Gyan Ganga: वीर अंगद के बारे में रावण ने मन ही मन गलत अनुमान कैसे लगा लिया था?
रावण मन ही मन आनंदित महसूस कर रहा था, कि श्रीराम ने मेरे भाई को फोड़ कर अपनी तरफ कर लिया, तो मैं निश्चित ही उनके इस दूत को फोड़ कर अपने पाले में कर लेता हूँ। कारण कि यह वानर मेरी प्रभुता से इतना प्रभावित जो है।
वीर अंगद रावण की सभा में नख से सिर तक, मानो किसी पर्वत की भाँति अडिग हैं। उन्हें किसी का भी भय नहीं है। उल्टे रावण की सभा में उपस्थित सभी सभासद उनसे थर्रा रहे हैं। रावण ने वीर अंगद को देखा, तो वे कहते हैं, कि मुझे रावण ऐसा प्रतीत हुआ, मानों मेरे समक्ष कोई काजल का पर्वत सजीव पड़ा हो-
‘अंगद दीख दसानन बैसें।
सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें।।’
देखने-देखने का दृष्टिकोण है। किसी को रावण सुंदर भी दिख सकता है। लेकिन वीर अंगद को रावण काजल का पहाड़ ही क्यों दिखा। क्या काजल कोई अनुचित वस्तु है? नहीं, क्योंकि काजल को तो माँ यशोदा जी अपने लल्ला, श्रीकृष्ण जी के मस्तक पर लगाती हैं। अगर काजल में कोई अनादर भाव होता, तो वे श्रीकृष्ण का श्रृँगार, उस काजल के टिक्के से क्यों करती? लेकिन दूसरी और, काजल अगर सीमा से अधिक मात्र में है, वह भी एक टिक्के के रूप में न होकर, एक पर्वत के रूप में, तो निश्चित ही वह काजल श्रृँगार का कारण न बनकर, कुरुपता का कारण बन सकता है। प्रत्येक व्यक्ति काजल में सने प्राणी पर हँसेगा। तो रावण में लाख कपट व छल क्यों न हों। लेकिन वे अवगुण, अगर किसी के कल्याणार्थ होते, तो निश्चित ही, वे अवगुण भी, सदगुणों की भाँति ही सार्थक होते। जैसे श्रीराम जी ने भी मेरे पिता बालि को मारने के लिए छल का ही प्रयोग तो किया था। लेकिन रावण ने अपने व्यक्तित्व का श्रृँगार, अवगुणों रुपी काजल के एक बिन्दु से नहीं, अपितु काजल के पूरे पर्वत से ही कर डाला। तो सामने रावण नहीं बैठा था, मानो पापों व अवगुणों का एक जीवंत पर्वत ही विद्यमान था।
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रावण ने वीर अंगद को पूछा, अरे बंदर तू कौन है? तो वीर अंगद ने सोचा, कि भई वाह! अभी इसे यह भी नहीं पता, कि बंदरों को उसकी सभा में कौन भेज रहा है? चलो कोई नहीं, रावण भले तरीके से पूछ रहा है, तो बता ही देते हैं-
‘कह दसकंठ कवन तैं बंदर।
मैं रघुबीर दूत दसकंधर।।
मम जनकहि तोहि रही मिताई।
तव हित कारन आयउँ भाई।।’
वीर अंगद ने कहा, कि हे रावण! सबसे प्रथम तो मैं श्रीरघुवीर जी का दूत हूँ। तुम्हारी जानकारी के लिए, मैं यह भी बता दूँ, कि मेरे पिता जी एवं तुम्हारी मित्रता थी। ऐेसे में यह तो पक्का ही है, कि मैं तुम्हारे पास तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ।
रावण सोच में पड़ गया, कि भई मेरा कोई वानर मित्र कब बना था? रावण कुछ कह पाता, इससे पूर्व ही वीर अंगद ने, रावण को उसके उत्तम कुल का भी स्मरण कराया। यह भी याद कराया, कि कैसे तुमने भगवान शिव और ब्रह्मा जी को अपनी तपस्या से प्रसन्न किया। वीर अंगद ने अभी तक रावण को एक भी कटु वचन न कहा। रावण ने सोचा, अरे वाह! यह वानर तो बड़ा स्याना प्रतीत हो रहा है। लेकिन मेरे बाप-दादा तो महान थे ही। पर इसे मेरी योद्धा होने की महानता का परिचय क्यों नहीं है? वीर अंगद ने तभी रावण की यह मंशा भी पूर्ण करदी। कहा कि हे रावण! मुझे यह भी पता है, तुमने सब लोकपालों और राजाओं को रण में जीत लिआ है। लेकिन---।
रावण मन ही मन आनंदित महसूस कर रहा था, कि श्रीराम ने मेरे भाई को फोड़ कर अपनी तरफ कर लिया, तो मैं निश्चित ही उनके इस दूत को फोड़ कर अपने पाले में कर लेता हूँ। कारण कि यह वानर मेरी प्रभुता से इतना प्रभावित जो है। लेकिन मेरी महिमा गान करते-करते, इसने अंत में ‘लेकिन’ शब्द का प्रयोग क्यों किया?
अब रावण को क्या पता था, कि उसकी गाल पर, वीर अंगद थप्पड़ों की बरसात से पहले, उसके गालों को तनिक सहला रहे हैं। और देखो, वीर अंगद ने अपना कार्यक्रम आरम्भ भी कर दिया। वे बोले, कि हे रावण! यह तो वह था, जो तुममें अच्छा था, जो कि मैंने बड़ी मुश्किल से कहने का प्रयास किया। लेकिन जो तुम्हारे वर्तमान की सत्यता है। वह तुम्हारे अपराधों के भार से सनी पड़ी है। तुम्हारा सबसे बड़ा व अक्षम्य अपराध यह है, कि तुमने माता सीता जी का धोखे से हरण किया। यह अपराध किसी भी प्रकार से क्षमा की श्रेणी में तो नहीं आता। लेकिन मैंने कहा था न, कि तुम मेरे पिता के मित्र रह चुके हो, तो इसीलिए अब मैं तुम्हें इसका समाधान भी बता रहा हूँ। तुम अगर यह उपाय करोगे, तो निश्चित ही मेरे प्रभु तुम्हें क्षमा कर देंगे-
‘नृप अभिमान मोह बस किंबा।
हरि आनिहु सीता जगदंबा।।
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा।
सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा।।’
क्या था वह तरीका? जिसे अपनाने से प्रभु निश्चित ही रावण को क्षमा कर देते? वह उपाय ऐसा था, कि अगर रावण उसे अपना लेता, तो श्रीराम रावण को अबोध जान, पहले तो खूब हँसते। और बाद में उसे गले लगा, बच्चों की भाँति उस पर दुलार लुटाते। लेकिन क्या था वह उपाय? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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