पद छोड़ना तो ठीक था पर राहुल ने शर्त रखकर कांग्रेस के लिए नई मुश्किल खड़ी कर दी

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अजय कुमार । May 31 2019 1:42PM

राहुल गांधी विवादित बयान देने वाले नेताओं से भी नाराज हैं। चुनाव प्रचार के दौरान सैम पित्रोदा, मणि शंकर अययर और नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेता भी राहुल की परेशानी बढ़ा कर मोदी को फायदा पहुंचाते रहे थे।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश क्या कि पूरी पार्टी में भूचाल आ गया है। कांग्रेस के छोटे−बड़े सभी नेता राहुल को मनाने के लिए नतमस्तक हो गए हैं। माहौल ऐसा कुछ बनाया जा रहा है मानों राहुल गांधी ने इस्तीफा वापस नहीं लिया तो करीब 134 साल पुरानी कांग्रेस टूट जाएगी। खत्म हो जाएगी। कांग्रेस तो कांग्रेस अन्य दलों के गैर भाजपाई नेता भी कुछ ऐसा ही समझ रहे हैं। यह स्थिति तब है जबकि राहुल से पूर्व के तमाम अध्यक्षों की चुनावी सफलता के मुकाबले राहुल गांधी की जीत का रिकॉर्ड बेहद खराब है। बात संगठन की कि जाए तो संगठनात्मक रूप से भी राहुल के कार्यकाल में कांग्रेस काफी कमजोर हुई है।

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अतीत को खंगाला जाए तो राहुल गांधी कांग्रेस के 87वें और नेहरू−गांधी परिवार से छठे राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना स्वतंत्रता से पूर्व 1885 में हुई थी। इसका पहला सम्मेलन बम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में हुआ जहां देश भर से 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इस सम्मेलन के अध्यक्ष थे उमेश चन्द्र बनर्जी। 1888 में चौथे सत्र में जॉर्ज यूल पहले ब्रिटिश अध्यक्ष बने। 1971 के 33वें सम्मेलन में एनी बेसेन्ट पहली महिला अध्यक्ष बनीं। उनके बाद केवल अन्य चार महिलाओं- सरोजिनी नायडू, नेली सेनगुप्त, इन्दिरा गांधी और सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाला था।

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1978 से पहले कांग्रेस की नेहरू−गांधी परिवार पर इतनी निर्भरता नहीं थी। जबकि मोती लाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी कांग्रेस का अध्यक्ष पद पूर्व में भी संभाल चुकी थीं। आजादी से पूर्व 1999 और 1928 में मोती लाल नेहरू ने कांग्रेस की कमान संभाली थी। पंडित जवाहर लाल नेहरू भी आजादी से पूर्व 1929 और 1930 और 1936 एवं 1937 में पार्टी अध्यक्ष रहे थे। आजादी के बाद 1951 से 1954 तक भी नेहरू अध्यक्ष रहे थे। यह और बात है कि आजादी के बाद सिर्फ चार साल कांग्रेस अध्यक्ष रहने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू 17 वर्षों तक प्रधानमंत्री बनकर सत्ता पर काबिज रहे थे। उनके बाद इंदिरा गांधी का नंबर आता है जो 16 वर्षों तक देश पर राज करती रहीं। वहीं राजीव गांधी पांच वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे। समय−समय पर नेहरू−गांधी परिवार तथा उनकी नीतियों का तमाम नेताओं ने विरोध भी किया। विरोधियों में डॉ. राममनोहर लोहिया का नाम अग्रणी था जो जवाहरलाल नेहरू के कट्टर विरोधी थे। इसके अलावा जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंका और एक नया रूप दिया विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स दलाली काण्ड को लेकर राजीव गांधी को सत्ता से हटा कर।

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खैर, इंदिरा गांधी पहली बार 1959 में पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं, लेकिन कांग्रेस का इंदिरा गांधी पर आश्रित हो जाने का सिलसिला उनके (इंदिरा के) प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू हुआ। 1978−1983 के बीच जब इंदिरा गांधी पांच वर्षों के लिए दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बनीं तो फिर उनका राजनीतिक कद ऐसा बढ़ा कि मानो गांधी परिवार के बिना कांग्रेस आगे बढ़ ही नहीं सकती है। तभी इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया जैसी बाते होने लगीं तो पूरी कांग्रेस इंदिरामय हो गई। यह सिलसिला इंदिरा की मौत के बाद ही थमा। हाँ, इस दौरान उन्हें मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा। खासकर देश पर जबर्दस्ती आपातकाल लगाना उनकी सबसे बड़ी भूल साबित हुई।

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1983 में इंदिरा की हत्या के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी बने। राजीव गांधी 1991 तक (21 मई को मृत्यु से पूर्व तक) अध्यक्ष रहे। उनकी मौत के बाद जब सोनिया ने सियासत में आने से मना कर दिया तो पहले नरसिम्हा राव पांच वर्ष तक (1991 से 1996 तक) इसके बाद सीताराम केसरी 1996 से 1998 तक कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे। सीताराम केसरी के कार्यकाल में कांग्रेस सबसे बुरे दौर से गुजरी। पार्टी में गुटबाजी चरम पर थी। हालात इतने खराब हो गए कि सोनिया गांधी को पार्टी की कमान संभालनी पड़ी। सोनिया गांधी ने 1998 से 2017 तक 19 सालों तक पदभार सम्भाला है जोकि किसी कांग्रेस अध्यक्ष का सबसे अधिक समय था। इसी दौरान 2004 से लेकर 2014 तक कांग्रेस सत्ता में भी रही।

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2017 में राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया तो पहली बार ऐसा लगा कि नेहरू−गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी के लिए सियासत एक चुनौती बनी हुई है। लगातार हार पर हार मिलती गई, लेकिन कांग्रेस को तो गांधी परिवार के बिना चलना ही नहीं आता था। अगर राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे पर नहीं अड़ते तो उनकी कुर्सी को कोई खतरा नहीं था। एक तो पार्टी का बुरा हाल, उस पर अमेठी में मिली शिकस्त, यह सब राहुल के लिए पचाना आसान नहीं था। राहुल इस्तीफा देने पर अड़े हैं तो साथ ही उन्होंने यह शर्त भी लगा दी है कि गांधी परिवार का कोई सदस्य अध्यक्ष नहीं बनेगा। राहुल की यह शर्त और ज्यादा खतरनाक साबित हो रही है, वर्ना कांग्रेसी तो प्रियंका के लिए तैयार ही हो गए थे।

राहुल को मनाने का दौर चल रहा है, लेकिन यह कितना सफल होगा, यह अतीत के गर्भ में छिपा है। राहुल ने स्वयं तो इस्तीफा दे दिया, लेकिन उन्होंने पार्टी के उन दिग्गजों पर भी उंगली उठा दी जो लोकसभा चुनाव के दौरान पुत्र मोह में फंसे हुए थे। कांग्रेस के दिग्गज नेता चिदम्बरम ने बेटे को टिकट नहीं देने पर पार्टी से इस्तीफा देने की बात कही थी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हफ्ते भर तक अपने बेटे के संसदीय क्षेत्र में पड़े रहे थे। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने तो यहां तक कह दिया कि बेटे को टिकट ना दिला पाएं तो उनका (कमलनाथ) मुख्यमंत्री बने रहना बेकार है।

राहुल विवादित बयान देने वाले नेताओं से भी नाराज हैं। चुनाव प्रचार के दौरान सैम पित्रोदा, मणि शंकर अययर और नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेता भी राहुल की परेशानी बढ़ा कर मोदी को फायदा पहुंचाते रहे थे। राहुल इस बात से भी नाराज हैं कि राफेल और उनकी 72 हजार की स्कीम का पार्टी नेताओं ने कायदे से प्रचार−प्रचार नहीं किया। कांग्रेस में कोई ऐसा गैर गांधी परिवार का नेता नहीं है जो पार्टी को एक सूत्र में बांधे रख पाए। राहुल के इर्द−गिर्द घूमने वाले तमाम कांग्रेसियों को भी इस बार हार का मुंह देखना पड़ा है।

-अजय कुमार 

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