Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया था- प्रत्येक कर्म समाज हित में होना चाहिए
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ तथा समस्त जीवात्माओं का परमेश्वर हूँ, फिर भी मैं अपनी महामाया को अधीन करके अपनी योग-माया से प्रकट होता हूँ। भगवान यहाँ स्पष्ट करना चाहते हैं कि साधारण मनुष्यों की तरह उनका जन्म-मरण नहीं होता।
गीता प्रेमियों ! यह संसार परमात्मा का है, किन्तु हम मनुष्य भूल से इसको अपना मान लेते हैं और सांसरिक बंधन में बंध जाते हैं। श्रीमद्भागवत गीता यही सिखाती है कि संसार को अपना समझना ही पतन है और अपना न समझना उत्थान है।
आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं- पिछले अंक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से सम्पूर्ण मानव जाति को यही उपदेश दिया कि हमारा प्रत्येक कर्म समाज के हित में ही होना चाहिए, यही कर्म योग है।
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श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
श्री भगवान ने कहा– हे अर्जुन ! मैंने इस अविनाशी कर्म-योग- का उपदेश सृष्टि के आरम्भ में विवस्वान (सूर्य देव) को दिया था। हम देख सकते हैं आज भी सूर्य देव नि:स्वार्थ भाव से अपने कर्म-योग में लीन रहते हैं। सूर्य देव ने यह उपदेश अपने पुत्र मनुष्यों के जन्म-दाता मनु को दिया (मनु की संतान होने के कारण ही हम मानव कहलाते हैं) मनु ने यह उपदेश अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को दिया। भगवान ने जिन सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु राजाओं का उल्लेख किया है, वे सभी गृहस्थ थे और उन्होंने गृहस्थाश्रम में रहते हुए ही कर्म-योग के द्वारा परम सिद्धि प्राप्त की थी। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास, इन चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम मुख्य है। मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करके आसानी से परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त इस विज्ञान सहित ज्ञान को राज-ऋषियों ने विधि-पूर्वक समझा, किन्तु समय के प्रभाव से यह श्रेष्ठ ज्ञान इस संसार से प्राय: लुप्त हो गया। आज मनुष्य रात-दिन अपनी सुख-सुविधा और सम्मान की प्राप्ति में लगा हुआ है। दूसरों की सेवा की तरफ उसका ध्यान ही नहीं है। परोपकार के लिए यह मानव-तन मिला है, उसे भूल जाना ही कर्मयोग का लुप्त होना है।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
आज मैं वही प्राचीन योग (आत्मा का परमात्मा से मिलन का विज्ञान) तुमसे कहा रहा हूँ क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय मित्र भी है, अत: तू ही इस उत्तम रहस्य को समझ सकता है।
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देखिए ! जो बात सखा से भी नहीं कही जा सकती वह बात भक्त के समक्ष प्रकट कर दी जाती है। पाँचों पांडवों में अर्जुन का श्रीकृष्ण के प्रति विशेष लगाव था, तभी तो अर्जुन ने सर्व सम्पन्न “नारायणी सेना” का त्याग करके अकेले भगवान को अपने सारथी के रूप में स्वीकार किया था।
भगवान की बात सुनकर अर्जुन को आश्चर्य हुआ कि जो अभी मेरे सामने बैठे हैं, वे सृष्टि के आरंभ में सूर्य को उपदेश कैसे दे सकते हैं? इसे अच्छी तरह समझने के लिए अर्जुन ने भगवान से प्रश्न पूछा।
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥
अर्जुन ने जिज्ञासा व्यक्त की- आपका अवतार तो अब हुआ है और सूर्य देव का जन्म तो बहुत ही पुराना है, तो फ़िर मैं कैसे समूझँ कि सृष्टि के आरम्भ में आपने ही सूर्य देव को इस योग का उपदेश दिया था?
अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में अपने अवतार का रहस्य प्रकट करते हुए भगवान कहते हैं-
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
श्री भगवान ने कहा- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं, मुझे तो वे सभी जन्म याद हैं लेकिन तुझे कुछ भी याद नही है।
देखिए ! अर्जुन के मन में भगवान के जन्म-रहस्य को जानने की प्रबल इच्छा थी, इसलिए भगवान अर्जुन के सामने मित्र और भक्त के नाते अपने जन्म का रहस्य प्रकट कर देते हैं। यह नियम है कि श्रोता की प्रबल इच्छा और श्रद्धा होने पर वक्ता अपने को छिपा कर नहीं रख सकता। इसीलिए संत-महात्मा और घर के बूढ़े-बुजूर्गों में जो श्रद्धा रखता है उसके सामने वे अपना सब रहस्य प्रकट कर देते हैं।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ तथा समस्त जीवात्माओं का परमेश्वर हूँ, फिर भी मैं अपनी महामाया को अधीन करके अपनी योग-माया से प्रकट होता हूँ। भगवान यहाँ स्पष्ट करना चाहते हैं कि साधारण मनुष्यों की तरह उनका जन्म-मरण नहीं होता। साधारण लोग जन्म लेते हैं तो उनका शरीर पहले बालक होता है, फिर बड़ा होकर युवा हो जाता है, फिर वृद्ध हो जाता है और अंत में मर जाता है। परंतु भगवान में ये परिवर्तन नहीं होते। वे अवतार लेकर बाल-लीला करते हैं फिर (पंद्रह-सोलह की अवस्था) किशोरावस्था तक बढ़ने की लीला करते हैं। सैंकड़ों वर्ष बीतने पर भी भगवान वैसे ही सुंदर स्वरूप में रहते हैं। इसलिए भगवान के जितने भी चित्र बनाए जाते हैं, उसमें उनकी दाढ़ी-मूछें नहीं होतीं और न ही उनको बूढ़ा चित्रित किया जाता। इस प्रकार दूसरे प्राणियों की तरह न तो भगवान का जन्म होता है, न परिवर्तन होता है और न ही मृत्यु होती है।
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हम मूढ़ मानव अपनी अज्ञानता के कारण भगवान का प्रभाव साक्षात् सामने होने पर भी समझ नहीं पाते। द्रौपदी का चीर-हरण के लिए महा बलशाली दु:शासन अपनी पूरी शक्ति लगाता है, उसकी दोनों भुजाएँ थक जाती हैं, पर साड़ी का अंत नहीं होता। द्रौपदी के पुकारने मात्र से ही भगवान ने अपना प्रभाव साक्षात् प्रकट कर दिया। दुर्योधन और कर्ण भी वहाँ मौजूद थे, वे भी भगवान के इस करिश्मा को नहीं समझ सके। एक स्त्री का चीरहरण भी नहीं कर सके तो और क्या कर सकते हैं ! इस तरफ उनका ध्यान ही नहीं गया।
गीता का यही गूढ़ उपदेश है- जो मनुष्य भगवान से विमुख रहता है उसके सामने भगवान अपनी योगमाया में छिपे रहते हैं और एक साधारण मनुष्य की तरह दिखते हैं, लेकिन जो भगवान के सम्मुख होता है, भगवान उसके सामने प्रकट हो जाते हैं।
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...
जय श्रीकृष्ण...
-आरएन तिवारी
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