुण समूहों का जाप कर रही थीं-

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‘कृस तनु सीस जटा एक बेनी।

जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।’

श्रीहनुमान जी, ऐसा नहीं कि माता सीता की बाहरी अवस्था को ही निहार रहे थे, अपितु वे जानकी जी की आंतरिक अवस्था का भी पावन अवलोकन कर पा रहे थे। वे स्पष्ट देख पा रहे थे, कि माता सीता श्रीराम जी की धुन में खोई हुई हैं। कारण कि संसार की माया का दुख हो, तो उसके खोने का दुख कुछ और होता है। लेकिन मायापति के खोने का दुख इससे पूर्णतः भिन्न होता है। एक भक्त के हृदय में क्या चल रहा है, यह वही भक्त जान सकता है, जो इस बिरह की अग्नि में जला हो। और श्रीहनुमान जी तो वर्षों-वर्षों इस विरही ताप में जले हैं। श्रीहनुमान जी सारा घटनाक्रम अपनी आँखों से निहार रहे हैं।

आगे श्रीहनुमान जी प्रतिक्रिया स्वरूप क्या करते हैं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

-सुखी भारती

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