राम तिरपाल में रहें और आप राष्ट्रपति भवन में?
जब उनकी सरकार नहीं बन पाती थी तो जनता से वे इसलिए वोट माँगते थे कि पूर्ण बहुमत में आने पर वे क़ानून बना कर अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर बनाएंगे। जनता ने जब से उन्हें पूर्ण बहुमत दिया, इनमें से कोई भी अयोध्या नहीं गया।
राम के नाम पर इज्जत। राम के नाम पर शोहरत। राम के नाम पर प्रसिद्धि। राम के नाम पर बहस। राम के नाम पर राजनीति। राम के नाम पर सत्ता का सुख। राम के नाम पर चक्रवर्ती बन जाने की चाहत। लेकिन राम खुद तिरपाल में रहें.. ना तो राम की सुधि और न ही अयोध्या की। राम धूप में तप रहे हों तो तपें। राम बारिश में भीग रहे हों तो भीगते रहें। राम जाड़े में ठिठुरते हैं तो ठिठुरते रहें.. अयोध्या मरघट बने या कब्रगाह, उनको इससे क्या फर्क पड़ता है। यह सोचने की बात है कि भारत की करोड़ों करोड़ जनता की आस्था जिस राम में है उस राम को छलने वालों को सजा तो मिलनी ही थी। इन्होंने केवल राम को ही नहीं छला है। इन सभी ने समगरा सनातन परम्परा को छला है। ये न तो हिन्दू हैं और ना ही भारतीय।
ये लोग केवल राजनीतिक लोग हैं। इन्हें केवल और केवल सत्ता के सुख से मतलब है। इन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये किसको अपनी राजनीति का माध्यम बना रहे हैं। वह कोई व्यक्ति हो सकता है। कोई समाज हो सकता है। कोई स्त्री हो सकती है। कोई पुरुष हो सकता है। कोई आस्था हो सकती है। कोई मज़हब हो सकता है। कोई नदी हो सकती है। कोई पशु हो सकता है। कोई आस्था का प्रतीक हो सकता है। कोई महामानव हो सकता है। कोई देवी हो सकती है कोई देवता हो सकता है। ये किसी को भी जरिया बना सकते हैं। इन्हें इसमें न तो किसी प्रकार का संकोच होता है न ही शर्म। इनको बस अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से मतलब होता है।
जब राम मंदिर आंदोलन के आंदोलनकारी कहे जाने वाले लोगों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है, तब यह लिखना बहुत ही उचित लगता है की अभी भी उन लोगों के लिए समय है जो राम से छल कर राजनीति कर रहे हैं। यह तो राम का वार है। इसमें कोई शब्द नहीं होता। बस यह लग जाता है और शिकार धरती में समा जाता है। जिन लोगों के खिलाफ फैसला आया, उन सभी को देश, जनता और पूरा हिन्दू समाज बड़ी श्रद्धा से देखता था। बड़ी शोहरत और इज्जत थी इनके प्रति। सनातन परम्परा के अलम्बरदार कहे जाते थे ये लोग। लेकिन तब जनता की भावनायें आहत होने लगीं जब उसने देखा की इनको राम की कोई फिकर ही नहीं है। ये तो राम के नाम की राजनीति कर के केवल अपनी सत्ता के बारे में विचारशील हैं। कोई ज़रा इनसे पूछे कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने की कसम खाने के बाद इनमें से कितने ऐसे हैं जिन्होंने दुबारा अयोध्या की यात्रा की। एक या दो लोग ऐसे जरूर निकल सकते हैं, लेकिन बाकी तो राष्ट्रीय राजधानी की ही शोभा बढ़ाते रहे।
इनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं जो वर्त्तमान सत्ता संस्थान का सुख भोग रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो भारत के प्रथम पुरुष के रूप में खुद को देखना चाहते थे। वे सच में राम को छल रहे थे। जब उनकी सरकार नहीं बन पाती थी तो जनता से वे इसलिए वोट माँगते थे कि पूर्ण बहुमत में आने पर वे क़ानून बना कर अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर बनाएंगे। जनता ने जब से उन्हें पूर्ण बहुमत दिया, इनमें से कोई भी अयोध्या नहीं गया। ये इस बात को क्यों नहीं समझ सके कि इस देश में आदमी यदि किसी भी मंदिर या तीर्थ में कोई मन्नत मांगता है तो काम पूरा होते ही वह वह जाकर सबसे पहले उस जगह, देवता का क़र्ज़ चुकाने के बाद ही कोई काम करता है। लेकिन ये तो अपने कद और अपने मद में इतने चूर हैं कि इनको राम की क्या चिंता। इस बार राम जन्म के दिन भी अयोध्या में जाने की इनको जरूरत नहीं महसूस हुई।
आज अयोध्या की हालत यह है की वहां का मुसलमान खुद इस ताक में है कि वह किसी तरह राम का मंदिर बनवा दे ताकि राम की कृपा अयोध्या पर हो और वहां का विकास हो सके। वहां के मुसलमान जानते हैं कि राम के नाम पर राजनीति करने वाले कभी भी इस मुद्दे को शांत नहीं होने देंगे और इस कारण वहां कभी भी विकास नहीं हो सकता। आज यदि कोई सार्थक बातचीत हो तो अयोध्या में तत्काल राम मंदिर बन सकता है। अयोध्या तो इस बात का दो वर्ष से इंतज़ार कर रही है कि कोई आये और इस मुद्दे पर मिल बैठ कर बात करे। अयोध्या का मुसलमान भी चाहता है कि उसके शहर का समुन्नत विकास हो। आज हालत यह है कि अयोध्या की सड़कों पर चलना दूभर है। वहां की गलियों में गंगाजी का साम्राज्य है। सार्वजनिक स्थलों पर न तो पीने का पानी मिलेगा और न ही शौचालय। यहाँ आज भी समय समय पर लाखों श्रद्धालु आते हैं लेकिन व्यवस्था के नाम पर कुछ भी नहीं है।
मैंने खुद अयोध्या में कई बार वहां की आबादी, खासकर उन मुसलमानों से भी बात की है जो वहां के मूल निवासी के रूप में रह रहे हैं। वे साफ़ साफ़ कहते हैं कि इस राजनीति ने हम लोगों को जानवर बना दिया है। अब मन में आता है कि हम लोग ही आगे चलें और खुद ही कारसेवक पुरम से पत्थर उठा कर राम का मंदिर बना दें लेकिन खुराफातियों के कारण हम नहीं कर पाते। वे कहते हैं कि केवल राजनीतिक मुद्दा बना कर इस मामले को लटकाया गया है वरना वास्तव में यदि सरकार चाहती तो मिल बैठ कर यह प्रकरण बहुत पहले ही सुलझ गया होता। अदालत के फैसले से उन लोगों को भी सबक लेना चाहिए जो निहुरे निहुरे ऊँट चुराना चाहते हैं। राम को दगा देने वालों का तो यह हश्र होना ही था। राम तिरपाल में रहें और आप राजभवन या राष्ट्रपति भवन में, यह कैसे संभव है?
- संजय तिवारी
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