PDA बनाम DPA की सियासी जंग के मायने को ऐसे समझिए

Akhilesh Yadav
ANI
कमलेश पांडे । Jul 11 2024 4:46PM

भाजपा अब इस बात से वाकिफ हो चुकी है कि अल्पसंख्यक मुस्लिम व ईसाई वर्ग एक ऐसा मजबूत वोट बैंक है जो उसके खिलाफ थोक भाव में पड़ता है। जबकि बहुसंख्यक लोगों के मत जाति और क्षेत्र के नाम पर बिखर जाते हैं।

उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक समीकरण यानी "पीडीए" की अप्रत्याशित सफलता के बाद उसकी असरदार काट भी भारतीय जनता पार्टी ने ढूंढ ली है और जवाबी दलित-पिछड़ा-अगड़ा समीकरण यानी "डीपीए" का स्वर बुलंद कर दिया है। समझा जा रहा है कि देश को सर्वाधिक पीएम देने वाले यूपी से शुरू हुई पीडीए बनाम डीपीए की गोलबंदी देर-सबेर हिंदी भाषी सभी राज्यों से होते हुए गैर हिंदी भाषी राज्यों तक पहुंच जाएगी और सियासत पर अपनी गहरी छाप छोड़ेगी। 

राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि एक तरफ सामाजिक न्याय आंदोलन (मंडल आंदोलन) से निकली समाजवादी पार्टी ने अपनी पीडीए मुहिम के सहारे जहां अपने पुराने वोट बैंक को फिर से सहेजते हुए हासिल कर ली है, वहीं, दूसरी तरफ राष्ट्रवाद और हिंदुत्व (कमंडल आंदोलन) से मजबूत हुई भाजपा अपनी उदार राजनीति की वजह से हालिया झटका खाने के बाद फिर से संभलने के लिए अपने पुराने वोट बैंक को सहेजने के प्रयास डीपीए के मार्फ़त तेज कर चुकी है। 

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चर्चा है कि अब तक अगड़ों व दलितों की 'सीमित उपेक्षा' करके ओबीसी को बढ़ावा देने वाली और पसमांदा अल्पसंख्यकों को जोड़ने के लिए अथक परिश्रम करने वाली भाजपा को जब आम चुनाव 2024 में यूपी समेत कई राज्यों में रणनीतिक झटका लगा तो उसका ओबीसी वाला शुरुर काफूर हो गया और अब तक का सारा सियासी गुरूर चकनाचूर हो गया। क्योंकि उत्तरप्रदेश जैसे अहम राज्य में ही उसकी स्थिति चिंताजनक समझी जाने लगी, जबकि यहां पर उसकी एक मजबूत सरकार भी है, जिसका नेतृत्व फायर ब्रांड हिन्दू नेता व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कर रहे हैं।

बावजूद इसके, कड़वा सच है कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के सहयोग से सपा प्रमुख व ओबीसी नेता अखिलेश यादव के अप्रत्याशित उभार से यानी एकाएक बनी तीसरी बड़ी पार्टी के मुखिया समझे जाने से ओबीसी पीएम नरेंद्र मोदी और उनकी सवर्ण-दलित विरोधी टीम के होश फाख्ता हो चुके हैं। बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में पीएम नरेंद्र मोदी और एचएम अमित शाह ने यह समझ लिया है कि अब तक जिस ओबीसी वोट बैंक को लुभाने के लिए वे लोग अथक परिश्रम करते आ रहे हैं और मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, उपराज्यपाल, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, विभिन्न आयोगों के अध्यक्ष आदि में ऑंख मूंद कर बढ़ावा दे रहे हैं, वह मूलतः समाजवादियों का वोट बैंक रहा है, जो यूपी आदि राज्यों में एक बार फिर समाजवादी मूल के क्षेत्रीय दलों की ओर शिफ्ट हो गया। 

जबकि दलित कांग्रेस व दलितवादी दलों के मूल वोट बैंक हैं, जो दलितवादी दलों की अनुपस्थिति में कांग्रेस की तरफ शिफ्ट होते दिखाई दिए। उधर, आदिवासी वोट भी भाजपा और कांग्रेस में बंट रहे हैं। वहीं, भाजपा समर्थक अगड़ों में भी नीतिगत उपेक्षा के चलते रोष दिखा और उनका एक मजबूत धड़ा भाजपा को सबक सिखाने के लिए कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों से जुड़ गए या फिर मतदान में उदासीन बना रहा, जिससे वोटिंग का ग्राफ गिरा। 

वहीं, अल्पसंख्यक वोट जहां पहले स्थानीय रणनीति के मुताबिक कांग्रेस और समाजवादियों में बंटते आए हैं, लेकिन अब यह अल्पसंख्यक वोट भी संसदीय चुनाव में कांग्रेस व उसके मित्र दलों की ओर और विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस मजबूत नहीं है, वहां कांग्रेस मूल के क्षेत्रीय दलों या समाजवादी आंदोलन मूल की स्थानीय पार्टियों की ओर शिफ्ट होने लगे हैं। तीन तलाक प्रथा बंद करने हेतु कानून बनाने के बाद मुस्लिम महिलाओं का जो रुझान भाजपा की ओर बताया गया, वह भी आम चुनाव 2024 में नहीं दिखा। उधर पसमांदा मुसलमानों ने भी भाजपा पर भरोसा नहीं किया।

लिहाजा, भाजपा अब इस बात से वाकिफ हो चुकी है कि अल्पसंख्यक मुस्लिम व ईसाई वर्ग एक ऐसा मजबूत वोट बैंक है जो उसके खिलाफ थोक भाव में पड़ता है। जबकि बहुसंख्यक लोगों के मत जाति और क्षेत्र के नाम पर बिखर जाते हैं। यही वजह है कि भाजपा ने दलितों और अगड़ों को लुभाने या कहें कि फिर से उन्हें जोड़ने के लिए अपने सत्तागत समीकरण को एक बार फिर से दुरुस्त करने का संकेत दिया है। 

यही वजह है कि अपनी जवाबी समीकरण में भाजपा ने अल्पसंख्यक के स्थान पर अगड़ा शब्द का जो प्रयोग किया है, वह यदि सफल रहा तो कांग्रेस की ओर लौट रहे अगड़े पुनः भाजपा में थम सकते हैं, बशर्ते कि उन्हें 10 प्रतिशत आरक्षण का लाभ देने वाली और सवर्ण आयोग गठित करने का साहस दिखाने वाली भाजपा नीतिगत व व्यवहारिक रूप में सवर्णों के साथ वह खेल नहीं खेले, जैसे कि पिछले 10 सालों में जहां-तहां दिखाई दिए हैं। पहले ब्राह्मणों के साथ, फिर राजपूतों के साथ।

भाजपा माने या न माने, लेकिन यह कड़वा सच है कि जब तक सवर्ण वोटर उसके साथ रहे, तब तक वह पूर्ण बहुमत वाली पार्टी बनी रही, लेकिन जैसे ही वो टुकड़ों में कांग्रेस व उसके मित्र दलों की ओर झुके, भाजपा अपनी असली औकात में दिखाई दी। ऐसे में पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री कौशल किशोर ने डीपीए का जो असरदार दांव चला है, वह यदि दलित, पिछड़ा और अगड़ा को लुभा लेता है तो न केवल हिंदुत्व को मजबूती मिलेगी, बल्कि सामाजिक न्याय भी सधेगा। यही भाजपा के हित में भी है और अखिलेश यादव के पीडीए का असरदार काट भी। क्योंकि अल्पसंख्यक वोट व्यवहार से उसे जो क्षति होगी, उसे अगड़े ही पूरा कर सकते हैं, बशर्ते कि दलित, पिछड़ा व अगड़ा की सही सियासी केमिस्ट्री बनाने में भाजपा सफल हो।

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

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