खगोलशास्त्रियों को कर्नाटक में मिले ऐतिहासिक सुपरनोवा के अभिलेख
दोनों नोवा एक वर्ष से भी अधिक समय के लिए आकाश में चमकते रहे। इससे अरस्तू के समय से चली आ रही उस पुरानी अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लग गया, जिसके अनुसार तारे शाश्वत होते हैं अर्थात् उनका न तो जन्म होता है और न मृत्यु।
बंगलूरू। (इंडिया साइंस वायर): यदि काली अंधेरी रात में टिमटिमाते तारों से भरे आकाश के बीच आपको कोई नया चमकदार पिंड दिखाई दे जो कल उस स्थान पर नहीं था तो आप शायद सोचेंगे कि वह या तो शुक्र ग्रह है या कोई नया धूमकेतु।
आज से बहुत पहले सोलहवीं सदी में डेनमार्क के खगोलशास्त्री और लेखक टिको ब्रा के साथ भी 11 नवंबर, 1572 को कुछ ऐसा ही हुआ था और उन्होंने एक नया शब्द ‘नोवा’ गढ़ा, जिसका अर्थ था ‘एक नया तारा’। इसके 12 वर्ष पश्चात फिर एक नोवा दिखाई दिया। इसे एक इतालवी विद्वान लॉडोविको डेल कोलोंब द्वारा देखा गया था। यह आकाशगंगा में भुजंगधारी तारामंडल में स्थित था।
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दोनों नोवा एक वर्ष से भी अधिक समय के लिए आकाश में चमकते रहे। इससे अरस्तू के समय से चली आ रही उस पुरानी अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लग गया, जिसके अनुसार तारे शाश्वत होते हैं अर्थात् उनका न तो जन्म होता है और न मृत्यु। बहुत से तत्कालीन खगोलशास्त्रियों ने उस समय इन नोवा पिंडों का अध्ययन किया। आधुनिक खगोलशास्त्र में इन्हें अब सुपरनोवा कहा जाता है।
सुपरनोवा का दिखाई देना एक दुर्लभ खगोलीय घटना है।
इससे भी बहुत पहले जुलाई, 1054 में चीनी खगोलशास्त्रियों ने एक ऐसे ही तारे को देखा था और उन्होंने इसे ‘अतिथि तारे’ के नाम से परिभाषित किया। लगभग 700 वर्ष बाद वर्ष 1731 में उसी स्थान पर हमें एक फैलती हुयी निहारिका मिली, जिसे नाम दिया गया कर्क निहारिका या क्रैब नेब्युला।
हमें भारत में खगोलशास्त्र के अध्ययन के उल्लेख पांचवी या छठी ईसा पश्चात सदी के समय से मिलते हैं। जब प्रसिद्द खगोलशास्त्री प्रोफेसर जयंत नार्लीकर और संस्कृत और प्राकृत के ज्ञाता प्रोफेसर सरोजा भाटे ने उस समय से लेकर बाद के इन पुराने विवरणों का अध्ययन किया तो उन्हें भारतीयों द्वारा नोवा देखने का कोई उल्लेख नहीं मिला। यह बड़े आश्चर्य की बात थी।
अब हाल में किए गए अध्ययनों में कुछ शिलालेखों में इस बात के साक्ष्य मिले हैं। दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में पत्थरों पर लिखने की परंपरा रही है। इन शिलालेखों में प्रयुक्त भाषा, जो पहली सहस्राब्दी के समय की थी, संस्कृत थी, जिसका अभिप्राय समझना सरल था। इन शिलालेखों में ग्रहणों और ग्रहों की युतियों सम्बन्धी खगोलीय विवरण मिलते हैं।
कम्बोडिया में एक ऐसा शिलालेख मिला है, जिसमें किसी साधु द्वारा शिवलिंग की स्थापना के समय शिव के लिए ‘शुक्रतारा प्रभावाय’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है, अर्थात वह जो शुक्र जैसी तीक्ष्ण कांति उत्पन्न कर सकता है। शिलालेख शुक्र जैसे चमकीले किसी तारे के प्रेक्षण की ओर संकेत करता है और शायद वह सुपरनोवा देखने की घटना थी।
एक और ऐसा शिलालेख मिला है जो अजिला साम्राज्य के समय का है। इसमें कर्नाटक के वेनुरु नामक कस्बे में बाहुबली की विशाल प्रतिमा की स्थापना के बारे में लिखा है। एक समय में कर्नाटक जैन धर्म का प्रमुख केंद्र था। यद्यपि यह शिलालेख कन्नड़ लिपि में लिखा गया है, पर इसकी भाषा संस्कृत है। शिलालेख में उस समय की पूरी तारीख लिखी है दिन, महीना और वर्ष सहित। इस शिलालेख में सन् 1604 के सुपरनोवा का भी जिक्र है।
शिलालेख में इस स्तंभ को “क्षीरामबुधि में निशापति” की संज्ञा दी गई है। निशापति चन्द्रमा को कहते हैं। यह शब्द कपूर के लिए भी प्रयुक्त होता है। क्षीरामबुधि के दो अर्थ संभव हैं, कर्नाटक का बेलागोला (कन्नड़ में जिसका अर्थ श्वेत झील है) कस्बा, और दूसरा आकाशगंगा। वर्ष 1604 का सुपरनोवा धनु राशि के क्षेत्र में देखा गया था, जो आकाशगंगा में स्थित है।
‘एस्ट्रोलेब’ नामक प्राचीन खगोलीय यंत्र का उपयोग पुराने समय में समुद्री यात्राओं में नेविगेशन के लिए किया जाता था। एक इतिहासकार प्रोफेसर एस.आर. शर्मा ने विश्व भर के संग्रहालयों में जब विभिन्न एस्ट्रोलेब यंत्रों का अध्ययन किया तो उन्हें 25 दिसंबर, 1605 का बना एक एस्ट्रोलेब मिला। इसमें धनुषाग्र और धनुकोटि नाम के दो तारे अंकित मिले। तारा धनुकोटि तो लगभग सभी एस्ट्रोलेबों में मिलता है और उसका पाश्चात्य नाम है ‘अल्फा ओफियुकी’ या रासअलहेग (अरबी नाम), पर तारा धनुषाग्र केवल इसी एस्ट्रोलेब में मिला और इसकी स्थिति वर्ष 1604 के सुपरनोवा के स्थान पर मिली। इस प्रकार हमें दो ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस सुपरनोवा का उल्लेख मिला।
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इसी प्रकार, हमें 1572 के सुपरनोवा का उल्लेख संस्कृत व्याकरण की एक पुस्तक में मिलता है, जिसे संस्कृत के एक विद्वान अप्पया दीक्षित (1520-1593) ने लिखा था। उनकी रचना ‘कुवाल्यानंदा’ में लिखा है - “व्योमगंगा (आकाशगंगा) में यह क्या है? कमल जैसा है। चन्द्रमा भी नहीं है। सूर्य भी नहीं, क्योंकि समय रात का है।” इसीलिए अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसे पुराने सन्दर्भों में इन खगोलीय घटनाओं को खोजना आवश्यक है।
उपरोक्त तत्थ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि पश्चिमी विद्वानों का यह मत कि भारतीय लेखन में सुपरनोवा जैसी महत्वपूर्ण आकाशीय घटनाओं का उल्लेख नहीं मिलता है- सत्य से काफी भिन्न है।
(इंडिया साइंस वायर)
[लेखिका बेंगलुरु स्थित जवाहरलाल नेहरू प्लैनेटेरियम की भूतपूर्व निदेशक हैं]
भाषान्तरण: पीयूष पाण्डेय
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