पश्चिम भी स्वीकार रहा है कि सुख-दुःख वास्तव में भौतिक संसाधनों पर निर्भर नहीं करते
आज पश्चिमी मनोविज्ञान इस स्थिति में पहुंचा जहाँ दबे स्वर में स्वीकारा जा रहा कि सुख-दुःख वास्तव में भौतिक संसाधनों पर निर्भर नहीं करते। सुख-दुःख मनुष्य की अनुभूति के ही परिणाम हैं, उसकी मान्यता, कल्पना एवं अनुभूति विशेष के ही रूप में सुख-दुख का स्वरूप बनता है।
रामचरितमानस एक ओर राम का जीवन चरित्र व मनुष्य जाति के अनुभवों का उत्कट निचोड़ है तो दूसरी ओर यह 'नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्' होकर सनातन धर्म के सभी मानक ग्रंथों के अर्क स्वरूप भी है, जिसे मानस के अंत में 'छहों शास्त्र सब ग्रन्थन को रस' कह कर दोबारा पुष्ट कर दिया गया है। मनुष्य से पुरुषोत्तम बनकर यानि मृत्यु से अमरत्व की ओर बढ़ने की यात्रा के पथ प्रदर्शक श्रीराम हैं। अपने भीतर छिपी संभावना और सुख-शांति की अभीप्सा को पूरा कर सकने की आकांक्षा के बीच, रामचरितमानस में राम इस मार्ग का संकेत हैं कि मनुष्य के स्वरूप को चरितार्थ करने और उससे ऊपर उठने और अपने भीतर निहित संभावनाओं को साकार करने का कोई लघुमार्ग (शॉर्टकट) नहीं हैं।
पारिवारिक, सामाजिक और लौकिक जीवन के कर्तव्य परायणता में राम ने अपने आचरण और व्यवहार से जो मानक स्थापित किए, उन मानकों में यह संभावना हमेशा निहित रही कि व्यक्ति का व्यवहार, परिस्थिति के अनुसार भले बदलता रहे, लेकिन उसका अंतरंग स्थिर रहे। मानव उन्हीं मूल्यों का प्रतिनिधित्व करे जो शाश्वत हो, जो मनुष्य और समाज के लिए हमेशा उपयोगी और ऊंचा उठाने वाले हों। उदाहरण के लिए परिवार को ही लें, राम में परिवार के अनुशासन, सबके प्रति विश्वास, एक-दूसरे के सुखों और इच्छाओं का निर्वाह और उनके लिए त्याग की भावना का महत्व रहा है। इन मूल्यों का निर्वाह रामचरित के हर प्रसंग में होता दिखाई देता है। क्षण भर में राजमुकुट धारण कर राजा राम बनने वाले बनवासी राम बनने हेतु बल्कल वस्त्र पहन लेते हैं और पिता के वचनों एवं माता कैकेयी के प्राप्त वरदान हेतु वन जाने हेतु निकल जाते हैं।
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व्यक्तिगत जीवन में राम ने एक ओर मर्यादाओं की प्रतिष्ठा की तो दूसरी ओर उन्होंने जहां जरूरी समझा, वहां मान्यताओं में दखल भी दिया। शूर्पणखा का अंग-भंग, अहिल्या को पुनर्जीवन और प्रतिष्ठा, एक पत्नीव्रत, बाली उद्धार, शबरी उद्धार, विभीषण को लंका का राज दे देना आदि कई प्रसंग हैं, जिनमें वह परंपरा से हटकर काम करते हैं। यह सब करते हुए वह धर्म-मर्यादा की स्थापना ही कर रहे होते हैं क्योंकि मर्यादा की स्थापना ही धर्म की शाश्वतता को बनाये रखती है। यदि यज्ञाग्नि भी मर्यादा का उल्लंघन करे तो उसे जल के द्वारा नियंत्रित करने का विधान धर्म का ही है। यदि इन कामों को पारिवारिक और सांस्थानिक रचनाओं के भरोसे छोड़ा जाता तो संभवतः पंचायतें, न्यायालय, दंडाधिकारी और समितियों को उन नतीजों पर पहुंचने में वर्षों लग जाते और न्याय की प्रक्रिया संपन्न होते- होते वह अर्थहीन व अनुपयोगी हो जाते।
टूटते संयुक्त परिवारों का सहारा है राम परिवार
इन दिनों परिवार का ढांचा बदल रहा है, संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। कई जगह तो नौकरी के कारण पति-पत्नी और बच्चों के लिए भी अलग तरह से सोचना और व्यवस्था बनानी पड़ रही है। ऐसे में जब कि ज्ञान परम्परा का एक पीढ़ी से दूसरी में प्रवाह बाधित हो गया है तो राम का चरित्र, मूल्य, व्यवहार और आदशों की यशोगाथा को समेटे श्री रामचरितमानस/ रामायण जीवन का संविधान बन सकता है। आज के बड़े-बड़े फैमिली सलाहकार अपनी सलाह में परिवारों में यही अंतिम सत्य बताते हैं कि परिवार वह इकाई है जहाँ आप तर्कों और जय-पराजय से समाधान नहीं पा सकते अपितु त्याग के द्वारा कर्तव्य पालन करके ही सुख शांति प्राप्त करेंगे। यह मान्यता भारत में त्रेतायुग में ही प्रभु राम के जीवन से स्थापित हो चुकी थी।
राम परिवार के आदर्श-स्नेह, सहयोग, सद्भाव और विश्वास को आधार बनाकर आपसी संबंधों, कर्तव्यों और दायित्वों को समझा और निबाहा जा सकता है। जब राम, लक्ष्मण और सीता वनवास संपन्न कर अयोध्याजी वापस आते हैं तो माता कौशल्या ने मिलते ही सबसे पहले लक्ष्मण से आकुल होकर पूछा कि मुझे दिखाओ तुम्हें शक्ति कहाँ लगी थी, पुत्र तुम्हें कितनी वेदना से गुजरना पड़ा ! लक्ष्मण जी ने इसका उत्तर दिया, 'वेदना राघवेन्द्रस्य केवलं व्रणिनो वयम' (वाल्मीकि रामायण) अर्थात हमें तो केवल घाव हुआ था, वेदना तो बड़े भाई राम को हुई थी। बस यही राम का सार है की सभी एक- दूसरे के भाव, प्रेम, हर्ष और विषाद में एकरस हो जाएँ।
राम जी के छोटे भाई भरत जी का चरित्र तो ऐसा है की कहीं-कहीं उनकी श्रद्धा, समर्पण और मर्यादा रूपी हिमालय के आगे रामजी लघु प्रतीत होते हैं। भाई की चरण पादुका से राज चलाना और स्वयं नंदीग्राम में भूमि पर सोना और पर्णकुटी में रहना। राम जी अपने भाई भरत को राजधर्म की सीख देते हुए कहते हैं की, 'मुखिआ मुखु सो चाहिए' यानि मुखिया मुख के समान होना चाहिए, जो स्वयं के पोषण या सुख में अकेला है, परन्तु विवेक पूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है। राम और भरत का चरित्र भरत-मिलाप प्रसंग में एक दूसरे के सामने ऐसे अडिग हैं की तुलसीदास जी को लिखना पड़ता है 'धीर धुरंधर धीरजु त्यागा' यानि भरत जी के असीम त्याग और मर्यादा के समक्ष धैर्य की धुरी धारण करने वाले श्रीराम को भी अपना धीरज प्रेमाश्रुओं के सामने तोड़ देना पड़ता है।
अयोध्या के एक राजकुमार श्री राम द्वारा सुदूर वन में हनुमान को आभार व्यक्त करने के क्रम में कहा जाता है- मय्येव जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं हरे। नरः प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमनुकाङ्क्षति॥
(हे कपिकुलनन्दन।) आपने जो मेरे साथ उपकार किया है वह मेरे में ही जीर्ण हो जाय (मुझमें पच जाय), बाहर अभिव्यक्ति का कोई अवसर ही न आवे, क्योंकि प्रत्युपकार करने वाला व्यक्ति अपने उपकारी के लिये विपत्ति की कामना करता है, जिससे उसे अपने प्रत्युपकार के लिए उचित अवसर मिले (वा. रामायण)।
भगवान राम के समय में सनातन संस्कृति के वैचारिक मानदंडों पर विचार करें और उस काल खंड में संसार की अन्य संस्कृतियों के विकास से तुलना करें तो सहज ही आपको यह अनुभव होगा कि राम और अयोध्या के समाज का उत्कृष्ट सामाजिक एवं पारिवारिक मूल्य कितना ऊँचा था और संसार भर में क्यों प्रासंगिक हुआ।
सुख-दुःख की अनुभूति
आज पश्चिमी मनोविज्ञान इस स्थिति में पहुंचा जहाँ दबे स्वर में स्वीकारा जा रहा कि सुख-दुःख वास्तव में भौतिक संसाधनों पर निर्भर नहीं करते। सुख-दुःख मनुष्य की अनुभूति के ही परिणाम हैं, उसकी मान्यता, कल्पना एवं अनुभूति विशेष के ही रूप में सुख-दुख का स्वरूप बनता है। जैसा मनुष्य का भावना स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दुःख की अनुभूति होगी। एक ओर जहाँ पश्चिमी संसार सुख को परिभाषित करने में भौतिक संसाधनों के अंतहीन दौड़ में लगा है वहीं सनातन धर्म में सुख-दुःख का विमर्श एक साथ त्रेतायुग से होता आया है। हम मानते हैं कि सुख और दुःख दो भिन्न अवस्थाएं होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं।
मृत्युशैय्या पर पड़े हुए दशरथ से मंत्री सुमंत्र कहते हैं-
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहि गोसाई। बरबस रात्रि दिवस की नाई।
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोड सम धीर धरहिं मन माहीं॥
अर्थात जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी, काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं। मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। (मानस)
श्रीराम, कुटुंब प्रबोधन की आवश्यकता
भगवान श्रीराम एवं उनके समाज का चिंतन केवल रावण को मारकर सीता माता की प्राप्ति तक सीमित कर देना उचित नहीं है, जैसा कि आज के डिजिटल विमर्श में चहुंओर दिखाई दे रहा है। आज जबकि भारतीय समाज एकजुट होकर श्री अयोध्या जी में प्रभु राम का भव्य मंदिर बना रहा है तो ऐसे में हम सभी को समाज की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी यानि अपने परिवार के प्रबोधन पर विशेष बल देना चाहिए। ऐसे में राम के सामाजिक, पारिवारिक एवं कर्त्तव्य आधारित चिंतन का परिवार के साथ प्रतिदिन 10 मिनट बैठकर विमर्श अवश्य करना चाहिए। बच्चों को अगले दिन राम के ऊपर बोलने का चिंतन बिंदु दें जिससे उनके भीतर भी संस्कार की ज्योति जल सके। घर में एक रामचरितमानस रखें और सप्ताह में एक बार पूरा परिवार एक साथ बैठकर उसका पाठ अवश्य करे।
-शिवेश प्रताप
(लेखक शिवेश प्रताप, धर्म-संस्कृति के अध्येता हैं तथा प्रभुराम के डिजिटल विश्वकोश RamCharit.in के फाउंडर हैं।)
(तकनीकी प्रबंधन सलाहकार, IIM कलकत्ता Alumni, लेखक, स्तंभकार)
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