Gyan Ganga: प्रभु अपने भक्त की रक्षा हेतु किसी को भी अपना साधन बना लेते हैं
जबकि प्रभु ने तो, श्रीसीता जी के दुखों को हरने वाले, श्रीहनुमान जी को बिल्कुल उनके समीप ही, वृक्ष पर बिठा रखा है। लेकिन माता सीता, कष्ट मोचन श्रीहनुमान जी को देख ही नहीं पा रही हैं। प्रभु के दूत, कृपा रुप में, वृक्ष के पत्तों में तनिक छुप क्या गये, मानों जीव भी सिरे से ही नकार देता है, कि प्रभु को तो मेरी सुधि ही नहीं।
विगत अंक में हमने भगवान श्रीराम जी की पावन लीला का, वह अंश देखा, कि जिसे देख सुन कर कोई भी प्रभु श्रीराम जी का भक्त हुए बिना नहीं रहा पायेगा। किन्तु रावण कैसी माटी का बना है, कि उस पर किसी भी दैवीय लीला का प्रभाव ही नहीं होता। बिल्कुल वैसे जैसे गंगा जी में कोई पत्थर युगों तक भी पड़ा रहे, तो वह भीतर से सूखे का सूखा ही रहता है। रावण को लगा कि श्रीसीता जी अगर उसकी चंद्रहास तलवार के आगे गिड़गिड़ा रही है, तो वे मानों मेरे (रावण) आगे ही मिन्नतें कर रही है। रावण वेदों का पठन-पाठन करने में तो कौशल प्राप्त कर लेता है, लेकिन वेद जिस आदि शक्ति की आराधना की बात कर रहे हैं, वह उसी आदि शक्ति के तात्विक रुप से मुख्यतः अनभिज्ञ है। उसे तनिक भी भान नहीं, कि जिन श्रीजानकी जी को वह हर लाया है, वे कोई और नहीं, अपितु साक्षात जगत जननी, आदि शक्ति जगदम्बा जी ही हैं। वे वही माँ जगदम्बा हैं, जिन्होंने महिषासुर का वध अपने पावन कर कमलों से कर, इस धराधाम को कृतार्थ किया। वरना कौन उन्हें महिषासुर मर्दनी के नाम से पूजता और मानता। रावण को लग रहा है, कि श्रीजानकी जी का अपहरण कर, उसने पूरे खेल को ही अपने अनुसार चलाया है। भला कौन है, जो मुझसे श्रीसीता जी जैसी परम सुंदरी को छीन सकता है। श्रीसीता जी का मेरे पास होने का तात्पर्य है, कि गेंद तो शत प्रतिशत मेरे ही पाले में है। यद्यपि उसे रत्ती भर भी इस खतरे की आहट नहीं, कि जिन्हें वह अबला व मासूम तथा लाचार माने बैठा है, वे श्रीसीता जी काली रुप में कितनी विकराल हैं, उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन्हें वह अपने भोग का साधन समझे बैठा है, वास्तव में, वह तो उसका काल है। खैर! रावण की गति कितनी भयंकर होनी है, यह तो हमें आगे के प्रसंग ही बतायेंगे। लेकिन माता सीता प्रभु की लीला में, कितनी तन्मयता से अपने पात्र को निभा रही हैं, यह तो केवल प्रभु और श्रीजानकी जी ही जानती हैं।
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विगत अंक में हमने यह तो देखा कि प्रभु अपने भक्त की रक्षा हेतु, किसी को भी अपना साधन बना लेते हैं। लेकिन क्या दृष्टिपात हो रहे इस प्रसंग में केवल यही पहलु छुपा हुआ था। जी नहीं! प्रभु का राम बाण चले, और उससे केवल एक ही शिकार हो, यह भला कैसे हो सकता है। प्रभु अपने उन भक्तों के लिए, जो इस संपूर्ण लीला का आनंद ले पा रहे हैं, उन्हें भी यह बताना चाहते हैं, कि वे तो अपने भक्त के लिए कहीं से भी मार्ग ढूँढ ही लाते हैं। लेकिन क्या इससे पूर्व सर्वत्र अंधकार ही छाया हुआ था? आशा की कोई किरण शेष नहीं बची थी? मान लीजिए, कि अगर मंदोदरी से, श्रीसीता जी की रक्षा न करवाई होती, तो क्या ऐसे में श्रीसीता जी के लिए, प्रभु ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा था। ऐसा नहीं है सज्जनों। इस नन्हीं सी घटना में एक पहलु ऐसा भी छुपा हुआ है, जिसे देख सुन कर हम सोचने पर विवश हो जाते हैं, कि जीव कितना सीमित देखता है। ईश्वर ने तो उसके लिए, पग पग पर विवस्था कर रखी है। किन्तु जीव है, कि देख ही नहीं पाता। अब माता सीता जी की उक्त घटना से ही देख परख लीजिए। माता सीता, एक ऐसे पात्र को निभा रही हैं, जो कि बहुत उदास है। आठों पहर बस रोता ही रहता है। वह कौन सा क्षण है, जब उनके पावन नेत्रें से अश्रु न बह रहे हों। निःसंदेह घोर कष्ट में, किसी संसारिक जीव की स्थिति भी ऐसी ही होती है। बस अंतर इतना है, कि संसारिक जीव अपने भोग को लेकर परेशान होता है। और माता सीता अपने परम लक्ष्य, अर्थात ईश्वरीय योग के लिए चिंचित भाव में हैं। जैसे चिंता में मनुष्य अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। अपना हित-अहित, अपना पराया उसे कुछ सूझता ही नहीं है। प्रभु द्वारा की गई कोई दैवीय कृपा भी दृष्टिपात नहीं होती। ठीक वैसे, जैसे माता सीता जी को भी दिखाई नहीं हो रही। लेकिन सज्जनों सजग रहें, कारण कि माता सीता जी को ऐसे दुखों के सागर से पीडि़त होने को, कहीं वास्तविक न मान बैठें। क्योंकि तो मात्र लीला कर रहीं हैं। प्रभु प्रेरणा से वे दिखाना चाहती हैं, कि कष्ट में मानव कैसे यह मान बैठता है, कि उसके उद्धार के तो समस्त मार्ग ही बंद हो चुके हैं। जैसे माता सीता जी भी मान बैठी हैं, कि उनके दुखों का अंत तो मानों रावण की चंद्रहास तलवार ही कर सकती है। कारण कि प्रभु तो उनकी सुध ही बिसराये बैठे हैं।
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जबकि प्रभु ने तो, श्रीसीता जी के दुखों को हरने वाले, श्रीहनुमान जी को बिल्कुल उनके समीप ही, वृक्ष पर बिठा रखा है। लेकिन माता सीता, कष्ट मोचन श्रीहनुमान जी को देख ही नहीं पा रही हैं। प्रभु के दूत, कृपा रुप में, वृक्ष के पत्तों में तनिक छुप क्या गये, मानों जीव भी सिरे से ही नकार देता है, कि प्रभु को तो मेरी सुधि ही नहीं। वह प्रभु की कृपा को दूर से भी दूर माने बैठा होता है। और कृपा है, कि उसके सिर पर आकर बैठी होती है। लेकिन विड़म्बना तो देखिए, कि जीव सामने तो बहुत दूर तक देखने का प्रयास करता है, किन्तु ऊपर देखने का एक बार भी प्रयास नहीं करता। सामने क्या दिखाई देगा? सामने समाधान नहीं, अपितु रावण के रुप में, बाधा ही दिखाई देती है। जो उसे अब या तब, बस मारने पर उतारु रहती है। जीव भी ठीक वैसे ही, अपने ऊपर बरसने को तैयार बैठी कृपा को देख ही नहीं पाता। और उलाहने पर उलाहने देता रहता है। जीवन प्रयन्त कभी भी, प्रभु के प्रति कृतज्ञाता के भाव से सरोबार नहीं होता। कभी यह नहीं कहता, कि प्रभु आज तक जो मिला, मैं तो उसके कभी लायक ही नहीं था। मेरी झोली छोटी पड़ गई, पर आपकी अनुकम्पा कभी सीमित न हुई। सज्जनों ऐसा नहीं है,कि जीव को कभी समाधान हेतु, अपनी दृष्टि दौड़ानी ही नहीं चाहिए। दृष्टि दौड़ानी तो है, लेकिन कहाँ? ठीक वहाँ, जहाँ पर कृपा छुपी हुई है। दाएं-बाएं अथवा आमने-सामने नहीं, अपितु ऊपर। अर्थात ईश्वर! जी हाँ, जीव को प्रभु पर ही अपनी दृष्टि टिकानी है। फिर देखिए, जीवन में प्रभु के प्रति रुष्ट भाव नहीं, अपितु कृतज्ञता भाव का उदय होगा। सही मायनों में यही श्रेष्ठ जीवन जीने का आधार है।
क्या श्रीहनुमान जी वृक्ष पर ही बैठे रहते हैं, अथवा माता सीता जी तक अपनी बात पहुँचाने का कोई मार्ग अपनाते हैं, जानेंगे अगले अंका में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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