Gyan Ganga: माया ब्रह्म को सामने नहीं आने देती, और जो अशाश्वत है उसका विनाश निश्चित है
परंतु फिर भी हमको नजर नहीं आता। माया ब्रह्म को सामने नहीं आने देती, और जो सत्य नहीं है, अशाश्वत है, जिसका विनाश निश्चित है। जो नकली है, वह आँखों के सामने प्रत्यक्ष दिखता है। और उसी में हम चिपके बैठे हैं। माया की अजीब विडम्बना है।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम:॥
प्रभासाक्षी के कथा प्रेमियों !
पिछले अंक में श्री शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को सृष्टि-रचना की कथा विस्तार से सुनाई। आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलें—
ब्रह्मा जी को चारों ओर जल और वायु के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा। फिर उन्होंने विचार किया कि जिस कमल पर मैं बैठा हूँ, उसका तो कुछ आधार होगा। भीतर घुस गए खूब ढूँढ़ा पर कोई आधार नहीं मिला। फिर उन्होंने अपने आप से प्रश्न पूछा कि हम तब उनके कान में दो अक्षर सुनाई दिये ‘त’ और ‘प’। संस्कृत व्याकरण में कादयों मावसानाम् स्पर्ष; क से म तक स्पर्ष वर्ण कहे जाते हैं। उनमें सोलहवा अक्षर त और एक्कीसवा अक्षर प अर्थात ब्रह्मा जी ने तप सुना। वे तप करने लगे। घोर तप किया तप के प्रभाव से नारायण ने ब्रह्मा के हृदय में अपनी वाणी को प्रकट किया। इसी को कहते हैं—
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चतु;श्लोकी भागवत ।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यत् यत् सदसत् परम्.
पश्चादहं यदेतत् च योवशिष्येत् सोस्म्यहम॥
नारायण ने कहा, हे ब्रह्मा जी! श्रीष्टि के पूर्व मैं ही था। मेरे अतिरिक्त कुछ नहीं था। तब ब्रह्मा जी ने पूछा- जब केवल आप ही थे, तो यह संसार कैसे बना? प्रभु ने कहा- जो भी मैंने बनाया, वह बनने वाला भी मैं हूँ और बनाने वाला भी मैं हूँ। बना भी मैं और बनाया भी मैं, निमित्त कारण भी मैं और उपादान कारण भी मैं।
इस जगत में कई ऐसे भी कार्य देखे जाते हैं जिसका निमित्त कारण और उपादान कारण एक ही होता है। जैसे मकड़ी का जाला और मोर का पंख। मकड़ी जाला बनाने के लिए धागा बाजार से नहीं लाती है, वह बनती भी स्वयम है और बनाती भी स्वयम है। मोर ने पंख तैयार किया बनाने वाला भी वही, बनने वाला भी वही। सोनार के पास सोना होगा तभी तो वह सोने का आभूषण बनाएगा। सोनार निमित्त कारण और सोना उपादान कारण। अरे भाई! सोना अपने आप तो आभूषण बनेगा नहीं। वैसे ही कुम्हार और घड़ा। ठीक उसी प्रकार प्रभु इस जगत के निमित्त कारण भी हैं और उपादान कारण भी हैं। वे जगत को बनाने वाले भी हैं और जगत के रूप में बनने वाले भी हैं। यह सारा संसार उनका है और वे सारे संसार के हैं।
गोस्वामी जी ने अपने लोक-काव्य रामचरित मानस में लिख दिया।
सीय राममय सब जग जानी करहूँ, प्रणाम जोरि जुग पानी।
साधारण आदमी कड़ा, कुंडल, अंगूठी को अलग-अलग समझता है किन्तु तत्व वेत्ता उन सब में सोना ही देखता है। उसी प्रकार इस जगत में नाम अलग-अलग हैं स्त्री पुरुष शेर, हाथी किन्तु तत्व एक ही है, और वह ब्रह्म तत्व है।
दृष्टांत--- एक महात्मा कहीं जा रहे थे उन्होंने बच्चों को आपस में बात करते हुए सुना बच्चे कह रहे थे, ''मैं शेर खाऊँगा, दूसरा कह रहा था मैं हाथी खाऊँगा“। महात्मा ने सोचा ये कैसे बच्चे हैं हाथी, शेर खाते हैं। उन्होंने भीतर जाकर देखा कि बच्चों के हाथ में चीनी के खिलौने थे।
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हाथी खाएं या शेर खाएं, है तो शक्कर ही। हर हाल में मुंह मीठा होना है। जो तत्व ज्ञानी हैं वे इस सम्पूर्ण जगत मे परमात्मा के ही दर्शन करते हैं। परम पिता परमेश्वर के ही विविध रूप हैं।
रचा है सृष्टि को जिस प्रभु ने, वे ही ये सृष्टि चला रहे हैं
जो पेड़ हमने लगाया पहले, उसी का फल हम अब खा रहे हैं।
इसी धरा से शरीर पाए, इसी धरा में फिर सब समाए
है सत्य नियम यही धरा का इक आ रहे हैं इक जा रहे हैं॥
माया का स्वरूप
अब प्रभु ने कहा- यह तो मेरा स्वरूप रहा। अब मेरी माया जो तुम्हारा कार्य सिद्ध करेगी, उसके बारे मे भी जान लो। माया शब्द का अर्थ ‘मा’ अर्थात नहीं और ‘या’ माने जो नहीं है। वही माया है। माया का काम है, जो सत्य नहीं है, उसको दिखाना और जो सचमुच है, सत्य है उसको छिपा देती है। जैसे– परमात्मा सत्य है, सनातन है, शाश्वत है, अविनाशी है, लेकिन माया के कारण वे दिखते नहीं। उनका पता ठिकाना नजर नहीं आता। वेद-शास्त्र पुराण चिल्लाकर कहते हैं,
‘सर्वं खलु इदं ब्रह्म सर्वं विश्वमिदम जगत’
‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होय मैं जाना॥
परंतु फिर भी हमको नजर नहीं आता। माया ब्रह्म को सामने नहीं आने देती, और जो सत्य नहीं है, अशाश्वत है, जिसका विनाश निश्चित है। जो नकली है, वह आँखों के सामने प्रत्यक्ष दिखता है। और उसी में हम चिपके बैठे हैं। माया की अजीब विडम्बना है। जो है उसका दर्शन नहीं होता और जो नहीं है वह आँखों के सामने नाच रहा है। यही माया का चमत्कार है। देखिए शुद्ध सोने का आभूषण नहीं बनता, उसके लिए सोने में मिलावट करनी पड़ती है। उसी प्रकार यदि माया का मिलावट जीव में न हो तो सभी जीव शुद्ध, बुध मुक्त हो जाएँ। माया के द्वारा ही जीव को मोहित करके यह संसार चल रहा है। माया न हो तो संसार ही ठप पड़ जाए। फिर ठाकुर जी का यह संसार कैसे चलेगा?
यह माया भी बड़े काम की है जो भगवान के संसार को चला रही है। इस प्रकार भगवान ने बड़ा ही सुंदर उपदेश दिया।
क्रमश: अगले अंक में--------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
- आरएन तिवारी
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